कोविड-19 महामारी ने हमें इस बात का अनुभव कराया है कि विकास के आयामों में जीवन-यापन के लक्ष्यों के साथ स्थायित्व और स्वास्थ्य के ध्येय का भी समावेश होना चाहिए। भारत में कृषि देश के अधिकांश लोगों के जीवन-यापन का प्रमुख साधन है। हालांकि हमने कृषि कार्यों को कभी स्थायित्व या उचित पोषण के नजरिये से नहीं देखा। हमारा ध्यान सदैव इस बात पर रहा कि अधिक से अधिक उत्पादन कैसे अर्जित करें।
इसका परिणाम यह हुआ है कि कृषि क्षेत्र एक गंभीर संकट का शिकार बन गया है। खासकर, कोविड महामारी में यह बात पूरी तरह दिखने लगी है।
खाद्य एवं कृषि संगठन (एफएओ) और नीति आयोग द्वारा जारी एक हालिया परिपत्र (सिम्बायोसिस ऑफ वाटर ऐंड एग्रीकल्चर ट्रांसफॉर्मेशन इन इंडिया) में पी एस विजयशंकर और मैंने तर्क दिए हैं कि एक ही फसल बार-बार उगाने (मोनोकल्चर) और हरित क्रांति की तकनीकों से हटकर देश में कृषि क्षेत्र की विविधताओं के अनुरूप फसलों की खेती कर बड़े पैमाने पर जल संचय किया जा सकता है। इतना ही नहीं, इससे किसानों की आय बढऩे के साथ ही मृदा की उत्पादकता भी बढ़ेगी और उपभोक्ताओं को भी अधिक पोषक तत्त्वों से भरपूर खाद्यान्न की आपूर्ति सुनिश्चित हो पाएगी।
कृषि कार्यों में देश के जल संसाधन का 90 प्रतिशत तक हिस्सा इस्तेमाल होता है। इनमें भी 80 प्रतिशत जल की मात्रा धान, गेहूं और गन्ना उगाने पर खर्च हो जाती है। हमने अपनी तरह की एक अनोखी गणना के तहत विभिन्न परिस्थितियों के विश्लेषणों से यह अनुमान लगाने का प्रयास किया है कि देश के 11 बड़े कृषि राज्यों में फसल विविधता के जरिये कितना जल बचाया जा सकता है। ये 11 राज्यों का देश की कुल सिंचित भूमि में दो-तिहाई हिस्सा है। मुख्य रूप से इन फसलों की जगह दलहन, तिलहन और पोषक अनाज (ज्वार, बाजार आदि) प्रत्येक कृषि क्षेत्रों के लिए उपयुक्त हैं। हम यह दर्शाने की कोशिश कर रहे हैं कि भारत में पेयजल संकट दूर करने के लिए हम कितनी मात्रा में जल की बचत कर सकते हैं और किस तरह लाखों छोटे एवं पिछड़े किसानों के खेतों तक सिंचाई की सुविधा पहुंचा सकते हैं।
कभी-कभी यह तर्क दिया जाता है कि फसल में बदलाव से कुल पैदावार कम हो जाएगी क्योंकि इनके बदले उगाई जाने वाली वैकल्पिक फसलों की उत्पादकता बहुत अधिक नहीं है। यह तर्क अपनी जगह है लेकिन हमें यह बिल्कुल नहीं भूलना चाहिए कि अधिक सिंचाई की जरूरत वाली धान एवं गेहूं की फसलों का उत्पादन पंजाब और हरियाणा जैसे राज्यों में बरकरार रख पाना मुश्किल है जहां भूमिगत जल तेजी से नीचे जा रहा है। दूसरी तरफ, पूर्वी भारत से धान की सरकारी खरीद की मात्रा बढ़ाने से जल संसाधन से भरपूर इस क्षेत्र को अपने खाद्यान्न की आपूर्ति के लिए जल संकट झेल रहे राज्यों पर निर्भर नहीं रहना होगा। हमें यह भी ध्यान में रखनी चाहिए कि पिछले एक दशक के दौरान खाद्यान्न भंडार गेहूं एवं चावल के 3.1 करोड़ टन ‘सुरक्षित भंडार’ (बफर स्टॉक) से भी अधिक रहा है। कोविड-19 महामारी के दौरान अतिरिक्त निकासी के बाद भी केंद्रीय भंडार में अक्टूबर 2020 तक 6.3 करोड़ अनाज शेष था।
हमने जिन वैकल्पिक फसलों का जिक्र किया है उनमें पोषक तत्त्वों की मात्रा भी अधिक है। इन फसलों में आहारीय रेशे (डाइटरी फाइबर), विटामिन, खनिज, प्रोटीन एवं ऐंटीऑक्सीडेंट्स अधिक मात्रा में हंै और इनमें शर्करा बढ़ाने वाले तत्त्व भी कम मात्रा में पाए जाते हैं। कम उत्पादन लागत और फसल उगाने के लिए जरूरी तत्त्वों की कम से कम खपत से किसानों की आय बढ़ाने में मदद मिलेगी। हाल के दिनों में पोषक आहार की उत्पादकता बढ़ रही है और रकबा कम रहने के बावजूद उनका उत्पादन कम नहीं हुआ है। यह एक सकारात्मक संकेत है और साथ में इस तथ्य की ओर भी ध्यान आकृष्ट हो रहा है कि शोध एवं विकास पर अधिक निवेश कर इन फसलों की उत्पादकता में और इजाफा किया जा सकता है। किसानों को अधिक समर्थन देने और सरकारी खरीद का दायरा बढ़ाने से फसलों में विविधता लाने के लिए उपयुक्त वृहद आर्थिक हालात तैयार करने में मदद मिलेगी। यह देखकर अच्छा लग रहा है कि हाल में न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) बढ़ाने का लाभ धान एवं गेहूं की तुलना में वैकल्पिक फसलों को अधिक मिला है।
दुर्भाग्य से अनाज की सरकारी खरीद धान एवं गेहूं पर अधिक केंद्रित है। सरकारी खरीद से इन फसलों की एक सुनिश्चित रकम मिलने के मोह में किसान इनके उत्पादन पर अधिक जोर देते हैं। भारत में खाद्यान्न की सरकारी खरीद प्रक्रिया की जद में देश में उत्पादित फसलों का काफी कम हिस्सा आता है और सभी क्षेत्रों की इसमें भागीदारी भी नहीं है और न ही सभी किसानों को इससे लाभ मिल पाता है। इस वजह से हमें इस प्रक्रिया में अधिक से अधिक फसलों, कृषि क्षेत्रों और किसानों को शामिल करना होगा। खरीदारी स्थानीय स्तर पर होनी चाहिए और क्षेत्रीय कृषि-तंत्र एवं हालात पर आधारित होनी चाहिए। इसका एक मानक यह हो सकता है कि किसी एक सत्र की फसल के कुल वास्तविक उत्पादन का 25 प्रतिशत हिस्सा सरकारी खरीद प्रक्रिया में शामिल किया जाना चाहिए (अगर यह जिंस सार्वजनिक वितरण प्रणाली या पीडीएस का हिस्सा है तो इसे बढ़ाकर 40 प्रतिशत तक किया जाना चाहिए)। 2018 में शुरू हुई पीएम-आशा योजना में यही प्रस्ताव दिया गया है। कालांतर में किसान इससे फसल लगाने के प्रारूप में बदलाव करने की तरफ प्रेरित होंगे।
स्थानीय स्तर पर खरीदी गईं फसलों का इस्तेमाल आंगनवाड़ी केंद्रों और मध्याह्न भोजन कार्यक्रम के लिए किया जा सकता है। इससे किसानों को एक ओर जहां नियमित बाजार मिल जाएगा, वहीं देश में कुपोषण और मधुमेह की बीमारी पर अंकुश लगाने में भी काफी मदद मिलेगी। हमारा यह भी कहना है कि कृषि उत्पादन बढ़ाने के लिए रासायनिक उर्वरकों पर निर्भरता कम कर मृदा की गुणवत्ता बढ़ाने और जल के कम इस्तेमाल वाली कृषि व्यवस्था की तरफ बढऩा चाहिए। इससे स्वस्थ्य जल एवं भोजन की उपलब्धता सुनिश्चित करना सरल हो जाएगा। कृषि क्षेत्रों में इन सुधारों से भारत में जल, कृषि, स्वास्थ्य एवं पोषण संकट दूर करने के सार्थक प्रयासों की दिशा में आगे बढ़ा जा सकेगा।
(लेखक समाज प्रगति सहयोग के सह-संस्थापक है। यह संस्था जल एवं जीविका संरक्षण से संबद्ध है। )