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बैंकिंग साख: Silence, sound, action: केन्द्रीय बैंकिंग की कामयाबी के लिए क्या है जरूरी?

कुछ केंद्रीय बैंक प्रमुख सतर्कता के साथ छोटे-छोटे कदम उठाकर निर्णय लेते हैं, क्योंकि हर जानकारी स्पष्ट नहीं होती। अन्य उस समय की स्थिति को देखकर और महसूस कर नीतियां बनाते हैं

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तमाल बंद्योपाध्याय   
Last Updated- June 19, 2025 | 11:41 PM IST

करीब दशक भर पहले सितंबर 2015 में भारतीय रिजर्व बैंक ने नीतिगत रीपो दर में 50आधार अंकों की कटौती की थी। यह अनुमान से दोगुनी कटौती थी। यह तीन साल की सबसे बड़ी कटौती थी और इसके बाद रीपो दर घटकर 6.75 फीसदी रह गई। यह साढ़े चार सालों का न्यूनतम स्तर था।

मौद्रिक नीति के बाद मीडिया से बातचीत के दौरान किसी ने तत्कालीन गवर्नर रघुराम राजन से पूछा कि क्या वह सांता क्लॉज की भूमिका निभा रहे हैं। जवाब में उन्होंने कहा, ‘मैं नहीं जानता आप मुझे क्या बुलाना चाहते हैं…सांता क्लॉज… या आप मुझे हॉक कहना चाहते हैं…मैं नहीं जानता। मेरा नाम रघुराम राजन है और मैं जो करता हूं, वह करता हूं।’

50 आधार अंकों की कटौती के बारे में उन्होंने कहा, ‘हम यह सुनिश्चित करना चाहते हैं कि टिकाऊ और वृद्धि शब्द साथ रहें। दोनों अहम हैं। यही वजह है कि हमने अपने पास मौजूद गुंजाइश का इस्तेमाल किया। पर मुझे नहीं लगता कि हम ज्यादा आक्रामक हैं। हम कोई दीवाली बोनस नहीं बांट रहे थे।’

ताजा मौद्रिक नीति में भी 50 आधार अंकों की कटौती की गई जो उम्मीद से दोगुनी थी। इतना ही नहीं नकद आरक्षित अनुपात में भी कटौती की गई और नीतिगत रुख को समायोजन से तटस्थ कर दिया गया। अप्रैल में पिछली नीति की घोषणा करते समय रिजर्व बैंक के मौजूदा गवर्नर संजय मल्होत्रा ने कहा था, ‘मैं संजय हूं, महाभारत का संजय नहीं जो भविष्य की दरों को लेकर कदमों का अनुमान जता सकूं।’

मल्होत्रा के पास दूर की चीजें देखने की दिव्य दृष्टि नहीं है। अतीत में हमें दोनों तरह के गवर्नर देखने को मिले हैं। एक तो वे जो वही करते थे जो जरूरी होता था और दूसरे वे जो भविष्य में कदम उठाए जाने के लिए आंकड़ों की प्रतीक्षा करते। जून की मौद्रिक नीति के बाद सवाल यह है कि क्या यह सही रुख है? या फिर क्या एक केंद्रीय बैंकर को सावधान रहना चाहिए और अपने सारे पत्ते नहीं खोलने चाहिए? खासतौर पर तब जबकि दुनिया भर में तमाम अनिश्चितताएं हैं। इस खेल के कोई नियम नहीं हैं।

ऐसे भी कई ऐसे केंद्रीय बैंकर रहे हैं जो सावधानी से छोटे कदम उठाते हैं। वहीं ऐसे भी बैंकर रहे हैं जो वर्तमान को ध्यान में रखते हुए नीतिगत कदम उठाते हैं। मल्होत्रा दूसरी श्रेणी के हैं। नीतिगत घोषणा के कुछ दिन बाद हमें पता चला कि उपभोक्ता मूल्य सूचकांक आधारित मुद्रास्फीति अप्रैल के 3.2 फीसदी की तुलना में मई में घटकर 2.8 फीसदी रह गई। यह 75 महीने का न्यूनतम स्तर है। कई लोग कहते हैं कि जून में यह 2.5 फीसदी रह सकती है। क्या महज दो महीनों में रुख में बदलाव मुद्रास्फीति के आगामी आंकड़ों के साथ तालमेल वाला होगा।

इसी समय खाद्य कीमतों में गिरावट के दौरान ही वर्तमान अनिश्चित माहौल में कच्चे तेल की कीमतों में इजाफा खुदरा मूल्य सूचकांक आधारित मुद्रास्फीति पर विपरीत असर डाल सकता है। यह सही है कि वृद्धि-मुद्रास्फीति का नया गणित वृद्धि को सहारा देने के लिए ब्याज दरों में कटौती की मांग करता है, लेकिन किसी रिजर्व बैंक गवर्नर को यह कहते हुए कम ही सुना जाता है, ‘फरवरी 2025 के बाद कम अंतराल में नीतिगत रीपो दर को 100 आधार अंक तक कम करने के बाद मौजूदा हालात में मौद्रिक नीति के पास वृद्धि को सहारा देने की सीमित गुंजाइश है।’यहां वह अहम सवाल आता है कि केंद्रीय बैंकिंग में खामोशी और बातचीत बनाम कार्रवाई में से क्या होना चाहिए। इस बात से कोई इनकार नहीं करेगा कि केंद्रीय बैंकरों को अपनी बात पर अमल करना चाहिए क्योंकि विश्वसनीयता ही उनकी पूंजी है। उनकी कथनी और करनी में भेद नहीं रह सकता। अगर ऐसा हुआ तो बाजार उन पर भरोसा नहीं करेगा। ऐसे में मुद्रा की कीमत बढ़ाना और बॉन्ड यील्ड में कमी भी एक स्वीकार्य दस्तूर है।

मल्होत्रा खुलकर कह चुके हैं कि मौद्रिक नीति के पास वृद्धि को सहारा देने की ज्यादा गुंजाइश नहीं है। ऐसे में क्या वृद्धि को गति देने का काम सरकार के जिम्मे है और दरों में आगे कटौती की गुंजाइश नहीं है। केंद्रीय बैंकिंग में संचार बहुत अहम है। समित की बैठक के बाद मीडिया से बातचीत में मल्होत्रा ने साफ किया कि वह बातें करने में यकीन नहीं करते बल्कि कार्रवाई में करते हैं। यूरोपीय केंद्रीय बैंक की क्रिस्टीन लेगार्ड की अक्सर आलोचना की जाती रही है कि वे अत्यधिक सतर्क रहती हैं। कई बार उनके शब्दों में बाजार को गति देने की ताकत नहीं रहती। बैंक ऑफ जापान के गवर्नर काजुओ उएदा भी संचार में बहुत सावधानी बरतते हैं क्योंकि छोटा सा संकेत भी येन या बॉन्ड में भारी अस्थिरता ला सकता है।

1980 के दशक में अमेरिकी फेड के तत्कालीन चेयरमैन पॉल वोल्कर ने नीतिगत दरें बढ़ाकर मुद्रास्फीति की कमर तोड़ दी थी। उन्होंने कहा था, ‘मुझे जो सबसे अहम काम करना है वह है फेडरल रिजर्व की विश्वसनीयता बरकरार रखना।’

तो क्या कारगर रहता है? शायद बातों और कार्रवाई के बीच का संतुलन बेहतर होता है। केवल बातें करने वाला केंद्रीय बैंकर और बिना बाजार के जोखिम के लिए तैयारी किए केवल कार्रवाई करने वाला बैंकर, दोनों विश्वसनीयता को क्षति पहुंचाते हैं।

यहां बातें करने और काम करने वाले के बीच की लड़ाई नहीं है। आदर्श स्थिति में केंद्रीय बैंकरों को बाजार को तैयार करना चाहिए, पारदर्शी ढंग से अपने इरादे का संकेत देना चाहिए और बताना चाहिए कि उन्होंने कोई काम क्यों किया। मल्होत्रा ने ऐसा ही किया।

रिजर्व बैंक ने फरवरी में दरों में कटौती शुरू की थी। फरवरी के पहले सप्ताह उसने 25 आधार अंक की कमी करके रीपो दर 6.25 फीसदी किया और जून की नीति की पूर्व संध्या पर (तब दर 6 फीसदी थी क्योंकि अप्रैल में एक और बार 25 आधार अंक की कटौती की गई थी।) एक वर्ष के ट्रेजरी बिल के यील्ड में 100 आधार अंक की कमी आई। 10 साल के बॉन्ड की यील्ड करीब 30 आधार अंक कम हुई। दरों में अप्रत्याशित कटौती के बाद 10 साल की यील्ड करीब 10 आधार अंक घटी है।

यकीनन ओवरनाइट दरों में कमी आ रही है यानी दूसरे शब्दों में कहें तो संपूर्ण स्तर पर न सही लेकिन ट्रांसमिशन नजर आ रहा है। परंतु जैसा कि वे कहते हैं नीतिगत कदमों और उनके असर में थोड़ा अंतराल तो रहता है। हमें प्रतीक्षा करनी चाहिए। लचीलापन बहुत अहम है क्योंकि अर्थव्यवस्था बहुत तेजी से विकसित होती है। एक केंद्रीय बैंकर आज कुछ कहता दिख सकता है जबकि अगले दिन वह कुछ और करता नजर आ सकता है। इसकी वजह उसके आत्मविश्वास की कमी नहीं बल्कि आंकड़ों में बदलाव हो सकता है।

(लेखक जन स्मॉल फाइनैंस बैंक के वरिष्ठ सलाहकार हैं)

 

First Published : June 19, 2025 | 10:54 PM IST