ब्रितानी मूल के एक पश्तून कई दशकों से अफगानिस्तान और उसके आसपास के क्षेत्रों में रहे हैं। वेस्टइंडीज में जन्मे और ब्रिटेन में पढ़ाई करने के बाद अफगानिस्तान में जॉन बट के सफर की शुरुआत बतौर तालिब (धार्मिक छात्र) हुई और फिर यहां एक पत्रकार और रेडियो प्रसारक की भूमिका में उनका व्यापक अनुभव रहा है। 1990 के दशक में, बीबीसी अफगान एजुकेशन ड्रामा प्रोजेक्ट के प्रमुख के रूप में बट का संपर्क 1990 के दशक में बनी तालिबान सरकार के नेताओं के साथ रहा है। ‘ए तालिब्स टेल’ के लेखक ने शिखा शालिनी को बताया कि बाहरी दुनिया के पास तालिबान को मौका देने के अलावा कोई चारा नहीं है।
कहा जा रहा है कि तालिबान अपनी छवि सुधारने की कोशिश कर रहा है, ऐसे में महिलाओं, अल्पसंख्यकों, विभिन्न जातीय समूहों, मानवाधिकार आदि के प्रति तालिबान की नई सरकार का नजरिया कैसा रहने वाला है?
अभी ये शुरुआती दिन हैं। तालिबान के प्रवक्ता जबिहुल्लाह मुजाहिद आजकल संवाददाता सम्मेलनों में जो कुछ कह रहे हैं हमें उसे मानना ही होगा। ऐसा लगता है कि तालिबान सही आश्वासन दे रहा है। वे मुख्य रूप से पख्तून आंदोलन से संबद्ध रहे हैं। उनकी जड़ें अफगानिस्तान के ग्रामीण इलाकों से जुड़ी हैं और उनका ताल्लुक धार्मिक मदरसों से रहा है। ऐसे में शहरी अमीर वर्ग और कुछ अन्य जातीय समूहों की तुलना में उनका एक रूढि़वादी दृष्टिकोण जरूर है। लेकिन बाहरी दुनिया के पास उन्हें मौका देने के सिवा कोई चारा नहीं है।
तालिबान की नई सरकार में कौन-कौन से लोग मुख्य भूमिका में होंगे?
तालिबान के प्रमुख धार्मिक नेता मुल्ला हैबत-उल्लाह अखुंदजादा हैं, जिन्हें तालिबान के अफगानिस्तान पर कब्जा किए जाने के बाद से कहीं न तो देखा गया है और न ही उन्हें कुछ बोलते हुए सुना गया है। उन्हें एक उलेमा (विद्वान व्यक्ति) का दर्जा हासिल है और वह न तो कभी सेना से जुड़े और न ही सक्रिय राजनेता हैं बल्कि वह एक न्यायविद हैं। कुछ रिपोर्ट से यह संकेत मिलता है कि वह पाकिस्तान की हिरासत में हो सकते हैं। लेकिन मुमकिन है कि वह खुद को सुर्खियों से दूर रखना चाहते हों। उनके अलावा तालिबान में अन्य प्रमुख हस्ती मुल्ला अब्दुल गनी बरादर हैं। उन्हें अमेरिका के अनुरोध पर 2018 में पाकिस्तान की हिरासत से रिहा किया गया था ताकि वह कतर में चल रही शांति प्रक्रिया में हिस्सा ले सकें। बरादर इस समय काबुल में हैं और भावी सरकार से जुड़ी चर्चा में मसरूफ हैं।
बरादर काबुल के धार्मिक परिषद, शुरा के प्रमुख हो सकते हैं जो सरकार चलाएगी। वहीं अखुंदजादा भी अफगानिस्तान के सियासी फलक पर फिर से उभरेंगे, मुमकिन है कि वह कंधार में मुल्ला उमर जैसी हस्ती की तरह ही एक आध्यात्मिक शख्स के तौर पर नजर आएं। अखुंदजादा वर्षों से निर्णायक कदम उठाने वाली शख्सियत के रूप में खुद को पेश करते रहे हैं, ऐसे में वह इस तरह की भूमिका में बेहद मुफीद होंगे। बरादर और अखुंदजादा दोनों ही 1994 में कंधार तालिबान के संस्थापक सदस्य हैं इसीलिए इस अभियान से उनकी जड़ें गहरी जुड़ी हुई हैं।
अफगानिस्तान में मौजूदा हालात से जुड़ी जो खबरें आ रही हैं क्या ये तालिबानी कमांडरों और प्रशासकों के विचारों के अनुरूप ही हैं?
मीडिया में जो तस्वीर पेश की जा रही है, उसका जमीनी हालात से कोई लेना-देना नहीं है। अब तक मीडिया का पूरा ध्यान काबुल हवाई अड्डे तक ही सीमित रहा। निश्चित तौर पर वहां बड़ी संकट वाली स्थिति देखने को मिली क्योंकि लोग किसी भावी खतरे की आशंका की वजह से भागने की कोशिश कर रहे थे। कई लोगों के लिए तो यह पश्चिमी देशों में जाने का सुनहरा मौका भी था। अफगानिस्तान में किसी को किसी बात का यकीन तब तक नहीं करना चाहिए जब तक किसी ने अपनी आंखों से कुछ ऐसा न देखा हो।
अर्थव्यवस्था की खराब हालत की वजह से कैसे बदलाव दिख सकते हैं क्योंकि अफगानिस्तान को जो विदेशी मदद मिलती थी अब वह खत्म हो गई है जो इस देश के बजट का करीब 60 फीसदी हिस्सा है?
मुझे लगता है कि ब्रिटेन के विदेश मंत्री डेविड मिलिबैंड ने इस सवाल का बेहतर जवाब हाल में ‘दि गार्डियन’ के एक लेख में दिया है। एक तरफ अफगानिस्तान की मदद के लिए फंड पर रोक लगाकर अफगानियों की मुश्किलें बढ़ाना और दूसरी तरफ हजारों लोगों को अफगानिस्तान से ले जाकर पश्चिमी देशों में आराम की जिंदगी जीने का विकल्प देना, दोनों ही विरोधाभासी बातें हैं और यह उचित नहीं है।
अफगानिस्तान अस्थिर है लेकिन इसके बहुमूल्य खनिज भंडार आकर्षण का केंद्र हैं, ऐसे में कौन से देश इस पर अपना दबदबा बनाने की कोशिश कर सकते हैं?
रूस और चीन तालिबान के साथ संबंध बनाने का संकेत दे रहे हैं। रूस ने अपना दूतावास खुला रखा है। चीन, ईरान, और तुर्की के दूतावास भी अफगानिस्तान में खुले हैं। भारत, अफगानिस्तान की पूर्व सरकार के मुख्य दानदाताओं में से एक रहा है लेकिन तालिबान द्वारा भारत के दूतावास को पूर्ण सुरक्षा के आश्वासन के बावजूद भारत ने अपने दूतावास के कर्मचारियों को अफगानिस्तान से वापस बुलाने का फैसला किया है। मुझे उम्मीद है कि भारत, अफगानिस्तान को लेकर नाउम्मीद नहीं होगा। अफगानिस्तान में हर तरफ भारत के प्रति अधिक सद्भावना है।
तालिबान संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के प्रतिबंधों से कैसे निपटेंगे?
अफगानिस्तान बेहद मुश्किल दौर से गुजर रहा है। वहां मानवीय संकट है और साथ ही इस देश को प्रतिबंधों से भी निपटना है। एक तरफ पश्चिमी देश उन अफगानियों को बचाना चाहते हैं जो तालिबान के डर से भागना चाहते हैं वहीं दूसरी ओर, वे अफ गानिस्तान में मौजूद अफगानियों को प्रतिबंधों के जरिये मुश्किलों में भी डाल रहे हैं। मिलिबैंड की मानें तो बाहरी दुनिया को तालिबान के साथ जुडऩा चाहिए। इनका बहिष्कार पिछली बार भी कारगर नहीं रहा था और इस बार भी यह कारगर नहीं होगा।
आप शांतिपूर्ण इस्लाम के हिमायती रहे हैं जिसकी वजह से इस क्षेत्र के चरमपंथियों के साथ आपका टकराव भी रहा है ऐसे में आप अपने सफर को किस तरह देखते हैं?
मैं अफगानिस्तान के एक बार फिर से चरमपंथियों के लिए सुरक्षित पनाहगाह बन जाने के खतरों से अच्छी तरह वाकिफ हूं लेकिन मैं चीजों को दूसरी तरह से देखना पसंद करता हूं। देखा जाए तो अब यहां हिंसक उग्रवाद को हमेशा के लिए खत्म करने का एक अवसर भी मिला है। अगर तालिबान जैसी इस्लामिक सरकार निर्विवाद रूप से इस पर अपना पक्ष स्पष्ट करते हुए हिंसक चरमपंथ को ना कहती है तो किसी के लिए भी तालिबान को खारिज करना मुश्किल होगा।