इलस्ट्रेशन- अजय मोहंती
लगभग 50 वर्ष पहले तक पश्चिमी जगत में पारंपरिक सोच यह थी कि उनके देशों में सन् 1700 से हुई आर्थिक प्रगति में मुख्य रूप से वैज्ञानिक अन्वेषण, तकनीकी नवाचार, उद्यमशीलता और वस्तु, पूंजी, श्रम के निर्बाध आदान-प्रदान की प्रमुख भूमिका रही है। हालांकि, पिछले 50 वर्षों के दौरान हुए नए तथ्यपरक अध्ययन से यह भी पता चला है कि पश्चिमी देशों की आर्थिक प्रगति में दूसरे कारणों का भी योगदान रहा है।
इनमें साम्राज्यवादी सोच और उपनिवेशवाद तो थे ही मगर इनके अलावा अमेरिका में स्थानीय लोगों की जमीन यूरोप से आए लोगों द्वारा हड़प लिए जाने और पश्चिम अफ्रीका के देशों से बड़ी संख्या में लोगों को दास एवं मजदूर बनाकर अमानवीय तरीके से अटलांटिक महासागर के उस पार भेजने जैसे कारक भी शामिल रहे हैं। अब इस सूची में अफीम की खेती और इसका प्रसंस्करण कर दूसरे देशों को निर्यात करने की नीति भी जोड़ी जा सकती है ।
अंग्रेजी हुकूमत में किसानों से जबरन अफीम उगाने के लिए कहा जाता था। किसानों की हालत दयनीय थी और उन पर दबाव डालकर खेती कराई जाती थी और जो पैदावार होती थी उसकी बिक्री और खरीद पर अंग्रेजों का मनमाना हुक्म चलता था। मुख्य रूप से 18वीं और 19वीं शताब्दियों में अंग्रेजों के शासन के दौरान भारत में बड़े पैमाने पर अफीम का उत्पादन होता था और इसकी बिक्री मुख्य रूप से चीन को की जाती थी।
इस पूरी कहानी को अमिताभ घोष ने अपनी किताब स्मोक ऐंड एक्सेस: ‘ए राइटर जर्नी थ्रू अफीम हिडन हिस्ट्री’ में शानदार तरीके से प्रस्तुत किया है। घोष ने अपनी पुस्तक में अफीम की खेती से जुड़े कई पहलुओं और इसके आर्थिक एवं सामाजिक प्रभावों का उल्लेख किया है।
यह पुस्तक 20 वर्षों के शोध पर आधारित है। जहां तक मेरे नजरिए की बात है तो इस पुस्तक में जिन बातों का उल्लेख किया गया है वे एक तरह से आंखें खोलने वाली हैं और यह भारत के आर्थिक एवं राजनीतिक इतिहास पर रोशनी डालती हैं। इस समाचार पत्र के अधिकांश पाठकों के पास इस पुस्तक को पढ़ने के लिए समय नहीं होगा या विभिन्न कारणों से वे शायद इसे नहीं पढ़ पाएं, इसलिए इसमें वर्णन किए गए प्रमुख बिंदुओं का उल्लेख तो किया ही जा सकता है।
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दुनिया के कई देशों में दवाइयों में अल्प मात्रा में अफीम का इस्तेमाल होता रहा है और संभवत इसकी शुरुआत सबसे पहले एनाटोलिया (वर्तमान तुर्की) में हुई थी और वहां से यह प्रयोग ईरान, मध्य एशिया और दक्षिण एशिया तक फैला। पहले शासक और आर्थिक रूप से संपन्न वर्ग के लोग अफीम का दूसरे रूपों में सेवन करते थे, मगर धूम्रपान के रूप में इसके सेवन की शुरुआत 18वीं शताब्दी में हुई, हालांकि तब भी यह कुछ वर्ग विशेष तक ही सीमित थी।
हालांकि, बाद में डच ईस्ट इंडिया कंपनी ने पूर्वी भारत से इसका आयात किया और ईस्ट इंडीज ( इंडोनेशिया और दक्षिण-पूर्व के कुछ अन्य देश) में लोगों के बीच बेचना शुरू कर दिया। इससे कंपनी को काफी मुनाफा भी हुआ। इसका एक हिस्सा चीन भी गया जहां पहले 1729 में इस पर प्रतिबंध लगा दिया गया था।
सबसे पहले पुर्तगाल के लोगों ने ही अफीम को उपनिवेशवाद से जोड़ा और पहला साम्राज्यवादी ‘नार्को स्टेट’ (नशीले पदार्थों के निर्यात पर निर्भर देश) बन गया। हालांकि, औपनिवेशिक ‘नार्को स्टेट’ की संकल्पना को अगर किसी ने मजबूती से लागू किया तो वह थी अंग्रेजी हुकूमत।
सन 1757 में प्लासी और 1764 में बक्सर के युद्ध में निर्णायक जीत हासिल करने के बाद ईस्ट इंडिया कंपनी ने तेजी से पूर्वांचल (बिहार, झारखंड, पूर्वी उत्तर प्रदेश) में पांव पसारना शुरू कर दिया और बाद में वहां किसानों को अफीम का उत्पादन करने के लिए विवश कर दिया।
सन 1772 में बंगाल के गवर्नर वारेन हेस्टिंग्स ने घोषणा कर दी कि पूर्वांचल में अफीम का उत्पादन कर इसकी बिक्री ईस्ट इंडिया कंपनी के अधिकृत एजेंट को ही की जा सकती है। हेस्टिंग्स के इस आदेश के बाद एक प्रभावी बाजारवादी मानसिकता की शुरुआत हो गई। सन 1799 में ईस्ट इंडिया कंपनी ने एक बड़ा अफीम विभाग स्थापित किया और इसे कई और असाधारण अधिकार दे दिए गए। इनमें अफीम के व्यापार का नियंत्रण, इसका मूल्य निर्धारण करने से जुड़े अधिकार थे।
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इसके बाद अंग्रेजी हुकूमत यह तय करने लगी कि कौनसे किसान अफीम का उत्पादन करेंगे, कहां करेंगे और कितना करेंगे और किस कीमत पर यह अफीम विभाग को बेचेंगे। किसानों को अफीम की खेती कराकर उन्हें प्रताड़ित किया जा रहा था और न ही उन्हें कोई लाभ दिया जा रहा था। भारत में अंग्रेजी हुकूमत ने सख्त निगरानी एवं क्रियान्वयन प्रणाली तैयार की जिससे अफीम का उत्पादन करने वाले किसानों की विपन्नता और बढ़ गई।
ईस्ट इंडिया कंपनी ने कोलकाता में प्रसंस्कृत अफीम की नीलामी कुछ अधिकृत खरीदारों को करनी शुरू कर दी जिससे उसको भारी मुनाफा हुआ।
यह शोषण आधारित प्रणाली एक शताब्दी से अधिक समय तक चली और इसका नतीजा यह हुआ कि पूर्वांचल पीछे रह गया और आर्थिक रूप से इसका दोहन होता रहा। 1857 में भारत के पहले स्वतंत्रता संग्राम यानी सिपाही विद्रोह तक पूर्वांचल से भारी संख्या में लोग ईस्ट इंडिया कंपनी में बतौर सैनिक भर्ती हो रहे थे जिसका फायदा भी क्षेत्र को हुआ था। मगर जब अंग्रेजों ने सिपाही विद्रोह को कुचल दिया तो पूर्वांचल से सैनिकों की भर्ती बंद हो गई और पंजाब से लोगों को लाने का सिलसिला शुरू हो गया। इस तरह, पूर्वांचल का आर्थिक एवं सामाजिक विकास भी अवरुद्ध होता गया।
18 वीं शताब्दी में भारत के मालवा क्षेत्र में भी बड़े पैमाने पर अफीम की खेती होती थी। मालवा क्षेत्र में वर्तमान मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र के कुछ हिस्से, गुजरात और राजस्थान आते थे। यहां अफीम उत्पादन का तरीका और इसका वितरण पूर्वी भारत से बहुत अलग था। छोटे किसान अपनी इच्छा से अफीम का उत्पादन करते थे और उनसे हिंदू, जैन, मुस्लिम और पारसी समुदायों के कारोबारी इसे खरीदा करते थे। ऐसा इसलिए संभव हो पाया क्योंकि ईस्ट इंडिया कंपनी का प्रभुत्व पश्चिमी भारत में मुख्य रूप से बॉम्बे तक सीमित था।
प्लासी की लड़ाई के लगभग 50 वर्षों बाद पश्चिम भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी का विस्तार ग्वालियर, बडौदा, इंदौर और नागपुर के मराठा शासकों ने रोक दिया। यद्यपि, ईस्ट इंडिया कंपनी को 1803 में हुए युद्ध में हार का सामना करना पड़ा था मगर मराठा शासकों की तरफ से लगातार प्रतिरोध मिलने से इस क्षेत्र में ईस्ट इंडिया कंपनी का दबदबा लगातार नियंत्रण में रहा।
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ईस्ट इंडिया कंपनी ने मालवा क्षेत्र में अफीम के उत्पादन पर अपना नियंत्रण स्थपित करने की कोशिश की मगर वहां के कारोबारी समुदायों से किसी तरह का सहयोग नहीं मिलने से उसका सपना पूरा नहीं हो पाया। 1830 तक ईस्ट इंडिया कंपनी ने अपनी नीति बदल ली और मालवा में जिस रूप में अफीम का उत्पादन और व्यापार हुआ करता था उसे स्वीकार कर लिया।
नतीजा यह हुआ कि बॉम्बे के जरिए मालवा क्षेत्र की अफीम का निर्यात बढ़ता गया और जल्द ही कलकत्ता पीछे छूट गया। 19वीं शताब्दी के मध्य में अफीम युद्ध में चीन के प्रयासों को दबाने के बाद अंग्रेज नियंत्रित भारत से इसका निर्यात 1820 में सालाना 4,000 पेटी से बढ़कर 1870 के दशक में 90,000 पेटी तक पहुंच गया ।
पूर्वांचल और मालवा क्षेत्र में अफीम के उत्पादन के साथ जुड़ी एक प्रमुख बात यह थी कि मालवा के किसान और लाखों कारोबारी इससे लाभान्वित हुए मगर पूर्वांचल के किसान पिछड़ते गए। घोष कहते हैं, ‘पश्चिमी भारत में निजी उद्यम इसलिए सफल रहे क्योंकि मराठा शासक अंग्रेजी हुकूमत से लंबे समय तक लड़ने और उन्हें पीछे धकेलना में सफल रहे। मगर पूर्वी भारत में ऐसी कोई शक्ति कभी एकजुट नहीं हुई जो अंग्रेजों को चुनौती दे सके।’
पश्चिमी भारत में उद्यम फलने -फूलने का केवल एकमात्र कारण यह नहीं था कि यहां के कारोबारियों को वित्तीय ज्ञान की अधिक समझ थी, बल्कि इसका कारण मराठा शासकों का प्रभावशाली राजनीतिक एवं सैन्य नेतृत्व भी था।
(लेखक इक्रियर में मानद प्राध्यापक हैं और भारत सरकार के मुख्य आर्थिक सलाहकार रह चुके हैं।)