भारतीय विनिर्माण गतिविधियों के कुछ सफल क्षेत्रों में से एक ऑटोमोबाइल भी है। भारी उद्योग मंत्रालय के मुताबिक भारत अब दुनिया भर में दोपहिया एवं तिपहिया वाहनों का सबसे बड़ा विनिर्माता और यात्री कारों का चौथा बड़ा विनिर्माता है। वर्ष 2018-19 में ऑटो उद्योग का देश के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में 7.1 फीसदी का अंशदान था और औद्योगिक जीडीपी के मामले में यह अनुपात 27 फीसदी था। विनिर्माण जीडीपी के संदर्भ में ऑटो उद्योग का हिस्सा 49 फीसदी आंका गया था और इसने प्रत्यक्ष एवं परोक्ष रूप से 3.7 करोड़ लोगों को रोजगार दिया था। इस क्षेत्र में तकनीकी बदलावों की वजह से नाटकीय संरचनात्मक परिवर्तन भी होने वाले हैं। अगले डेढ़ दशक में इलेक्ट्रिक वाहन (ईवी) तकनीक इतनी विकसित हो चुकी होगी कि कुल यात्री एवं वाणिज्यिक वाहनों में आधे से भी अधिक हिस्सा ईवी वाहनों का हो जाएगा।
इसके निहितार्थ न केवल मौजूदा ऑटो कंपनियों एवं आईसी तकनीक आधारित आर्थिक परिदृश्य के लिए हैं बल्कि विनिर्माण संबंधी सरकारी योजनाओं पर भी इसका असर होगा। ऐसी स्थिति में सरकार के लिए भी यह महत्त्वपूर्ण है कि वह फौरी तौर पर अपनी नीतियों को दुरुस्त करने के साथ ही मध्यम एवं दीर्घावधि के हिसाब से भी उन्हें रूप दे।
भारत में हाइब्रिड एवं इलेक्ट्रिक वाहनों के त्वरित अंगीकरण एवं विनिर्माण के लिए घोषित फेम-1 एवं फेम-2 योजनाओं में इलेक्ट्रिक वाहनों के उत्पादन में तेजी लाने के लिए कई प्रोत्साहन दिए गए हैं। सरकार को यह सुनिश्चित करने की भी जरूरत है कि प्रक्रियागत तेजी की कोशिशों से आईसी तकनीक आधारित उत्पादन संयंत्रों में मोटा निवेश करने वाली वैश्विक कंपनियां भय न खाने लगें। काफी संभावना है कि इनमें से कई विनिर्माता इलेक्ट्रिक वाहनों की दुनिया में भी बने रहेंगे और वहां पर भी अपना परचम लहराएंगे। नई तकनीक में भी महारत हासिल करने के लिए वे शोध एवं विकास पर काफी खर्च कर रहे हैं। सबसे जरूरी बात, कम-से-कम एक दशक तक तो आईसी एवं ईवी दोनों ही तरह के वाहनों के साथ-साथ बने रहने की संभावना है।
पिछले कुछ समय से सरकार की नीतियां मौजूदा कंपनियों को अधिक निवेश के लिए प्रोत्साहित करने के बजाय उन्हें रोकने के लिए अधिक चर्चा में रही हैं। कई वैश्विक ऑटो कंपनियां पहले ही अपनी रुचि गंवा चुकी हैं। एक दशक तक भारत में परिचालन करने के बाद मोटरसाइकिल निर्माता हार्ली-डेविडसन अब भारत में अपना संयंत्र बंद करने जा रही है और जल्द ही भारत से चली जाएगी। इसी तरह टोयोटा मोटर्स के एक बड़े अधिकारी ने हाल ही में कहा कि अब उनकी कंपनी भारत में कोई नया निवेश नहीं करना चाहती है। पिछले साल ऐसी खबरें आई थीं कि फोर्ड मोटर्स भी महिंद्रा ऐंड महिंद्रा के साथ साझा उद्यम को अपनी अधिकांश परिसंपत्तियां हस्तांतरित कर भारत में अपनी मौजूदगी घटा रही है। जनरल मोटर्स ने 21 साल तक भारत में कारोबार करने के बाद 2017 में यहां से कामकाज समेट ही लिया था।
हालांकि चीनी वाहन निर्माता अब भी भारतीय बाजार में निवेश करने को इच्छुक हैं लेकिन सरकार इसे लेकर बहुत उत्साहित नहीं नजर आ रही है।
यह कहा जा सकता है कि भारत से निकल चुकी या निकलने की तैयारी कर रहीं ऑटो कंपनियों का कारोबारी मॉडल ही ठीक नहीं था। लेकिन ऑटो उद्योग के प्रति भारत सरकार के रवैया को लेकर शोर बढ़ता ही जा रहा है। वाहनों पर लगने वाले कर एवं नीतियों के साथ लगातार छेड़छाड़ समस्याओं के केंद्र में है। करों के मामले में सरकार अपनी उस समाजवादी मानसिकता से नहीं उबर पाई है कि गाडिय़ां एक विलासिता की वस्तु हैं। कारों पर सबसे ज्यादा 28 फीसदी की दर से जीएसटी लगता है। इसी तरह कारों पर उनके आकार एवं इंजन क्षमता के हिसाब से उपकर भी वसूला जाता है।
ऑटो कंपनियों के मुताबिक बड़ी समस्या यह है कि सरकारी वाहन नीतियों में जल्दी-जल्दी बदलाव किए जाने से दीर्घकालिक योजना बना पाना मुश्किल हो जाता है। चाहे चरणबद्ध तरीके से आईसी इंजन वाले वाहनों को हटाने की समयसीमा या वाहन कलपुर्जों पर आयात शुल्क एवं पाबंदी का मामला हो।
सरकार का यह सोचना सही है कि भविष्य इलेक्ट्रिक वाहनों का है, वहीं उसे यह ध्यान में रखने की जरूरत है कि यह तकनीक अभी विकास के चरण में है और वैश्विक ऑटो कंपनियों को आईसी तकनीक में किए गए मौजूदा निवेश एवं ईवी पारिस्थितिकी के निर्माण में भावी निवेश के साथ तालमेल बिठाने की जरूरत होगी। अगर भारत में पहले से मौजूद वैश्विक ऑटो कंपनियां सरकारी नीतियों के प्रति विश्वास खोने लगीं तो इसकी संभावना कम है कि वे यहां पर इलेक्ट्रिक वाहनों के विनिर्माण में निवेश करेंगी।
दूसरा मुद्दा यह है कि इलेक्ट्रिक वाहन भारत के समग्र विनिर्माण लक्ष्यों के लिए एक चुनौती भी पेश करते हैं। ईवी ऑटो कलपुर्जों के निर्माण में कम लेकिन कहीं बड़ी कंपनियां शामिल होंगी और इलेक्ट्रिक वाहनों में अपेक्षाकृत कम कलपुर्जों की जरूरत को देखते हुए इन इकाइयों में पहले से कम लोगों को रोजगार भी मिल पाएगा। हमें यह भी ध्यान में रखना होगा कि इलेक्ट्रिक वाहनों के कलपुर्जों के निर्माण के लिए बड़े निवेश की जरूरत होगी।
भारतीय ऑटोमोबाइल उपकरण विनिर्माता संघ का कहना है कि वित्त वर्ष 2018-19 में ऑटो कलपुर्जों का भारत के जीडीपी में 2.3 फीसदी एवं निर्यात में 4 फीसदी अंशदान था और करीब 50 लाख लोगों को इसमें रोजगार मिला हुआ था। अब इलेक्ट्रिक वाहनों की तरफ रुझान होने पर कुछ छोटे विनिर्माताओं के कारोबार से बाहर ही हो जाने की आशंका है।
सरकारी प्रोत्साहन के बावजूद इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि भारत आने वाले समय में ईवी उपकरणों के विनिर्माण का गढ़ ही बन जाएगा। कई तरह के ईवी कलपुर्जों में भारत नुकसान की स्थिति में है। इनमें माइक्रो-प्रोसेसर, कंट्रोलर एवं बैटरी भी शामिल हैं।
सरकार ने इलेक्ट्रिक वाहनों के सबसे बड़े हिस्से बैटरी के विनिर्माताओं को कई रियायतें भी दी हैं। फिर भी लिथियम-आयन बैटरी का कोई बेहतर विकल्प नहीं मिलने तक भारत कमजोर स्थिति में ही रहेगा। इसकी वजह यह है कि भारत में लिथियम के बहुत कम भंडार ही हैं। इसके बड़े भंडार तो चिली, बोलिविया, अर्जेन्टीना, चीन, ऑस्ट्रेलिया एवं कॉन्गो में पाए जाते हैं।
यह स्थिति सरकार के लिए अहम बना देती है कि अन्य क्षेत्रों में निवेश आकर्षित करने एवं योजना बनाई जाए। लेकिन उसके लिए उसे सही संकेत देने भी जरूरी हैं। भारतीय ऑटो बाजार में दशकों से मौजूद एवं करोड़ों डॉलर निवेश कर चुके वैश्विक निवेशकों को डरा देना वाहन विनिर्माण या किसी भी क्षेत्र में भावी निवेश आकर्षित करने का कोई अच्छा तरीका नहीं है।
(लेखक बिज़नेस टुडे एवं बिज़नेस वर्ल्ड के पूर्व संपादक और संपादकीय सलाहकार फर्म प्रोजैकव्यू के संस्थापक हैं)