कोविड-19 महामारी की दूसरी लहर अब कमजोर पडऩे लगी है। इस अच्छी खबर के बीच नीति-निर्धारकों में इस बात की उम्मीद जगी है कि देश की अर्थव्यवस्था महामारी की प्रचंड मार से पूरी तरह उबर जाएगी। सरकार के मुख्य आर्थिक सलाहकार ने ऐसी ही आशा प्रकट की है। भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) के गवर्नर ने भी ऐसे ही संकेत दिए हैं। सरकार और आरबीआई गवर्नर की बातें संभवत: सच होंगी। कोविड महामारी को भारतीय अर्थव्यवस्था पर दीर्घ अवधि तक असर डालने वाली त्रासदी बताने वाले लोगों की आशंकाएं निर्मूल साबित होंगी। दूसरी लहर में कोविड संक्रमण जब चरम पर था तो प्रतिदिन संक्रमित होने वाले लोगों की संख्या पिछली लहर की तुलना में चार गुने के स्तर तक पहुंच गई थी। पहली लहर की चपेट में आकर भारतीय अर्थव्यवस्था 7.3 प्रतिशत तक फिसल गई। दूसरी लहर में अधिक लोगों को अपनी जान गंवानी पड़ी जिसे देखते हुए कुछ लोग तुरंत इस निष्कर्ष पर पहुंच गए कि इस बार अर्थव्यवस्था को पहले से भी अधिक कीमत चुकानी होगी। हालांकि अब ऐसा लग रहा है कि दूसरी लहर का आर्थिक असर उतना नहीं हुआ है जितनी आशंका जताई जा रही थी।
देश की अर्थव्यवस्था के प्रदर्शन और लोगों के इस महामारी का शिकार होने के बीच कोई सीधा संबंध नहीं है। कुछ लोगों को मेरा यह तर्क अटपटा लग सकता है। हालांकि द्वितीय विश्व युद्ध की समाप्ति के बाद यह बात प्रमाणित हो गई थी। दूसरे महायुद्ध में अकेले सोवियत संघ के 2.1 करोड़ सैनिक मारे गए थे और बड़ी संख्या में आम लोग भी हताहत हुए थे। हालांकि इसके बाद औद्योगिक उत्पादन में जबरदस्त इजाफा हुआ। महायुद्ध के कारण मांग बढ़ गई थी जिससे उत्पादन भी बढ़ता गया। अमेरिका और ब्रिटेन में भी ऐसा ही हुआ। जर्मनी में तो और चौंकाने वाली बात नजर आई। वहां औद्योगिक ढांचे को तबाह करने के लिए एक खास लक्ष्य के साथ बमबारी हुई थी, लेकिन यह रणनीति कामयाब नहीं हो पाई।
आधुनिक अर्थव्यवस्थाएं विकेंद्रित हैं, इसलिए आपूर्ति में कई तरह की बाधाएं आने पर भी सकल उत्पादन की रफ्तार बहुत सुस्त नहीं पड़ती है। कुशल और अकुशल दोनों तरह के लोगों की तादाद इतनी है कि युद्ध या सामान्य परिस्थितियों में जान-माल की क्षति होने पर भी विशेष फर्क नहीं पड़ता है और अर्थव्यवस्था की जरूरतें पूरी हो जाती हैं। मौजूदा महामारी से आपूर्ति के लिए एक अलग किस्म की समस्या पैदा हुई है। संक्रमण रोकने के लिए हमें लोगों को एक जगह एकत्र होने से रोकना पड़ रहा है। इन परिस्थितियों में भी आपूर्ति निरंतर बनाए रखने की चुनौती है। इस लिहाज से पहली लहर से हमें काफी कुछ सीखने को मिला है। पहली लहर में पिछले वर्ष भारत ने देशव्यापी लॉकडाउन लगा दिया था। अंतर-राज्यीय परिवहन और यात्राएं रुक गईं। कृषि, स्थानीय स्तर पर निर्माण कार्य और विनिर्माण एवं सेवाओं को छोड़कर ज्यादातर गतिविधियां थम गईं। उन क्षेत्रों में भी औद्योगिक गतिविधियां रुक गईं जहां संक्रमण के मामले काफी कम थे। इन तमाम बातों से वित्त वर्ष 2020-21 की पहली तिमाही में उत्पादन में तेज गिरावट आई। तब तक टीके भी उपलब्ध नहीं थे इसलिए लॉकडाउन से जल्दी बाहर निकलना भी मुमकिन नहीं था।
दूसरी लहर पर अंकुश लगाने के लिए लॉकडाउन तो लगाया गया लेकिन यह सीमित स्तर पर रहा और आर्थिक गतिविधियां पूरी तरह नहीं थमीं। पूरे देश के बजाय लॉकडाउन स्थानीय स्तर पर लगाया गया। अंतर-राज्यीय यात्रा और परिवहन बदस्तूर जारी हैं। कंपनियां भी लॉकडाउन के बीच काम करना सीख गई हैं। चुनौतियों के बीच भी माल ढुलाई एवं भंडारण निर्बाध रूप से जारी रखने की व्यवस्था उन्होंने सुनिश्चित कर ली है।
पिछली बार की तरह लोगों के आने-जाने पर मनमाना प्रतिबंध भी नहीं लगाया गया है। कुल मिलाकर, लॉकडाउन से बहुत अधिक असर नहीं हुआ है। लॉकडाउन की आशंका से अपने गृह प्रदेशों एवं जिलों को लौट आए मजदूरों के भी अब वापस आने के संकेत मिलने लगे हैं। कोविड-19 से बचाव के टीके उपलब्ध होने के बाद स्थिति तेजी से सामान्य हो रही है। तीसरी लहर आने की आशंका भी टीके आने के बाद कमजोर पडऩे लगी है। स्वास्थ्य सुविधाएं दुरुस्त की जा रही हैं जिससे अगर तीसरी लहर आई तो भी देश उससे अधिक सशक्त तरीके से निपट लेगा। संक्षेप में, इन तमाम बातों से दो निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं। पहला, महामारी का असर मोटे तौर पर पहली तिमाही तक ही सीमित रहेगा। दूसरी बात यह कि तीसरी लहर आती है तो भी अर्थव्यवस्था पर बड़ी चोट नहीं कर पाएगी। विकसित देशों में तेजी से सुधार और चालू वित्त वर्ष के लिए 9.5 प्रतिशत आर्थिक वृद्धि दर का भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) का अनुमान भी भविष्य के लिए अच्छी उम्मीदें जगा रहे हैं। जैसा पिछले वर्ष हुआ, अगर आने वाले हफ्तों में प्रतिबंध तेजी से हटते हैं तो अर्थव्यवस्था फिर सरपट आगे भागेगी। ऐसा नहीं है कि हालात में सुधार सीमित अवधि के लिए ही होगा और फिर इसके आगे अर्थव्यवस्था तेजी से आगे नहीं बढ़ पाएगी। दीर्घ अवधि में आर्थिक वृद्धि दर को लेकर निराशावादी रवैया ठीक नहीं है। यह बात लगभग साफ है कि हाल के वर्षों में आर्थिक वृद्धि दर में कमी की सबसे बड़ी वजह कंपनियों के ऊपर अधिक कर्ज और बैंकों में गैर-निष्पादित परिसंपत्तियों (एनपीए) की अधिक मात्रा रही है। अब इसके स्पष्ट संकेत मिल रहे हैं कि हम इस समस्या के समाधान की दिशा में आगे बढ़ रहे हैं।
कंपनियां, खासकर बड़े आकार की, ऋण चुकाने की अपनी ताकत बढ़ा रही हैं। इसके लिए उन्होंने परिसंपत्ति की बिक्री एवं उधारी और लागत में कमी करने के साथ सस्ते कर्ज लेने का तरीका अपनाया है। वर्ष 2020-21 के लिए आरबीआई की सालाना रिपोर्ट में कहा गया है कि वित्त वर्ष 2020-21 की तीसरी तिमाही में छोटी और बड़ी आकार की कंपनियों की ऋण भुगतान करने की क्षमता बढ़ी है। रिपोर्ट के अनुसार अब कंपनियां उसी तरह कर्ज भुगतान कर पा रही हैं जैसे वे महामारी से पूर्व किया करती थीं। लागत में कमी इसकी एक अहम वजह रही है। आरबीआई ने कहा है कि वर्ष 2020-21 की पहली तीन तिमाहियों में राजस्व में 11.6 प्रतिशत की कमी आई है, जबकि व्यय 15.2 प्रतिशत तक कम हो गया है। इसका नतीजा यह हुआ है कि कंपनियों का परिचालन मुनाफा ऐसे समय में सालाना आधार पर 7 प्रतिशत बढ़ गया है जब महामारी की वजह से अर्थव्यवस्था सिकुड़ गई है।
इस समय भारतीय बैंकों का पूंजी पर्याप्तता अनुपात औसतन 15.9 प्रतिशत है, यद्यपि सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों में यह अनुपात थोड़ा कम यानी 13.5 प्रतिशत है। बैंकों को न्यूनतम अनुपात 10.875 प्रतिशत रखना पड़ता है जो अक्टूबर में बढ़कर 11.5 प्रतिशत हो जाएगा। बैंकों का औसत प्रावधान सुरक्षा अनुपात 75.5 प्रतिशत रहा है, जिसका मतलब है कि पहले आवंटित जिन ऋण की वसूली नहीं हो पा रही थी उनके लिए प्रावधान अच्छी से किए गए हैं। दिसंबर 2020 में बैंकों के कुल आवंटित ऋण में एनपीए की हिस्सेदारी 6.8 प्रतिशत थी, जो 2017-18 के 11.2 प्रतिशत से काफी कम है।
यह सच है कि कोविड महामारी की वजह से एनपीए फिर बढ़ेगा। ऋण भुगतान से अस्थायी छूट और इनके पुनगर्ठन से संबंधित आंकड़े दर्शाते हैं कि मुख्य समस्या खुदरा परिसंपत्तियों और छोटे उद्यमों के साथ है और बड़ी कंपनियां पूरी तरह ऋण भुगतान में मुस्तैद रही हैं। बैंकरों का मानना है कि एनपीए में इजाफे से निपटने में उन्हें परेशानी नहीं होगी। एनपीए में इजाफा बैंकों के लिए कोई बड़ी समस्या नहीं है लेकिन ऋण आवंटन की सुस्त रफ्तार उनके लिए चिंता का विषय है। इसकी एक वजह यह भी है कि निजी निवेश जोर नहीं पकड़ पा रहा है। एक कारण यह भी है कि बड़ी कंपनियां वित्त की जरूरतों का एक बड़ा हिस्सा अपने आंतरिक स्रोतों से पूरा कर रही हैं। सालाना रिपोर्ट में भी यह बात कही गई है।
ऋण आवंटन बढ़ाने के लिए बैंकों को लघु एवं मझोले उद्यमों (एसएमई) को अधिक उधार देना होगा। कंपनियों की तुलना में एसमई कोई ऋण देना थोड़ा अधिक जोखिम भरा है इसलिए ऐसा तभी हो पाएगा जब बैंकों के पास सुरक्षित पूंजी की कमी न हो। सरकार के हाथ तंग हैं और वह और वह अतिरिक्त रकम खर्च करने की स्थिति में नहीं दिख रही है। सरकार को लोगों को सीधी रकम देने के बजाय सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों में पूंजी डालकर इसका इस्तेमाल वृद्धि तेज करने में करना चाहिए। कुल मिलाकर, भारतीय अर्थव्यवस्था निकट अवधि में कोविड-19 महामारी की असर से उबरने के लिए पूरी तरह तैयार दिख रही है। बैंकिंग संकट का तेजी से समाधान खोजकर मध्यम अवधि में वृद्धि सुनिश्चित की जा सकती है। सरकार सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों को पूंजी देकर उन्हें ऋण आवंटन तेजी से बढ़ाने में मदद पहुंचा सकती है।