कंपनियों के लिए रकम जुटाने का मौका तब सबसे उपयुक्त होता है जब उन्हें इसकी आवश्यकता नहीं होती है। बैंकों के लिए पूंजी संग्रह करने और संचालन प्रक्रिया दुरुस्त करने का सबसे उपयुक्त समय तब होता है जब परिस्थितियां सभी दृष्टिकोण से अनुकूल होती हैं। इसी सोच के साथ भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) के गवर्नर शक्तिकांत दास ने बैंकों में संचालन व्यवस्था पर चर्चा आयोजित की थी।
सबसे पहले दास ने सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के निदेशक मंडलों (बोर्ड) के साथ संचालन से संबंधित विषयों पर चर्चा आयोजित की। इसके बाद निजी क्षेत्र बैंकों के बोर्ड के साथ बैठक हुई। गवर्नर ने दोनों क्षेत्रों के बैंकों के बोर्ड को याद दिलाया किया कि ‘प्रायः ऐसा पाया गया है कि जब सब कुछ सामान्य रहता है तो जोखिमों को नजरअंदाज कर दिया जाता है या भुला दिया जाता है।’
बैंकों में पूंजी पर्याप्तता अनुपात 16.1 प्रतिशत है जो पिछले कुछ समय में सर्वाधिक है। सकल एवं शुद्ध गैर-निष्पादित आस्तियां (एनपीए) क्रमशः 4.41 प्रतिशत और 1.16 प्रतिशत हैं, जो पिछले कुछ समय में अपने सबसे निचले स्तरों पर हैं। इस तरह, यह समय संचालन प्रक्रिया एवं संरचनाओं पर ध्यान देने एवं उन्हें मजबूत करने का समय सबसे उपयुक्त है।
दास ने बैंकिंग प्रणाली की सुरक्षा एवं स्थिरता के लिए 10-सूत्री कार्यक्रम का जिक्र किया। उन्होंने जोर दिया कि संचालन गुणवत्ता और प्रबंधन किसी बैंक की सफलता के लिए महत्त्वपूर्ण हैं। आरबीआई गवर्नर ने सात महत्त्वपूर्ण तथ्यों का उल्लेख किया, जो बैंकों के बोर्ड की कार्यसूची का हिस्सा होना चाहिए। इनमें कारोबारी रणनीति, वित्तीय रिपोर्ट एवं उनकी विश्वसनीयता, जोखिम, अनुपालन, उपभोक्ता संरक्षा, वित्तीय समावेशन और मानव संसाधन आदि शामिल हैं।
उन्होंने स्वतंत्र निदेशकों की स्वायत्तता एवं हुनर पर कहा कि बोर्ड का प्रमुख उद्देश्य संबंधित बैंक को स्पष्ट एवं ठोस मार्गदर्शन देना और वरिष्ठ प्रबंधन पर निगरानी रखना है। इसके अलावा बोर्ड पर बैंकों में निगमित मूल्यों की मर्यादा बनाए रखने का भी उत्तरदायित्व है। दास ने कहा कि शीर्ष स्तर पर चीजें दुरुस्त रखने से एक अनुकूल निगमित एवं जोखिम से निपटने की संस्कृति तैयार करने और कर्मचारियों को नैतिक जिम्मेदारी का एहसास दिलाने में सहायता मिलेगी।
बैंक बोर्ड को यह सुनिश्चित करना होगा कि ग्राहकों को श्रेष्ठ सुविधा देने के लिए बैंक उचित व्यवहार करें और इस बात को गंभीरता से समझने का प्रयास करें कि ग्राहक उनके लिए सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण हैं। इसके साथ ही ग्राहकों की शिकायत निपटान प्रणाली भी दुरुस्त एवं त्वरित होनी चाहिए। तीसरे पक्ष के साथ बैंकों के समझौतों पर आरबीआई यह अपेक्षा रखता है कि प्राथमिक जिम्मेदारियों का निर्वहन स्वयं बैंक करें, न कि किसी तीसरे या चौथे पक्ष पर इनके लिए निर्भर रहें।
आरबीआई गवर्नर ने अपने भाषण में कई अन्य बातें भी कही हैं। जो लोग किसी कंपनी के बोर्ड में हैं या शामिल होना चाहते हैं उन्हें आरबीआई गवर्नर के भाषण और डिप्टी गवर्नरों द्वारा बैठक में कही गई बातों का गंभीरता से अध्ययन करना चाहिए। खासकर, सुर्खियां बटोरने वाली एम आर राव की बात पर विशेष रूप से गौर करना चाहिए।
राव ने बोर्ड को प्रबंधन को ‘उनके कार्यों के लिए ‘जवाबदेह ठहराने’ और उनके खिलाफ ‘उपयुक्त कार्रवाई’ करने के लिए कहा। उन्होंने बैंक में संचालन में सुधार और जोखिम प्रबंधन बेहतर करने के लिए प्रबंधन को हटाने तक की बात भी कह डाली।
एक ध्यान देने योग्य बात यह है कि इन भाषणों में शेयरधारक निदेशक सहित निदेशकों के उत्तरदायित्व की चर्चा काफी सीमित रखी गई है। मुनाफा अधिक से अधिक बढ़ाने या शेयरधारकों को रकम लौटाने पर कुछ नहीं किया गया है। सूक्ष्मता से अध्ययन करने पर मुझे तो यही लगता है कि गवर्नर यह सुझाव दे रहे हैं कि बोर्ड के सदस्य स्वयं को सार्वजनिक हित निदेशकों (पीआईडी) के रूप में देखें ना कि शेयरधारक निदेशकों के रूप में।
पीआईडी की नियुक्ति बोर्ड में व्यापक सार्वजनिक हितों को परिलक्षित करने के लिए होती है। केवल शेयरधारकों के हितों की सुरक्षा करना उनका कार्य नहीं होता है। पीआईडी की प्रमुख जिम्मेदारी यह सुनिश्चित करनी होती है कि संबंधित संगठन इस तरह काम करे कि सार्वजनिक हितों पर किसी तरह की आंच न आए।
पीआईडी भारत के लिए नए नहीं है। मार्केट इन्फ्रास्ट्रक्चर इंस्टीट्यूशंस (एमआईआई) जैसे स्टॉक एक्सचेंज या क्लीयरिंग कॉर्पोरेशन आदि के बोर्ड में उनकी नियुक्ति होती रहती है। भारतीय प्रतिभूति एवं विनिमय बोर्ड (सेबी) पीआईडी की भूमिका की समीक्षा करता आ रहा है।
एमआईआई के बोर्ड की संरचना में भी यह बात दिखती है और किसी एमआईआई के अध्यक्ष के साथ अधिकांश निदेशक पीआईडी होते हैं। बोर्ड को भेजे गए किसी प्रस्ताव को तभी मंजूरी मिलती है जब अधिकांश पीआईडी इनका समर्थन करते हैं। पिछले कुछ वर्षों के दौरान सेबी ने एमआईआई के स्वतंत्र निदेशकों को पीआईडी के साथ संलग्न कर दिया है।
कंपनी अधिनियम, 2013 ने इस बदलाव के लिए पर्याप्त ढांचा उपलब्ध कराया है। इस अधिनियम में संबंधित पक्षों-कर्मचारियों, ग्राहकों, आपूर्तिकर्ताओं और जिन समुदायों में किसी कारोबार का संचालन होता है- को शेयरधारकों की तुलना में तरजीह दी गई है। 2015 में संधारणीय विकास लक्ष्य निर्धारित होने के बाद इस सोच में और तेजी आई। संधारणीय विकास लक्ष्य में निगमित उद्देश्यों को सामाजिक एवं पर्यावरण उद्देश्यों के साथ जोड़ दिया गया।
इसके अलावा आरबीआई के विभिन्न प्रपत्रों और न्यायालयों के निर्णयों, खासकर 2016 में आए उच्चतम न्यायालय ने कंपनी अधिनियम की व्याख्या कर निजी बैंक के अधिकारियों को भ्रष्टाचार निरोधक अधिनियम, 1988 में वर्णित लोक सेवक (पब्लिक सर्वेंट) की परिभाषा के तहत ला दिया।
स्पष्ट है कि वित्तीय संकट के बाद बैंक बोर्ड की भूमिका बदल गई है। अब बैंकों के कंधों पर भारतीय अर्थव्यवस्था को समर्थन देने की जिम्मेदारी आ गई है। उम्मीद की जा रही है कि देश की अर्थव्यवस्था का आकार आने वाले कुछ वर्षों में 5 लाख करोड़ डॉलर तक पहुंच जाएगा। इसे ध्यान में रखते हुए बैंक निदेशकों के निर्णयों में वित्तीय प्रणाली में स्थिरता और वृद्धि को प्राथमिकता देनी होगी। इस बीच, खामोशी से बैंकों के बोर्ड सार्वजनिक हित निदेशकों की नई दुनिया में कदम रख चुके हैं। (लेखक इंस्टीट्यूशनल इन्वेस्टर एडवाइजरी सर्विसेस इंडिया लिमिटेड से जुड़े हैं। ये लेखक के निजी विचार हैं)