अक्सर हमारे बड़े-बुजुर्ग अपने जमाने के नाम पर महंगाई को यह कह कर कोसते मिल ही जाते हैं कि हमारी तनख्वाह तो महज 100 या 200 रुपये महीना थी और चीजें उस समय कितनी सस्ती थीं।
इस अनोखे दौर को देखकर अब शायद वह और हैरान होंगे कि चंद महीनों में अचानक किस कदर चीजों के दाम बढ़ रहे हैं। जाहिर है, महंगाई की आर्थिक परिभाषा से वे ही नहीं, हमारे देश के अधिकतर लोग वाकिफ नहीं होंगे। ज्यादातर आम लोग तो बस इतना ही जानते हैं कि कीमतों में आग लगी हुई है और कारोबारी इस बात से परेशान हैं कि कीमतों के बढ़ने से ग्राहक गधे के सिर से सींग की तरह गायब हो रहे हैं।
लिहाजा, व्यापार गोष्ठी के मंच से बिानेस स्टैंडर्ड ने न सिर्फ महंगाई की समस्या की जड़ों तक पहुंचने की कोशिश की है बल्कि इसके जरिए देशभर से अपने पाठकों और दो विशेषज्ञों से रायशुमारी करके इस मुद्दे पर गंभीर और बौध्दिक बहस भी छेड़ी।
इस कोशिश के बेहद उत्साहजनक नतीजे मिले। जहां एक ओर कई कारोबारियों ने इसके लिए सरकारी नीतियों और अदूरदर्शिता को जिम्मेदार ठहराया, वहीं विभिन्न तबकों से मिले पत्रों में लोगों ने इसकी मार से हो रहे क्षेत्रवार नुकसान का ब्यौरा भेजा। बड़ी तादाद में लोगों से मिली इन प्रतिक्रियाओं की वजह भी साफ है।
जो महंगाई दर 2005-06 में 4 फीसदी पर थी, महज दो सालों के अरसे में छलांग मारकर सात फीसदी तक पहुंच चुकी है। आंकड़ों की इस बाजीगरी को जनता और आम कारोबारी भले ही न समझते हों लेकिन इतना तो हर किसी की समझ में आ रहा है कि कमोबेश हर चीज की कीमतों में आग लगी हुई है और बढ़ती लागत के कारण कारोबार करना दिन-ब-दिन टेढ़ी खीर होता जा रहा है।
उन्हें हैरत इस बात पर भी है कि आखिर सरकार इस महंगाई पर लगाम क्यों नहीं लगा पा रही और इन हालात के पैदा होने की असल वजहें क्या हैं। कइयों ने तो इसके पीछे गहरी साजिश की बू तक सूंघने में गुरेज नहीं किया। और गुरेज हो भी क्यों, जब सरकारी नुमाइंदे के तौर पर महंगाई की रफ्तार को काबू में रखने की रिजर्व बैंक की हर कवायद नाकाम हो गई हो।
चाहे वह मौद्रिक तरलता को नियंत्रित करने के लिए शुरू की गई मार्केट स्टैबलाइजेशन स्कीम (एमएसएस) हो या फिर ब्याज पर अंकुश के लिए रेपो दर अथवा अधिक नकदी की आपूर्ति को रोकने के लिए सीआरआर दर बढ़ाना हो। अब इसे नाकामी से उपजी बौखलाहट समझिए या फिर से देर से जागने की सरकारी आदत के नतीजे, कड़े कदमों की सुगबुगाहट एक बार फिर तेज हो गई है, जबकि पानी सिर से ऊपर जा चुका है।
बहरहाल, महंगाई की वजहों को लेकर विशेषज्ञों की आम राय तो यही होती है कि किसी देश में ये मुद्रा की अधिक आपूर्ति या वस्तुओं की मांग-आपूर्ति के बीच पनपते असंतुलन की ही देन होती है। लेकिन भारत में सुरसा की तरह मुंह फाड़ती महंगाई के पीछे घरेलू ही नहीं, अंतरराष्ट्रीय बाजार के कारक भी जिम्मेदार हैं। लिहाजा इससे निबटने के लिए आनन-फानन में कड़े कदमों को उठाने की बजाय गहन विचार-विमर्श के बाद दूरदर्शी फैसलों को लिए जाने की जरूरत है।
ताकि जो हालात पैदा हुए हैं, भविष्य में ये दोबारा न हों और मौजूदा हालात पर जल्द से जल्द काबू पाया जा सके। इसी उद्देश्य के साथ और इस मसले की गंभीरता को समझते हुए व्यापार गोष्ठी नाम से शुरू की गई विचार-विमर्श की इस श्रृंखला के तहत बिानेस स्टैंडर्ड ने पहली कड़ी का विषय कारोबार पर महंगाई की मार को ही लिया है।