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भारत में उत्पाद मानकों की जटिलता: बीआईएस मॉडल में बदलाव की जरूरत

भारत का नियामकीय ढांचा बीआईएस पर केंद्रित है जो मानक तय करने, प्रमाणित करने और उसे लागू करने वाली संस्था है

Published by
राजीव खेर   
अनिल जौहरी   
विमलेंदु चौहान   
Last Updated- September 22, 2025 | 11:08 PM IST

पिछले दशक में देश में भारतीय मानक ब्यूरो (बीआईएस) अधिनियम के तहत गुणवत्ता नियंत्रण आदेशों (क्यूसीओ) के माध्यम से उत्पाद मानकों को लागू करने का तरीका तेजी से बढ़ा है और अब यह 800 से अधिक उत्पाद श्रेणियां इसके दायरे में आती हैं।

अनिवार्य विनियमन में यह वृद्धि, उपभोक्ता संरक्षण में पहले से चली आ रही खामियों की पहचान और घटिया आयात से घरेलू उत्पादकों की सुरक्षा की बढ़ती इच्छा को दर्शाती है। हालांकि, सार्वजनिक स्वास्थ्य को संरक्षित करने और इसकी गुणवत्ता को बढ़ावा देने के इरादे के पीछे एक जटिल लेकिन समस्याग्रस्त वास्तविकता है। भारत का नियामकीय ढांचा बीआईएस पर केंद्रित है जो मानक तय करने, प्रमाणित करने और उसे लागू करने वाली संस्था है और इससे उद्योग की प्रतिस्पर्धा और उपभोक्ताओं के हितों दोनों को नुकसान पहुंचने का खतरा है।

वर्ष 2016 में बीआईएस अधिनियम में एक संशोधन ने अनिवार्य मानकों का अनुपालन सुनिश्चित करने के लिए सरकार के अधिकार को व्यापक बनाया। यह बदलाव मुख्य रूप से अंतरराष्ट्रीय व्यापार को ध्यान में रखकर किया गया था। भारतीय उत्पादों को विशेष रूप से विकसित बाजारों में सख्त तकनीकी नियमों का सामना करना पड़ा, जबकि भारत में आयात होने वाले सामान पर सीमित तकनीकी रोकटोक थी। इस प्रकार क्यूसीओ एक सामान अवसर उपलब्ध कराने के लिए रणनीतिक हथियार के रूप में उभरे। क्यूसीओ व्यापार में चुनौतियों के कारण जरूर बने होंगे लेकिन उपभोक्ता सुरक्षा में इनके महत्त्व को कम करके नहीं आंका जा सकता है।

तकनीकी नियमन को बढ़ाने की मुहिम, वैध उद्देश्यों पर आधारित है लेकिन यह भारत के नियम बनाने के तरीके पर गंभीर सवाल उठाती है। बीआईएस, पहले राष्ट्रीय मानक संगठन था और इसका काम स्वैच्छिक मानक तय करना और प्रमाणन देना था लेकिन उसे अब मानक तय करने, प्रमाणपत्र जारी करने और नियमों का पालन करवाने की भी जिम्मेदारी दे दी गई है। हालांकि इस तरह की बढ़ती भूमिकाएं दरअसल अंतरराष्ट्रीय स्तर के बेहतर चलन और विश्व व्यापार संगठन के व्यापार समझौते में तकनीकी बाधाएं जैसे दिशानिर्देशों के खिलाफ हैं जो हितों के टकराव को रोकने और पारदर्शिता सुनिश्चित करने के लिए संस्थागत विभाजन की वकालत करते हैं।

ज्यादातर विकसित अर्थव्यवस्थाओं में ये भूमिकाएं अलग-अलग होती हैं। नियामक एजेंसियां अनिवार्य तकनीकी नियम बनाती और उन्हें लागू करती है जबकि राष्ट्रीय मानक निकाय स्वैच्छिक मानक बनाते हैं जो अक्सर अंतरराष्ट्रीय ढांचों के अनुरूप होते हैं और मान्यता प्राप्त थर्ड-पार्टी के अनुरूपता मूल्यांकन निकाय उत्पादों को प्रमाणपत्र देने के साथ ही उसका परीक्षण करते हैं।

ध्यान देने वाली बात यह है कि अमेरिका और ज्यादातर यूरोपीय देशों जैसी विकसित अर्थव्यवस्थाओं में राष्ट्रीय मानक निकाय उद्योग आधारित और निजी क्षेत्र से जुड़े हैं और उन्हें नियामकीय भूमिकाएं नहीं दी जा सकती हैं। यह विकासशील और कम जानकारी वाली अर्थव्यवस्थाओं में मौजूद निकायों के विपरीत है, जो वास्तव में सरकारी नियमन के केंद्र होते हैं। यह कार्यात्मक विभाजन विश्वसनीयता बढ़ाता है और एक ही एजेंसी के दबदबे को रोकता है। साथ ही विदेशी नियामकों के साथ परस्पर मान्यता वाले समझौतों को आसान बनाता है जिससे निर्यात और आयात प्रक्रियाएं आसान हो जाती हैं।

भारत का बीआईएस केंद्रित मॉडल इस दृष्टिकोण से बिल्कुल अलग है। बीआईएस खुद ही मानक तय करता है, उत्पादों को प्रमाणित करता है और नियमों का उल्लंघन करने वालों पर कार्रवाई भी करता है जिसकी वजह से बीआईएस के सामने एक विरोधाभास खड़ा होता है कि वह मानकों को बढ़ावा दे या दंडात्मक कार्रवाई करे। इस प्रणाली के कारण, निर्माताओं, खासकर छोटे और मझोले उद्यमों (एमएसएमई) के लिए यह मॉडल अनुपालन लागत को बढ़ा देता है। अधिक जोखिम वाले उपभोक्ता उत्पादों और औद्योगिक बी2बी उत्पादों के बीच जो​खिम के आधार पर अनुपालन की कठोरता में अंतर न होने से आर्थिक अक्षमता और बढ़ जाती है।

भारत में नियमों को लागू करने की व्यवस्था काफी कमजोर है। बीआईएस बाजारों में सही तरीके से जांच पड़ताल नहीं कर पाता है। इस वजह से नियमों का पालन न करने वालों पर कड़ी कार्रवाई नहीं हो पाती और वे डरते भी नहीं हैं। अगर हम दूसरे देशों की बात करें तो वहां नियमों की जांच करने वाली एजेंसियां और प्रमाणपत्र देने वाली एजेंसियां अलग-अलग होती हैं। इससे नियमों को सही ढंग से लागू किया जा सकता है और ग्राहकों को बेहतर सुरक्षा मिलती है।

कई पड़ोसी देशों ने अपने यहां के मानक निकायों के लिए अंतरराष्ट्रीय मान्यता हासिल कर ली है। यह मान्यता परस्पर समझौतों के लिए बहुत जरूरी होती है लेकिन बीआईएस ने अभी तक आईएसओ/आईईसी 17065 के तहत यह मान्यता नहीं ली है। इसका नतीजा यह है कि भारतीय प्रमाणन को विदेश में स्वीकार नहीं किया जाता है। भारतीय निर्यातकों को विदेश में अपने उत्पादों का दोबारा परीक्षण और प्रमाणन कराना पड़ता है, जिससे लागत बढ़ने के साथ ही समय भी बरबाद होता है। इस वजह से भारत प्रमुख व्यापारिक साझेदारों के साथ परस्पर मान्यता वाले समझौते नहीं कर पा रहा है, जिससे भारतीय निर्यात प्रतिस्पर्धा कमजोर होती है और व्यापार को सक्षम बनाने वाले के रूप में क्यूसीओ के घोषित लक्ष्य को नुकसान पहुंचता है।

भारत की नियामक रणनीति को कौशल विकास, वित्तीय क्षमता निर्माण और हितधारकों की भागीदारी जैसे सहायक संस्थागत तंत्रों के साथ सही तालमेल बिठाने की भी जरूरत है। इन चुनौतियों के बावजूद, तकनीकी नियमों की आवश्यकता बेहद महत्त्वपूर्ण और अनिवार्य है। उत्पादों की सुरक्षा के लिए सही मानक न होने पर उपभोक्ताओं को खतरा होता है और इससे अनुचित प्रतिस्पर्धा भी पैदा होती है जो गुणवत्ता के लिए प्रतिबद्ध निर्माताओं को नुकसान पहुंचाती है। खिलौना उद्योग इसका एक अच्छा उदाहरण है।

क्यूसीओ को लागू करने से उपभोक्ताओं का भरोसा बढ़ा है, असुरक्षित आयात कम हुआ है और प्रमाणित घरेलू विनिर्माताओं की पहुंच संगठित खुदरा और ई-कॉमर्स बाजारों में बढ़ी है। अगर भारत को वास्तव में इन लाभ को पाना है तो अपने नियामकीय ढांचे में बदलाव करना होगा। एक ही कानून में बार-बार संशोधन करने के बजाय, एक ऐसा कानूनी ढांचा बनाना चाहिए जो अलग-अलग मंत्रालयों को एक ही प्रणाली के तहत तकनीकी नियम जारी करने का अधिकार दे। भारत में कोई भी नया नियम लागू करने से पहले, उसके आर्थिक और सामाजिक प्रभावों का आकलन करना चाहिए। सरकार अपनी खरीद जैसे जीईएम मंचों का उपयोग करके गुणवत्ता मानकों का पालन करने वाले छोटे खिलाड़ियों को प्रोत्साहित कर सकती है।

भारत सरकार का ‘विकसित भारत’ का सपना तभी पूरा हो सकता है, जब देश में एक आधुनिक, पारदर्शी और दुनिया भर में भरोसेमंद नियामक व्यवस्था हो। अगर भारत गुणवत्ता की एक बेहतर प्रणाली अपनाता है तो यहां के उत्पादों और सेवाओं का मूल्य बढ़ जाएगा, जिससे निर्माताओं को अपने काम का बेहतर दाम मिलेगा। क्यूसीओ प्रधानमंत्री के ‘जीरो डिफेक्ट, जीरो इफेक्ट’ के सपने को साकार कर सकते हैं। लेकिन इसके लिए हमें सोच-समझकर, तालमेल के साथ और बड़े सुधार करने होंगे। हमें संस्थागत टकराव को खत्म करना होगा, अपनी नीतियों को वैश्विक मानकों के साथ जोड़ना होगा और ग्राहकों के हितों के साथ-साथ आर्थिक प्रतिस्पर्धा में भी संतुलन बनाए रखना होगा।


(लेखक आरआईएस में क्रमशः विशिष्ट फेलो, विजिटिंग फेलो और शोध सहयोगी हैं। ये उनके निजी विचार हैं)

First Published : September 22, 2025 | 11:08 PM IST