परिवारवाद की बात सभी करते हैं लेकिन एक राजनेता पिता और राजनेता पुत्र के आपसी रिश्तों की बात कम ही होती है। उत्तर प्रदेश के एक वरिष्ठ राजनेता के बेटे ने एक बार अत्यंत मर्मस्पर्शी ढंग से कहा था कि बड़े होते हुए उन्होंने शायद ही कभी अपने पिता को देखा था। एक बार गांव में ‘बाबूजी’ ने उन्हें देखा तो सर पर हाथ फिराकर पूछा कि वह कितना बड़ा हो गया है। उन्होंने यह भी पूछा कि वह कक्षा सात में कब पहुंचेगा? बेटे ने ससंकोच कहा कि वह कक्षा सात में पहुंच चुका है। उसे पहली बार अहसास हुआ कि उसके पिता को उसकी उम्र तक का अंदाजा नहीं था। राष्ट्रीय लोक दल के नेता अजित सिंह ने एक बार मुझसे कहा था कि उनके पिता चरण सिंह भले ही रुखे नजर आते हों लेकिन वह एक शानदार और गर्मजोशी दिखाने वाले पिता थे, खासकर तब जब परिवार में कोई बच्चा बीमार होता तब उनकी गर्मजोशी देखते बनती। उन्होंने व्यंग्यात्मक लहजे में कहा कि उनका ध्यान आकर्षित करने के लिए बीमार होना पड़ता था।
सभी राजनीतिक पिताओं में एक बात समान है कि वे अपने बेटों को यथासंभव राजनीति से दूर रखने का प्रयास करते हैं। यह बात अजित सिंह के बारे में भी सही है जो अपने बेटे जयंत सिंह के एक अच्छी-खासी नौकरी छोड़कर राजनीति में आने से नाराज थे। उन्होंने जयंत की पत्नी के जरिए अपनी नाराजगी जताई थी। यह बात मुलायम सिंह यादव पर भी लागू होती है जिनके बेटे अखिलेश का पिता और विस्तृत परिवार के साथ उतार-चढ़ाव वाला रिश्ता रहा है।
दस वर्ष पहले 2012 के विधानसभा चुनाव के बाद मुलायम सिंह यादव के राजनीतिक साम्राज्य के वारिस के रूप में अखिलेश यादव की ताजपोशी हुई थी। अखिलेश के राजनीति में आने को सबसे बड़ा समर्थन परिवार के बाहर से मिला। सबसे पहले उनके राजनीति में आने का प्रस्ताव उनके ‘अंकल’ अमर सिंह केलोधी रोड स्थित आवास पर रखा गया था। तब मुलायम के अलावा सब सहमत थे। मुलायम ने कहा था कि वह विचारक और वरिष्ठ समाजवादी नेता जनेश्वर मिश्र से चर्चा करेंगे। अगर वह हां कहते हैं तो अखिलेश राजनीति में आएंगे।
आखिरकार जनेश्वर मिश्र अखिलेश के मार्गदर्शक बने और उनके जीवन में मिश्र की भूमिका पितृ तुल्य रही। अखिलेश कई बार इसे सार्वजनिक रूप से स्वीकार कर चुके हैं। प्रिया सहगल ने अपनी शानदार किताब ‘कंटेंडर्स’ में अखिलेश यादव को उद्धृत किया है, ‘जब मैं अध्यक्ष बन गया, उन्होंने (मिश्र ने) मुझसे कहा कि तुम अभी नेता नहीं हो। दो साल कड़ी मेहनत करो तब मैं तुम्हारी रैली में आऊंगा और तुम्हारे समर्थन में अखिलेश जिंदाबाद का नारा लगाऊंगा। तब बाकी सब तुमको नेता के रूप में स्वीकार करेंगे।’
अन्य राजनेताओं के बेटों का सफर जहां कुछ आसान रहा वहीं अखिलेश के लिए मामला आसान नहीं रहा। सबसे पहले उन्होंने उस समय अपने पिता के खिलाफ रुख अपनाया जब डीपी यादव (जिनका परिवार रजनीश कटारा हत्याकांड में शामिल था) को सपा से सीट की पेशकश की गई। अखिलेश उन्हें सीट न देने पर अड़े रहे। सपा के विपक्ष में रहने के दौरान अखिलेश ने पूरे प्रदेश में साइकिल यात्राओं का आयोजन किया। इससे पार्टी और उन्हें मतदाताओं की एक नई पीढ़ी मिली। यात्रा को रवाना करने वाले मुलायम और पांच लाख रुपये का दान देने वाले चाचा शिवपाल को इससे बहुत अधिक आशा नहीं थी। अखिलेश ने राज्य की 403 में से 215 विधानसभाओं में 9,000 किलोमीटर की दूरी तय की। 2012 की विधानसभा में सपा को 224 सीट मिलीं।
अब सवाल यह था कि मुख्यमंत्री कौन बनेगा? पार्टी के पुराने नेता अखिलेश के योगदान को स्वीकार कर रहे थे लेकिन वे मुलायम को दुखी नहीं करना चाहते थे। शिवपाल पहले ही दावा ठोक चुके थे। रामगोपाल उस समय अखिलेश का समर्थन कर रहे थे। जब अखिलेश मुख्यमंत्री बन तो गए लेकिन उनके लिए यह जहर के प्याले जैसा था। पिता के साथ उनका पारंपरिक रिश्ता कभी नहीं था, अब वे और दूर हो गए।
उन्होंने बुनियादी ढांचे के क्षेत्र में जो काम किया उससे सभी अवगत हैं। आज भी अगर प्रचार अभियान के दौरान अखिलेश आपको बता सकते हैं कि कहां उनकी सरकार की बनाई सड़क समाप्त हुई और कहां योगी सरकार ने आगे काम कराया। लखनऊ मेट्रो और आगरा-लखनऊ राजमार्ग भी उनकी योजना थे।
परंतु इसके बाद परिवार में एक और संघर्ष छिड़ा। मुलायम ने सार्वजनिक रूप से कहा कि सपा उनकी पार्टी है। पार्टी उनकी थी लेकिन अब वह अखिलेश की भी थी जिसे वह स्वीकार नहीं कर पा रहे थे। परिवार के सदस्य और समर्थक मुलायम को उकसा रहे थे। अखिलेश अपने पिता के घर से बाहर निकले और उन्होंने मुलायम से सार्वजनिक रूप से अपील की कि वे सपा की बेहतरी का निर्णय अपने विवेक से लें। मुलायम ने बेटे को सार्वजनिक रूप से झिड़का। इसके बाद पिता-पुत्र ने आगामी विधानसभा चुनाव के लिए प्रत्याशियों की अलग-अलग सूची जारी की। मामला चुनाव आयोग के पास गया और फंड रोक दिये गये। सपा समर्थक हताश थे। उन्होंने पहले ऐसा कुछ नहीं देखा था। 2017 में विधानसभा चुनाव से कुछ सप्ताह पहले चुनाव आयोग ने अखिलेश के पक्ष में निर्णय दिया लेकिन तब तक देर हो चुकी थी।
इस पूरे प्रकरण से सकुशल निकलना भी छोटी-मोटी उपलब्धि नहीं थी। अखिलेश यादव के पास जबरदस्त हास्यबोध है, उन्होंने अपनी चमड़ी मोटी कर ली है और उनमें एक किस्म की निष्ठुरता है जिसे वे सावधानीपूर्वक छिपा कर रखते हैं। उन्होंने इस चुनाव में कांग्रेस या बहुजन समाज पार्टी के साथ समझौता करने से इनकार करके और रालोद जैसे छोटे लेकिन विश्वसनीय भागीदार चुनकर ऐसा दिखाया भी। परंतु उनकी शत्रु स्पष्ट रूप से भाजपा है। अखिलेश दोबारा मुख्यमंत्री बन पाएं अथवा नहीं, लेकिन वह संतुलन गंवाये बिना अपने परिवार की छाया से उबर चुके हैं। वह खुदमुख्तार हो चुके हैं।