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Editorial: महिला रोजगार की चुनौतियां

Women employment: नौकरियों के सृजन में उल्लेखनीय बढ़त से शायद चीजें बदल सकती हैं, जिससे कि कुशल और अर्द्ध कुशल, दोनों तरह के श्रम के लिए मांग बढ़ेगी।

Last Updated- May 22, 2024 | 9:44 PM IST
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जनवरी से मार्च 2024 (वित्त वर्ष 24 की चौथी तिमाही) के लिए हाल में जारी आवधिक श्रम बल सर्वेक्षण के तिमाही बुलेटिन से महिलाओं और भारतीय श्रम बाजार में उनकी स्थिति को लेकर कई दिलचस्प जानकारियां सामने आई हैं। कार्यबल में भागीदारी के लिहाज से देखें तो शहरी इलाकों में महिला श्रम बल भागीदारी दर (एलएफपीआर) 2022-23 की चौथी तिमाही के 22.7 फीसदी से बढ़कर 2023-24 की चौथी तिमाही में 25.6 फीसदी तक हो गई है। साल 2022 से ही महिला एलएफपीआर में लगातार बढ़त देखी जा रही है। यह साल 2017-18 में पीएलएफएस की शुरुआत के बाद से अब तक के उच्च स्तर पर पहुंच गई है।

इसके अलावा, साल 2022 से ही शहरी इलाकों में महिला बेरोजगारी दर घटती जा रही है। वित्त वर्ष 23 की चौथी तिमाही के 9.2 फीसदी से घटकर वित्त वर्ष 24 की चौथी तिमाही में यह 8.5 फीसदी रह गई है। हालांकि श्रम बल में महिलाओं का प्रतिनिधित्व लगातार कम बना हुआ है। महिला एलएफपीआर पुरुष एलएफपीआर के एक तिहाई के आसपास है, जो कि वित्त वर्ष 24 की चौथी तिमाही में 74.4 फीसदी थी। यह जरूरी नहीं कि समान भागीदारी अपने आप महिला-पुरुष समानता की गारंटी हो, लेकिन भारत अब भी महिला और पुरुष दोनों के मामले में समान श्रम बाजार नतीजे से हासिल करने से दूर है।

इसके अलावा, 2022-23 की चौथी तिमाही और 2023-24 की चौथी तिमाही के बीच शहरी भारत में कुल महिला कामगारों में नियमित वेतनभोगी नौकरियों वाली महिला कर्मचारियों का हिस्सा 54.2 फीसदी से घटकर 52.3 फीसदी रह गया। पिछले छह साल में यह किसी भी तिमाही में सबसे कम है। इसी दौरान, स्वरोजगार में लगी महिलाओं का हिस्सा 2022-23 की चौथी तिमाही के 38.5 फीसदी से 2023-24 की चौथी तिमाही में बढ़कर 41.3 फीसदी हो गया। इसमें घरेलू उद्यमों में बिना वेतन काम करने वाले लोग भी शामिल होते हैं।

ये दोनों घटनाएं संकेत करती हैं कि काम की गुणवत्ता घट रही है। यह देखा गया है कि शहरी महिलाओं में शिक्षा के स्तर बढ़ने से ऐसी महिलाओं की संख्या बढ़ी है जो घर में रहकर घरेलू जिम्मेदारियां संभालना चाहती हैं। महिला श्रम भागीदारी दर अक्सर 20 से 25 साल की महिलाओं में कम रहती है, जो यह संकेत देता है कि शादी या पारिवारिक जिम्मेदारियों की वजह से महिलाओं की श्रम में भागीदारी सीमित हो जाती है। जो महिलाएं कोई उत्पादक रोजगार हासिल नहीं कर पातीं, उनके लिए अपने पुरुष साथी के जैसा पर्याप्त वेतन हासिल कर पाना मुश्किल होता है।

स्वरोजगार और पारिवारिक उद्यमों में बिना वेतन वाले रोजगार में बढ़त, जो कि सालाना पीएलएफएस रिपोर्ट में भी दिखता है, इस बात को रेखांकित करती है कि देश में लाभकारी रोजगार के अवसर कम हैं। शहरी रोजगार के मामले में देखें तो कंपनियों ने महामारी के बाद अपने कर्मचारियों को वापस दफ्तर में काम पर बुलाया है, जिसकी वजह से महिलाओं में नौकरी छोड़ने की दर तेज हुई है- महामारी के दौरान घरेलू जिम्मेदारियों में बदलाव की वजह से बहुत सी महिलाओं के लिए काम पर वापस जाना संभव नहीं रह गया।

महिलाओं के एलएफपीआर और कार्यबल भागीदारी दर में अच्छी बढ़त के बावजूद शहरी इलाकों में नौकरियों का अपर्याप्त सृजन होने का मतलब यह है कि महिलाओं का बड़ा हिस्सा उत्पादक कार्य अवसरों में समायोजित नहीं हो पाया है, भले ही अच्छी जीविका की तलाश में शहरों में पलायन बढ़ा हो। भारत के श्रम बाजार में महिला-पुरुष खाई हमेशा शैक्षणिक उपलब्धि और पेशेवर कौशल में अंतर की वजह से ही नहीं होती। अक्सर श्रम बाजार महिलाओं द्वारा मांगे जाने वाले कार्य समय के लचीलेपन को मुहैया नहीं करते।

नौकरियों के सृजन में उल्लेखनीय बढ़त से शायद चीजें बदल सकती हैं, जिससे कि कुशल और अर्द्ध कुशल, दोनों तरह के श्रम के लिए मांग बढ़ेगी। सरकार ने कार्यबल में महिलाओं के सहयोग के लिए कई कदम उठाए हैं, लेकिन बड़ी संख्या में छोटे उद्यमों की भारतीय अर्थव्यवस्था की प्रकृति भी ऐसी संरचनात्मक अड़चन पैदा करती है जिसका छोटी अवधि में समाधान कर पाना मुश्किल है।

First Published - May 22, 2024 | 9:44 PM IST

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