यह कहना विशुद्ध हताशा का परिचायक है कि दुनिया ने मिस्र के तटवर्ती शहर शर्म अल-शेख में संपन्न क्लाइमेट चेंज कॉन्फ्रेंस ऑफ पार्टीज (कॉप27) में ‘कुछ’ हासिल हुआ है। तथ्य तो यह है कि कॉप27 को उत्सर्जन कम करने संबंधी तीन दशक लंबी वार्ताओं के इतिहास में सबसे खराब घटना के रूप में दर्ज किया जाना चाहिए। इन उत्सर्जनों ने बड़े पैमाने पर क्षति पहुंचाई है। यह बैठक एक बड़े मजमे की तरह थी, काफी हद तक रेगिस्तान में मरीचिका की भांति। इससे अत्यधिक सक्रियता की भावना बनी जबकि वास्तव में वहां हुआ क्या? इस खतरनाक खतरे से निपटने की दिशा में अब तक जो थोड़ी बहुत प्रगति हुई थी वह भी गंवा दी गई।
मैं भी इस सम्मेलन में शामिल करीब 45,000 लोगों में से एक थी। जिस बात ने मुझे चकित किया वह यह कि इसे कुछ इस तरह तैयार किया गया था कि यह वार्ता से जुड़ा तमाम दबाव कम हो जाए। इसके आयोजकों यानी संयुक्त राष्ट्र के जलवायु परिवर्तन सचिवालय और हमारे मेजबान यानी मिस्र की सरकार ने विभिन्न देशों और एजेंसियों के सैकड़ों पविलियन तैयार किए थे। इनमें से प्रत्येक में एक छोटा सा सम्मेलन कक्षा था जहां रोज पांच से छह आयोजन होते थे। इनमें से प्रत्येक आयोजन में 30-35 लोग हिस्सेदारी करते थे। पूरा दिन इतना कुछ होता रहता था कि कॉप27 का मूल मुद्दा यानी उत्सर्जन में कमी और जलवायु परिवर्तन को नियंत्रित करने संबंधी बातचीत हाशिये पर चली गई।
इसलिए जब मैं कहती हूं कि कॉप27 का अंतिम निर्णय दरअसल अनिर्णय जैसा ही था तो चकित होने की आवश्यकता नहीं है। तमाम महत्त्वपूर्ण बातों को 20 नवंबर की सुबह तक कोष्ठक में रखा गया (जब विभिन्न पक्ष असहमत होते हैं तो संयुक्त राष्ट्र यही भाषा इस्तेमाल करता है) जब तक कि उनके बीच सहमति नहीं बन गई। यह सहमति बहुत हल्की भाषा में थी। हममें साहस नहीं है कि हम ऐसा कह सकें। लॉस ऐंड डैमेज फंड (वैश्विक तापवृद्धि के कारण हुए नुकसान के लिए कमजोर देशों को मुआवजा देने के वास्ते स्थापित) के मुद्दे को कॉप27 की बड़ी कामयाबी माना जा रहा है। शर्म अल-शेख क्रियान्वयन योजना ‘विकासशील देशों को होने वाले लॉस और डैमेज से जुड़ी वित्तीय लागत को लेकर गहरी चिंता प्रकट करती है।’
यह जलवायु परिवर्तन के विपरीत प्रभावों से संबद्ध है। इसके आगे योजना में कहा गया है कि यह लॉस ऐंड डैमेज को हल करने के लिए संस्थागत व्यवस्था कर रही है और यह भी कि इससे उन विकासशील देशों को तकनीकी सहायता को प्रेरणा मिलेगी जो जलवायु परिवर्तन को लेकर सबसे अधिक जोखिम में हैं। इकलौता निर्णय यह है कि 2023 तक सचिवालय के लिए मेजबान देश तलाश कर लिया जाएगा। इस तरह देखें तो फंड बनाने को लेकर कोई सहमति नहीं बनी, इस बात पर भी सहमति नहीं बनी कि इसके लिए भुगतान कौन करेगा लेकिन एक नई श्रेणी अवश्य तैयार हुई कि यह सब अब उन देशों की ओर लक्षित होगा जो सबसे अधिक जोखिम में हैं। वे कौन से देश हैं? राजनीति यहीं शुरू होती है।
क्या भारत जैसे बड़े विकासशील देशों को नुकसान के लिए अन्य विकासशील देशों को भुगतान करना चाहिए? कॉप27 में यह सवाल बार-बार उठा और जाहिर है इसका विरोध भी हुआ। उसके बाद क्या भारत जैसे देश जोखिम वाले देशों की श्रेणी में आते हैं क्योंकि यहां पहाड़ और तट रेखा दोनों हैं? वार्ता के अगले दौर में इसका विरोध होगा और बात किसी नतीजे पर नहीं पहुंचेगी जबकि इस बीच प्राकृतिक आपदाएं बढ़ती जा रही हैं और आम जन तथा अर्थव्यवस्थाओं को होने वाला नुकसान भी बढ़ रहा है।
यही कारण है कि दुनिया जलवायु को लेकर एक नियम आधारित व्यवस्था की ओर लौटने की आवश्यकता है। हमें पता है कि मौसमी आपदाओं की बढ़ती संख्या और आवृत्ति का संबंध जलवायु परिवर्तन से है और यह जलवायु परिवर्तन की घटना वातावरण में ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन से संबंधित है। ऐसे में विधि का सीधा सा स्थापित सिद्धांत यह कहता है कि जो देश प्रदूषण के लिए जिम्मेदार है उसे भुगतान करना चाहिए। यही कारण है कि नुकसान और क्षति से संबंधित चर्चाएं देनदारी और क्षतिपूर्ति पर आधारित हैं। इस नियम आधारित परिदृश्य में यह बात स्थापित होगी कि भारत जैसे देश को भी फंड में योगदान करना होगा लेकिन केवल तभी जब वह ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन की एक तयशुदा सीमा पार कर जाएगा। यह नियम आधारित व्यवस्था बड़े प्रदूषकों के लिए उपयुक्त नहीं है इसलिए इसे 2015 में पेरिस समझौते से अलग कर दिया गया था। अब प्रदूषकों के बीच भेद करने की कोई व्यवस्था है इसलिए चीन जैसे देशों को सहज ही अवसर मिल गया है कि वे इसका फायदा उठाएं। चीन का प्रतिव्यक्ति उत्सर्जन 2030 में अमेरिका के बराबर हो जाएगा।
उसे प्रदूषकों की श्रेणी में होना चाहिए था। परंतु अभी भी वह 77 विकासशील देशों के पीछे छिपा हुआ है। साफ कहें तो इन 77 विकासशील देशों को भी ताकतवर चीन की शरण लेने में राहत मिलती है। यह खेल हमारी कीमत पर जारी है। परंतु मैंने कॉप27 को प्रतिगामी क्यों कहा? ऐसा इसलिए कि पहली बार समझौते में सफेद और हरे जीवाश्म ईंधन में फर्क करने का निर्णय किया गया। अंतिम समय में स्वच्छ ऊर्जा वाले मिश्रण में में कम उत्सर्जन वाली ऊर्जा को शामिल कर दिया गया। यानी यह बताने की कोशिश की प्राकृतिक गैस अपेक्षाकृत स्वच्छ है क्योंकि यह कोयले की तुलना में आधा कार्बन डाईऑक्साइड उत्सर्जित करती है। यूरोपीय संघ ने प्राकृतिक गैस को स्वच्छ बताते हुए यही कहा था।
हमें पता है कि दुनिया के उस हिस्से में जहां अकार्बनीकरण की अधिक आवश्यकता है वह पूरे विश्व में और अधिक प्राकृतिक गैस के लिए खुदाई कर रहा है। इन देशों में सम्मेलन का मेजबान देश मिस्र भी शामिल है। यह सब सही नहीं है। दुनिया तेजी से औद्योगिक युग के पहले के स्तर से 1.5 डिग्री सेल्सियस अधिक तापवृद्धि की ओर बढ़ रहा है। 1.1 डिग्री सेल्सियस वृद्धि के साथ ही हमें इतने बड़े पैमाने पर बरबादी और इंसानी दिक्कतें देखने को मिल रही हैं। हम इसका हिस्सा नहीं बन सकते। हम कम से कम ऊंची आवाज में यह तो कह सकते हैं कि हम बुरी तरह नाकाम हुए हैं।