अपने मोबाइल फोन से स्क्रैबलगो हटाने के लिए मुझे काफी हिम्मत जुटानी पड़ी। पिछले आठ महीनों से मैं इसकी आदी हो गई थी। मैंने इसे हटाया ही था कि वल्र्डल आ गया। ऑनलाइन गेम की शौकीन होने की वजह से मुझे इससे दूर रहने के लिए काफी मशक्कत करनी पड़ रही है। मैं अगाथा क्रिस्टीज के ‘प्वॉइरो’ का 13वां सीजन, मिस मार्पल का छठा सीजन और रॉकेट बॉयज का एक सीजन देख चुकी हूं। इनके बाद ‘गहराइयां’, ‘नो टाइम टू डाई’ और ‘द मार्वेलस मिस मैजल’ का चौथा सीजन भी देख चुकी हूं। कुछ दिनों पहले ही मैंने ‘बधाई दो’ और नेटफ्लिक्स पर ‘द फेम गेम’ और सोनी लिव पर ‘अ वैरी इंगलिश स्कैंडल’ भी देखा। तीन मलयालम फिल्में भी मेरा इंतजार कर रही हैं। इन सामग्री के अंबार के बीच ‘द इकनॉमिस्ट’ पत्रिका भी जमा हो गई है। कुछ किताबें भी मैंने पढऩे के लिए खरीदी हैं। करीब आधा दर्जन पॉडकास्ट भी सुनना बाकी है।
टीवी शो, किताबें, पत्रिकाएं, फिल्म या संगीत को लेकर लोगों की पसंद अलग-अलग हो सकती है मगर देश के लाखों लोगों का अनुभव कमोबेश एक जैसा हो गया है। हमारे पास देखने के लिए अथाह सामग्री उपलब्ध है। जो लोग दूरदर्शन देखकर और एक समाचार पत्र पढ़कर बड़े हुए हैं उनके लिए उदारीकरण के बाद आई सामग्री एवं इनके नए-नए स्रोतों की भरमार आश्चर्यजनक है। भारत में इस समय 900 से अधिक चैनल, हजारों समाचारपत्र, 860 से अधिक रेडियो चैनल हैं और हरेक साल लगभग 1,600 से अधिक फिल्में बनती हैं।
जब 2018 में स्ट्रीमिंग सेवा की शुरुआत हुई तो सामग्री की और बाढ़ आ गई। इस समय देश में 60 से अधिक वीडियो ऐप, 15 से अधिक म्यूजिक स्ट्रीमिंग सेवाएं और दर्जनों शॉर्ट वीडियो ऐप्लिकेशन हैं। इनकी मदद से टीवी कार्यक्रम, वेब सीरीज, शॉर्ट वीडियो और समाचार आदि कभी भी देखे या सुने जा सकते हैं। एक दौर वह भी था जब हम यदा-कदा ही बाहर भोजन करने जाते हैं। अगर कभी बाहर जाते भी थे तो घर से थोड़ी दूर किसी छोटे रेस्तरां में जाते थे। महंगे खाने तो यदा-कदा ही खाते थे और कुछ पांच सितारा होटल तो हमारी पहुंच से दूर थे। अब समय बदल गया है और व्यंजनों की कोई कमी नहीं है। दर्जनों देशों के व्यंजन उपलब्ध हैं। जरा इस बात की कल्पना करें कि आप रोजाना अपनी पसंद का व्यंजन अपनी इच्छानुसार खा रहे हैं। पिछले चार वर्षों से भारत के मीडिया जगत में कुछ इसी तरह हो रहा है। शुरू में नई-नई सामग्री देखना काफी भाता था और पूरे उत्साह से इन्हें देखा जाता था। आप रोज नई-नई वेब सीरीज,फिल्मों आदि बड़े प्यार से देखते हैं। देखने के बाद अपने दोस्तों और परिवारों के बीच इसकी चर्चा करते हैं। इसके बाद एक ऐसी स्थिति आती है जब आप देखते-देखते ऊब जाते हैं। विभिन्न प्रकार की सामग्री को लगातार देखते रहने की लत के कई प्रभाव सामने आते हैं।
इनमें एक स्पष्ट प्रभाव यह है कि एक उपभोक्ता के रूप में हमारी पसंद और उम्मीदें बदल रही हैं। दूसरा असर यह है कि मीडिया पर खर्च होने वाला औसत समय बढ़ गया है। भारत में ऑनलाइन सामग्री (समाचार, मनोरंजन आदि) देखने पर खर्च होने वाला औसत समय रोजाना 1.6 घंटे से बढ़कर 2.2 घंटे हो गया है। अगर इनमें टीवी, मीडिया के दूसरे साधन भी जोड़ दें तो यह औसत रोजाना बढ़कर 7-8 घंटे हो जाता है। तीसरा असर यह हुआ है कि सामग्री की सराहना करने की हमारी क्षमता में कमी आई है। अगर मीडिया का पूरा अर्थशास्त्र पूर्व में किसी सामग्री को बार-बार देखने और उनकी तारीफ करने पर आधारित था अब ऐसी बात नहीं रह गई है। चौथा असर यह हुआ है कि सामग्री की बाढ़ आने से मीडिया कारोबार में संकट गहराता जा रहा है। सामग्री की गुणवत्ता से खर्च 2-4 गुना बढ़ गया है। हालांकि स्ट्रीमिंग परंपरागत टीवी कार्यक्रम की तरह राजस्व के लिहाज से फायदेमंद नहीं रह गए हैं। वीडियो इसका एक उदाहरण है।
अमेरिका में टीवी कार्यक्रमों के लिए प्रत्येक महीने उपभोक्ता औसतन 100 डॉलर खर्च करते हैं। वहां नेटफ्लिक्स हरेक महीने 10-20 डॉलर में बेहतर सामग्री देती है। मगर प्रकाशन या संगीत की तरह ही डिजिटल माध्यम से दी जा रही सामग्री कमाई के लिहाज से बहुत फायदेमंद नहीं रह गए हैं। कुछ समय पहले तक प्रतिस्पद्र्धा नहीं रहने से नेटफ्लिक्स के लिए चीजें आसान थीं मगर डिज्नी, प्राइम वीडियो, ऐपल टीवी आदि के आगमन के बाद अब बात पहले जैसी नहीं रह गई है।
भारत की बात करें तो मीडिया पार्टनर्स एशिया डेटा के अनुसार 2021 में केवल वीडियो ओटीटी सामग्री पर 1.2 अरब डॉलर निवेश हुए थे। इस पूरे कारोबार ने विज्ञापन और राजस्व से 1.9 अरब डॉलर कमाया। मुनाफा कमाने की राह अब मुकिश्ल होती जा रही है। कई मीडिया कंपनियां अब इस चुनौती से निपटने के कदम उठा रही हैं और एक ही बार में पूरा सीजन दिखाने के बजाय कुछ कड़ी दिखाने पर विचार कर रही हैं। दूसरी कंपनियां रियलिटी, स्पोट्र्स और गेमिंग या कई अन्य चीजों की एक साथ पेशकश करने की दिशा में कदम बढ़ा रही हैं। इस क्षेत्र में सुदृढ़ीकरण की संभावना से भी इनकार नहीं किया जा सकता है। इस कारोबार में प्रतिस्पद्र्धा बढऩे से कुछ कंपनियां बंद हो सकती हैं या उन्हें खरीदा जा सकता है। नब्बे के दशक और नई सहस्राब्दी के शुरुआती वर्षों में प्रसारण टेलीविजन (परंपरागत टेलीविजन) की तूती बोलती थी और अब पांच प्रसारकों ने 70 प्रतिशत दर्शकों को अपने साथ जोड़ लिया है। ऑनलाइन माध्यम में भी वीडियो, संगीत और पब्लिशिंग में भी यह होना तय है। इन बदलावों से हम जैसे उपभोक्ताओं की क्या स्थिति होगी? सामग्री की भीड़ में हमारा दम घुटेगा या अंत में पर्दे के बजाय अपने जीवन पर ध्यान केंद्रित करेंगे?
