केंद्रीय वित्त मंत्रालय के मुख्य अर्थशास्त्री वी अनंत नागेश्वरन के नेतृत्व में वहां के अर्थशास्त्रियों ने गत सप्ताह एक निबंध संग्रह जारी किया। नागेश्वरन और उनकी टीम की इस बात के लिए सराहना की जानी चाहिए कि उन्होंने एक ऐसा संग्रह पेश किया जो जरूरी अंत:दृष्टि प्रदान करता है तथा असमानता, देश की अंतरराष्ट्रीय कारोबारी स्थिति और जलवायु परिवर्तन को लेकर वित्तीय सहायता प्रदान करने संबंधी मौजूदा नीतिगत बहस में योगदान करता है। इस संग्रह की शुरुआत सॉवरिन क्रेडिट रेटिंग और उससे संबद्ध समस्याओं को उठाकर की गई है।
केंद्र सरकार रेटिंग की प्रक्रिया से असहमत है और यह बात जाहिर है। सरकार अतीत में भी वैश्विक रेटिंग एजेंसियों के साथ यह विषय उठाती रही है। वर्ष 2020-21 की आर्थिक समीक्षा में भी इस विषय पर विस्तार से बात की गई है।
क्रेडिट रेटिंग आधुनिक वित्तीय व्यवस्था का अहम हिस्सा हैं और इनसे अपेक्षा की जाती है कि ये कर्जदारों को कर्जदाताओं के बारे में निर्देशित करेंगे। कम रेटिंग ऋण की उपलब्धता और लागत दोनों को प्रभावित करती है। निजी क्षेत्र की कंपनियों के लिए यह व्यवस्था जहां अधिक सीधी है, वहीं सरकारों के मामले में यह थोड़ा जटिल है। आंशिक तौर पर ऐसा इसलिए कि रेटिंग जारी करने के मानकों को लेकर भी कुछ दिक्कतें हैं।
इस संदर्भ में वित्त मंत्रालय के अर्थशास्त्रियों ने सही इशारा किया है कि रेटिंग एजेंसियों द्वारा इस्तेमाल किए जाने वाले तरीके अस्पष्ट हैं और विकासशील देशों के लिए नुकसानदेह साबित हो सकते हैं। यह आलेख मौजूदा रेटिंग व्यवस्था से जुड़े कई मामलों को रेखांकित करता है जहां पारदर्शिता की गुंजाइश बाकी है। यह प्रक्रिया इसलिए भी महत्त्वपूर्ण हो गई है कि महामारी के कारण सरकारी कर्ज में इजाफा हुआ है और इसके चलते विकासशील देशों की रेटिंग में कमी आने की आशंका बढ़ी है।
उदाहरण के लिए जैसा कि निबंध में कहा गया है 2020 से 2022 के बीच तीन बड़ी रेटिंग एजेंसियों में से एक ने करीब 56 फीसदी अफ्रीकी देशों की रेटिंग कम की। इस बीच यूरोप में केवल नौ फीसदी देशों की रेटिंग कम की गई।
भारत की बात करें तो जैसा कि 2020-21 की आर्थिक समीक्षा में कहा गया सॉवरिन ऋण रेटिंग वास्तविक स्थिति का चित्रण नहीं करतीं। उदाहरण के लिए भारत कई वर्षों से दुनिया की सबसे तेजी से विकसित होती हुई अर्थव्यवस्था वाला देश बना हुआ है। भारत दुनिया में सबसे अधिक विदेशी मुद्रा भंडार वाला देश है। विदेशी ऋण को लेकर सरकार का जोखिम निहायत कम है और भारत ने कभी देनदारी में चूक नहीं की है।
इसके बावजूद निवेश श्रेणी में भारत को सबसे कम रेटिंग प्रदान की गई है जो कि अनुचित है। निश्चित तौर पर रेटिंग एजेंसियों द्वारा अपनाए गए तरीकों पर सवाल हैं लेकिन कई मौकों पर यह भी साबित हुआ है कि मौकों पर खासकर तनाव के अवसरों पर वे भेड़चाल का प्रदर्शन करते हैं।
चूंकि सॉवरिन रेटिंग एक बाहरी बाधा है और भारत को उसके साथ ही रहना होगा इसलिए बहस इस बात पर होनी चाहिए कि क्या यह वृहद आर्थिक प्रबंधन अथवा वृद्धि संभावनाओं को क्षति पहुंचा रहा है अथवा नहीं।
भारत के मामले में रेटिंग में सुधार किया जाना चाहिए लेकिन क्या ऐसा करने से दीर्घावधि की वृद्धि संभावनाओं में सुधार होगा और वृहद जोखिम में कमी आएगी? कई विकासशील अर्थव्यवस्थाओं के उलट भारतीय अर्थव्यवस्था का आकार और उसकी जटिलता वैश्विक स्तर पर कई प्रकार के लाभ की पेशकश भी करती है और उसे काफी बचत आकर्षित करने का मौका मिलता है।
उदाहरण के लिए भारत के सरकारी बॉन्डों को अब वैश्विक बॉन्ड सूचकांक में स्थान दिया जा रहा है। ऐसा और समावेशन देखने को मिल सकता है। व्यापक तौर पर देखा जाए तो भारत हाल के दशकों में अपने चालू खाते के घाटे की सहजता से भरपाई करने में कामयाब रहा है। टिकाऊ ढंग से ऊंची वृद्धि हासिल करने के लिए हमें और बचत की आवश्यकता होगी।
बहरहाल, इसका बड़ा हिस्सा घरेलू स्तर पर जुटाना होगा। ऐसा सरकारी बजट घाटे को कम स्तर पर रोककर ही किया जा सकता है। भारी सरकारी उधारी भविष्य की वृद्धि और सॉवरिन रेटिंग दोनों के लिए जोखिम है।