मोदी सरकार ने 2017 में यह निर्णय लिया कि भारतीय रेल के लिए अलग से सालाना बजट नहीं पेश किया जाएगा। इसे एक अहम सुधार के रूप में पेश किया गया। इसके साथ ही 92 वर्ष पुरानी एक व्यवस्था को समाप्त कर दिया गया जो ब्रिटिश काल में शुरू हुई थी और आजादी के बाद भी जारी थी। तत्कालीन वित्त मंत्री अरुण जेटली ने 2017-18 का आम बजट पेश करते हुए कहा था, ‘मैं स्वतंत्र भारत का पहला संयुक्त बजट पेश करते हुए काफी गौरवान्वित हूं जिसमें रेलवे भी शामिल है। अब हम इस स्थिति में हैं कि रेलवे, सड़क, जलमार्ग तथा नागर विमानन में होने वाले निवेश को सुसंगत बना सकें।’
रेल बजट को आम बजट में शामिल हुए पांच वर्ष बीत चुके हैं। ऐसे में यह उपयोगी होगा कि नयी व्यवस्था पर नजर डाली जाए और देखा जाए कि हमने क्या खोया और क्या पाया? रेल मंत्रियों को 2017 तक बहुत तवज्जो मिलती थी। हर वर्ष वे संसद में बजट पढ़ते हुए नयी यात्री ट्रेनों की घोषणा करते थे, रियायतों की घोषणा करते थे या नये शुल्क लगाते थे। उन लंबे रेल बजट भाषणों में भारतीय रेल और उसकी वित्तीय स्थिति के बारे में भी बताया जाता था। उन नीरस भाषणों में नयी बिछने वाली पटरियों या नयी शुरू होने वाली ट्रेनों का विस्तार से ब्योरा दिया जाता था। ऐसा अक्सर रेल मंत्री के क्षेत्र के मतदाताओं को संतुष्ट करने के लिए किया जाता था। यह नुकसानदेह भी था क्योंकि कई रेलमंत्रियों ने बस थोड़ी शाबाशी की चाह मेंं ऐसी घोषणाएं कर दीं जो वित्तीय दृष्टि से अव्यावहारिक लगती थीं। बीते पांच साल में भी नयी रेल लाइन बिछी हैं और नयी परियोजनाएं शुरू हुईं लेकिन संसद मेंं इनकी घोषणा नहीं की गई।
ऐसा इसलिए कि केंद्रीय वित्त मंत्री के पास रेलवे परियोजनाओं का विस्तृत ब्योरा देने का समय नहीं है। 2022-23 के बजट में भारतीय बजट पर केंद्रित केवल पांच पैराग्राफ थे जबकि भाषण में कुल 157 पैराग्राफ थे। हालांकि रेल बजट को आम बजट में शामिल करने की नयी व्यवस्था में कुछ गंभीर कमियां भी हैं। इसका संबंध उन मसलों से है जो देश के सबसे बड़े यात्री और मालवाहक को प्रभावित करते हैं। भारतीय रेल अभी भी देश कुल माल का एक तिहाई ढोती है। 12 लाख लोगों के साथ केंद्र सरकार के कुल कर्मचारियों का एक तिहाई भी ये ही हैं। अगर भारतीय रेल एक कंपनी होती तो इसका सालाना राजस्व देश की 10 शीर्ष सूचीबद्ध कंपनियों में शामिल होता।
ऐसे में आश्चर्य नहीं कि भारतीय रेल की वित्तीय स्थिति नीति निर्माताओं और विश्लेषकों के बीच बहस का विषय रहती है। रेल बजट की प्रस्तुति के दिन यह बहस नयी ट्रेनों और किराये में परिवर्तन, सरकार की वित्तीय स्थिति, मालवहन तथा निवेश योजनाओं पर केंद्रित रहती थी। इन विषयों पर अगले कई सप्ताह तक चर्चाएं चलती रहतीं। अर्थव्यवस्था पर भारतीय रेल का काफी प्रभाव था इसलिए ऐसी चर्चाओं से रेलवे नेटवर्क और संभावित नीतिगत कदमों को लेकर बेहतर समझ निर्मित होती।
खेद की बात यह है कि 2017 में रेल बजट को आम बजट में शामिल किए जाने के बाद भारतीय रेल की स्थिति पर सार्वजनिक चर्चा और इस पर ध्यान दिया जाना लगभग बंद हो गया। रेलवे के प्रदर्शन और उसकी वित्तीय स्थिति से जुड़े प्रासंगिक आंकड़े अनुपलब्ध रहे लेकिन आम बजट को लेकर ही चर्चा इतनी गर्म रही कि किसी ने बजट में रेलवे संबंधित आंकड़ों पर वैसा ध्यान ही नहीं दिया जैसा 2017 के पहले दिया जाता था। एक तरह से देखें तो दो अहम घटनाओं को एक में शामिल करने का अर्थ यह हुआ कि अधिक महत्त्चपूर्ण घटना यानी आम बजट ने कम महत्त्वपूर्ण घटना यानी रेल बजट को अनदेखा करवा दिया। ऐसा मीडिया और नीतिगत विश्लेषक दोनों ने किया। उदाहरण के लिए भारतीय रेलवे के परिचालन अनुपात पर काफी चर्चा हुआ करती थी। यह ऐसा मानक था जो संकेत करता था कि भारतीय रेल हर 100 रुपये की कमाई पर कितना पैसा खर्च करती है। सन 2016-17 में भारतीय रेल का परिचालन अनुपात 96.5 था। इसका अर्थ यह था कि 100 रुपये कमाने के लिए उसे 96.5 रुपये खर्च करने पड़ते थे। परिचालन अनुपात एक ऐसा मानक है जिसका इस्तेमाल भारतीय रेल की वित्तीय किफायत को आंकने के लिए किया जाता है। अगले तीन वर्ष में यह घटकर 97-98 पर आ गया। सन 2019-20 में यानी कोविड महामारी के भारतीय रेल को प्रभावित करने से पहले उसका परिचालन अनुपात 114 हो गया था। सन 2020-21 में यह और गिरकर 131 हो गया। गत वर्ष यह सुधरा लेकिन 99 तक ही पहुंच सका। 2022-23 में इसके 97 प्रतिशत हो सकता है। याद रहे कि 2014-15 में जब मोदी सरकार बनी तब परिचालन अनुपात 91 था।
कहने का यह अर्थ कतई नहीं है कि भारतीय रेल के परिचालन अनुपात में गिरावट का संबंध रेलवे का अलग बजट पेश करने से है। हालांकि यह जरूर कहा जा सकता है कि भारतीय रेल के खराब होते वित्तीय आंकड़ों को नीतिगत बहसों में उतनी तवज्जो नहीं मिली जितनी उन्हें मिलनी चाहिए थी।
इसी प्रकार भारतीय रेल की बढ़ती पेंशन जवाबदेही के बारे में भी कोई चर्चा नहीं हुई। 2019-20 और 2020-21 में इसकी अंडर प्रॉविजनिंग ही परिचालन अनुपात में गिरावट की खास वजह रही। भारतीय रेल की पेंशन लागत बीते पांच वर्ष में एक तिहाई बढ़ी है। बढ़ता पेंशन बिल उसके परिचालन अनुपात पर एक बड़ा बोझ है और अगर इससे निपटने के लिए कोई ठोस नीति नहीं बनायी गई तो यह एक ऐसा टाइम बम है जो जल्दी ही फटेगा।
आवागमन की बात करें तो भारतीय रेल के मालवहन से आने वाले राजस्व में सुधार हुआ है। 2021-22 में इससे आने वाला राजस्व कोविड के पहले वाले वर्ष यानी 2018-19 की तुलना में 14 फीसदी अधिक था। बहरहाल इसके यात्री कारोबार से आने वाला राजस्व पिछले वर्ष 2018-19 से 13 प्रतिशत कम रहा। भारतीय रेल के यात्री राजस्व का प्रदर्शन मालवहन से होने वाली आय की तुलना में कम क्यों रहा?
ऐसे कई प्रश्न हैं जिन पर चर्चा की जानी आवश्यक है। इसका हल सालाना रेल बजट को दोबारा शुरू करने में नहीं है। भारतीय रेलवे के लिए बेहतर विकल्प यही होगा कि वह संसद के समक्ष अपने वित्तीय प्रदर्शन का एक सालाना आकलन पेश करे जिसमें मध्यम अवधि के पूर्वानुमान शामिल हों। इसे वित्त वर्ष के आरंभ में पेश किया जा सकता है और यह एक मौका हो सकता है जब हमारे सांसद, नीति निर्माता और विश्लेषक सभी इस पर चर्चा करें।
