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दिल्ली से मुंबई की ओर

Published by
बीएस संवाददाता
Last Updated- December 05, 2022 | 9:18 PM IST

एक वक्त था जब आम बजट पर उद्योगपतियों की निगाहें टिकी होती थीं। उस वक्त उद्योगपति बजट को सरकारी नीतियों का सबसे अहम दस्तावेज मानते थे।


उनके लिए दूसरे पायदान पर उद्योग नीति हुआ करती थी। पर उद्योगपतियों के लिए धीरे-धीरे उद्योग नीति की अहमियत कम होने लगी। हालांकि उद्योग मंत्री अब भी इसके जरिये अपना प्रभाव दिखाने की कोशिश करते हैं, जैसा कि रेल मंत्रियों द्वारा रेल बजट पेश किए जाने के वक्त किया जाता है।


पर दिल्ली में होने वाले इन तीनों ही समारोहों के मुकाबले अब मुंबई से घोषित होने वाली रिजर्व बैंक की मौद्रिक नीति की तिमाही समीक्षा का ऐलान ज्यादा अहमियत भरा साबित होने लगा है। यह संक्रमण (बदलाव की प्रक्रिया) आर्थिक नीति प्रबंधन में आ रही तब्दीलियों की ओर इशारा कर रहा है।


संक्रमण का यह दौर अपनी परिणति तक तभी पहुंच पाएगा, जब उद्योग नीति और रेलवे बजट को लोक आयोजनों की तरह पेश किए जाने से परहेज किया जाए। साथ ही, यदि दो और चीजें हों, तो ऐसा संभव हो पाएगा। पहली चीज यह कि विज्ञापन देने वाले बजट कवरेज में बहुत ज्यादा दिलचस्पी न दिखाएं और दूसरी यह कि लोकसभा अध्यक्ष वित्त मंत्री के बजट भाषण की अवधि को अधिकतम आधे घंटे तक के लिए सीमित कर दें।


उद्योग नीति की अहमियत उस वक्त थी जब आयात के लिए व्यापक लाइसेंसिंग का चलन था, आयात-निर्यात शुल्क की बंदिशें ज्यादा थीं। इस तरह की व्यवस्थाएं अब कमोबेश खत्म हो गई हैं और आज आयातकों और निर्यातकों पर इनका काफी कम असर पड़ता है। आयात-निर्यात से जुड़े उद्योगों के लिए मुद्राओं की विनिमय दर में विचलन ज्यादा मायने रखती है, जिसका नियमन रिजर्व बैंक द्वारा किया जाता है।


इसी तरह, रेल बजट भी उतना ही महत्वपूर्ण है, जितना कि रिलायंस इंडस्ट्रीज लिमिटेड (आरआईएल) के नतीजों का आना और कंपनी की निवेश योजनाओं का खुलासा होना। हालांकि रेल किरायों को लेकर कुछ ज्यादा ही फुसफुसाहट होती है, जबकि बस किरायों में परिवर्तन पर किसी का ध्यान भी नहीं जाता।


हालांकि आम बजट आज भी सबसे ज्यादा गौर फरमाया जाने वाला आर्थिक दस्तावेज है, पर कई मामलों में अब यह अपनी पुरानी धार खो चुका है, क्योंकि इसमें काफी चीजें व्यवस्थित हो चुकी हैं। मिसाल के तौर पर, टैक्स नीति अब दूसरे देशों की तर्ज पर युक्तिसंगत बना दी गई है, जिसके तहत मध्यम दर्जे के टैक्स रेट, कम शुल्क व उत्पाद शुल्क में एकरूपता जैसे कदम उठाए गए हैं।


हर साल इनमें थोड़ी बहुत तब्दीलियां की जाती हैं। बजट का जोर व्यापक समानता की अवधारणा पर होता है। इसमें किए जाने वाले बड़े ऐलान किसी न किसी रूप में सामाजिक सुरक्षा की भावना पर केंद्रित होते हैं, जो कि ज्यादातर विकसित देशों की तर्ज पर है।


एक ओर जहां नई दिल्ली से ऐलान किए जाने वाले इन पहलुओं की अहमितयत कम हो रही है, वहीं मुंबई से किया जाने वाला मौद्रिक नीति का ऐलान फोकस में आ रहा है। पहले मौद्रिक नीति की साल दो दफा यानी छमाही समीक्षा की जाती थी, जो अब तिमाही (साल में चार बार) हो गई है।


आने वाले दिनों में इसकी बारंबारता बढ़ाई भी जा सकती है।बिजनेस मीडिया में पिछले कुछ हफ्तों से बजट के प्रावधानों या फिर किसानों को दी गई कर्जमाफी पर बहस नहीं हो रही है, बल्कि विमर्श का विषय यह है कि क्या डॉलर और दूसरी मुद्राओं के मुकाबले रुपये को और मजबूत होने का मौका दिया जाना चाहिए या फिर आरबीआई को इस मामले में दखल देना चाहिए?


इसी तरह, बहस का विषय यह है कि ब्याज दरों में कटौती की जानी चाहिए, उसमें बढ़ोतरी की जानी चाहिए या फिर उसे जस का तस छोड़ दिया जाना चाहिए। इन सबसे से भी ज्यादा बहस वित्तीय क्षेत्र में सुधारों पर गठित विशेषज्ञ समिति की रिपोर्ट के बारे में हो रही है। आज से 20 साल पहले ऐसी चीजें कोई सोच भी नहीं सकता था।


यह भी उल्लेखनीय है कि अमेरिका और ब्रिटेन तक में वित्तीय मुद्दे (टैक्स पॉलिसी, सामाजिक सुरक्षा और स्वास्थ्य सेवाएं आदि) राजनीतिक बहस के केंद्र में जरूर रहते हैं, पर इन देशों और दुनिया भर में वैसे मुद्दे जिन पर कारोबारों की नजर टिकी रहती हैं, वे हैं अमेरिकी फेडरल रिजर्व और यूरोपीय सेंट्रल बैंक के बयान।


वजहें साफ हैं। यदि हर किसी का मुख्य सरोकार महंगाई दर, विकास, बाहरी संतुलन से है, तो इन तीनों पर केंद्रीय बैंक का प्रभाव होता है। कई वर्षों तक राजकोषीय नीति के बारे में गंभीर चर्चाएं हुआ करती थीं, तो अब केंद्रीय बैंक की भूमिका के बारे में विमर्श हो रहे हैं। यह बहस न सिर्फ भारत, बल्कि दुनिया भर में हो रही है। 5 या 10 साल इंतजार कीजिए, तब शायद मौद्रिक और मुद्रा नीति पर दुनिया भर में शायद वैसी ही आम सहमति कायम हो जाएगी, जैसी वित्तीय नीति के मामले में हो चुकी है।

First Published : April 12, 2008 | 12:08 AM IST