कंपनी मामलों का मंत्रालय (एमसीए) कंप्यूटर सक्षम यानी ‘ई-इनेबल’ बनाने वाली अपनी मुख्य परियोजना ‘एमसीए-21’ की शानदार सफलता के बाद कॉरपोरेट रिपोर्टिंग के सरलीकरण और उसे पारदर्शी बनाने के लिए भी कमर कस चुका है।
इस दिशा में कदम बढ़ाते हुए वह कंपनी अधिनियम की अनुसूची 6 में सुधार करने और उसे सरल बनाने की योजना बना रहा है। इस अनुसूची में वित्तीय ब्योरे के प्रस्तुतिकरण और गोपनीय बातों का खुलासा करने का प्रावधान है।
सरलीकरण की यह योजना वास्तव में एक विश्वसनीय लक्ष्य है, खास तौर पर उन कंपनियों के लिए, जो सार्वजनिक हित की संस्थाएं नहीं हैं। इससे छोटे और मझोले कारोबारों के लिए लागत और उससे जुड़े कई खर्चों में काफी कमी आ जाएगी। लेकिन अब यह सवाल करने का वक्त आ गया है कि अनुसूची 6 का प्रारूप क्या वास्तव में आज भी प्रासंगिक है?
दुनिया भर में लेखा के मानक तय करने वालों की पेशेवर संस्थाएं लेखा के प्रारूप निर्धारित करती हैं। इसके लाभ भी जाहिर हैं। यह विशेषज्ञता वाला क्षेत्र है, जिसमें पेशेवर दक्षता की जरूरत होती है और आर्थिक तथा वाणिज्यिक माहौल में आ रहे बदलाव के मुताबिक इसमें भी सुधार करते रहना पड़ता है।
किसी कानून की ऐसी अनुसूची, जिस पर केवल संसद में ही बहस हो सकती है या केवल संसद ही जिसमें संशोधन कर सकती है, के बारे में लचीला रुख बेशक नहीं अपनाया जा सकता। जो काम सामने हैं, उन्हें देखते हुए लेखा के बारे में कानून हमारे सांसदों के लिए सबसे बड़ी प्राथमिकता शायद नहीं हो सकता।
वित्तीय ब्योरे का जो मतलब है, अनुसूची अनुसूची 6 के प्रावधान आज उस वास्तविकता से कोसों दूर हैं। यह महज एक कानूनी कल्पना है, जो भारत में अनुसूची 6 के साथ जोड़ दी गई है। शुरुआत करने वालों के लिए अनुसूची 6 में तो मुनाफे और घाटे के खाते के लिए कोई निश्चित प्रारूप भी नहीं होता है, इसमें नकदी के प्रवाह का ब्योरा देने की जरूरत भी नहीं होती इसमें लेखा नीतियों का खुलासा करने की भी बाध्यता नहीं है।
इसके अलावा इस अनुसूची में पट्टों का खुलासा नहीं करना होता, विलंबित करों के खुलासे की बाध्यता नहीं है और घाटे या अमूर्त आस्तियों के बारे में भी कुछ नहीं पूछा जाता। इसके अलावा अनुसूची 6 को उस जमाने में तैयार किया गया था, जब किसी ने डेरिवेटिव्स का नाम भी नहीं सुना था और इसलिए इस अनुसूची का डेरिवेटिव्स या उनमें हुए बड़े घाटे के खुलासे से भी कोई लेना देना नहीं है।
दूसरी ओर अनुसूची 6 में निर्माण या कारोबार में आई प्रत्येक महत्वपूर्ण वस्तु की सूची, क्षमता, निर्माण और कारोबार के बारे में विस्तृत जानकारी देनी पड़ती है। दुनिया भर में किसी भी कानून में इसकी जानकारी नहीं मांगी जाती और वैश्विक प्रतियोगियों से मुकाबले में भारतीय उद्योग के लिए यह बिल्कुल बेकार है क्योंकि इसमें भारत में कारोबार कर रही कंपनियों को परिचालन से संबंधित अपने गोपनीय आंकड़ों का खुलासा करना पड़ता है।
इन जानकारियों को मंगाने का प्रावधान दरअसल ‘लाइसेंस राज’ में किया गया था और आज जब सेगमेंट रिपोर्टिंग के आंकड़े मौजूद हैं, तो इसका कोई भी इस्तेमाल नहीं है। इसी तरह आंकड़ों के खुलासे में भी ज्यादती की जाती है। इनमें बकाया या सौदों, संबंधित पक्षों के बारे में जानकारी मांगी जाती है, जबकि इस जानकारी के लिए लेखा मानकों के मुताबिक और दुनिया भर में इस्तेमाल होने वाले समानांतर और ज्यादा प्रभावी प्रारूप हैं।
अनुसूची 6 में काफी घालमेल भी है, जैसे आयात के सीआईएफ मूल्य और विदेशी मुद्रा में आय और व्यय की जानकारी देना इसमें जरूरी है। ये 1960 और 70 के दशक की असुरक्षित विदेशी मुद्रा वाले दिनों के अवशेष ही तो हैं। जहां एक ओर एमसीए अनुसूची 6 को नए सिरे से लाने की कोशिश कर रहा है, वहीं देश में मानक निर्धारित करने की प्रक्रिया में जटिलता और भ्रम भी बढ़ते जा रहे हैं।
आईसीएआई का लेखा मानक बोर्ड मानक तय कर रहा है, राष्ट्रीय लेखा मानक सलाहकार समिति मानकों पर विचार कर रही है और उन पर अधिसूचना जारी कर रही है, एमसीए उन नियमों की अधिसूचना जारी कर रहा है, जो अनुसूची 6 से बिल्कुल विपरीत हैं, मसलन लेखा मानक नियम 2000। मंत्रालय एक कानून से भी बड़ा नियम बनाकर वैधानिक टकराव पैदा कर रहा है।
भारतीय रिजर्व बैंक प्रावधान और आय के बारे में दिशानिर्देश जारी कर रहा है, सेबी अंतरिम और वार्षिक नतीजों के प्रस्तुतिकरण और खुलासे के लिए प्रारूप अनिवार्य बना रहा है और आईसीएआई कुछ घोषणाएं करने में व्यस्त है, जिनसे लेखा पर तो असर पड़ता है, लेकिन इसके लिए मानक तय करने की बेहतर प्रक्रिया तैयार नहीं की जा रही है।
अगर एमसीए वास्तव में लेखा और पारदर्शिता की अंतरराष्ट्रीय स्तर की प्रणाली लागू करना चाहता है, तो उसे प्रस्तुतिकरण और खुलासे से संबंधित मानकों को कानून की शक्ल देने में अपना समय बर्बाद नहीं करना चाहिए। इसके बजाय उसे कंपनी अधिनियम की अनुसूची 6 और बैंकिंग नियमन अधिनियम की तीसरी अनुसूची को खत्म कर देना चाहिए।
एमसीए को मानक निर्धारण की प्रक्रिया के लिए कठोर कानून तैयार करने चाहिए, ताकि निश्चित मानक निर्धारकों को आजादी भी मिले और वे पेशेवर भी बनें। इसके अलावा इससे देश में लेखा मानकों में एकरूपता भी आएगी और वे अंतरराष्ट्रीय मानकों के समकक्ष हो जाएंगे। यही समय है, जब हम सभी को एक ही भाषा में बोलना चाहिए। यही समय है, जब अनुसूची 6 को सम्मानजनक विदाई देनी चाहिए।
(इस आलेख में प्रस्तुत विचार लेखक के निजी विचार हैं और अर्न्स्ट ऐंड यंग ग्लोबल या उसकी किसी सहायक फर्म के भी ऐसे ही विचार होना आवश्यक नहीं है।)