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सुगम आवाजाही का वादा सिर्फ कागजों में, ट्रैफिक और धुंध में फंसी दिल्ली की जनता

मेट्रो की चमक के बावजूद डीटीसी बसों की कमी, कनेक्टिविटी की खामियां और प्रदूषण ने राजधानी के यात्रियों की परेशानी बढ़ाई

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ध्रुवाक्ष साहा   
शिवा राजौरा   
Last Updated- November 12, 2025 | 9:57 PM IST

दिल्ली की सड़कों पर सुबह-सवेरे काम पर जाने वालों की भाग-दौड़ है। इंजीनियरिंग कॉलेज से हाल में स्नातक 22 वर्षीय अविनाश सिंह बस स्टॉप पर खड़े होकर बेसब्री से दिल्ली परिवहन निगम (डीटीसी) की बस का इंतजार कर रहे हैं। बस के समय पर नहीं आने से वह थोड़े बेचैन दिख रहे थे।

उन्होंने कहा, ‘मैं कितनी भी जल्दी निकलूं, मुझे देर होना तय है। रोज का यही हाल है। बस को आने में 20 से 30 मिनट लगते हैं और फिर हम ट्रैफिक में फंस जाते हैं। मैं कैब या ऑटो रिक्शा नहीं ले सकता। डीटीसी ही मेरे आने-जाने का साधन है।’ दक्षिण-पश्चिम दिल्ली के कापसहेड़ा बस स्टैंड पर उनके जैसे यात्रियों को खतरनाक हवा और खराब सार्वजनिक परिवहन का दोहरा बोझ झेलना पड़ता है।

मध्य दिल्ली के एक दफ्तर में क्लर्क 58 वर्षीय अमित यादव के लिए सार्वजनिक बस सेवा ही मजबूरी है। वे कहते हैं, ‘पहले, बाहरी इलाकों के लिए ब्लू लाइन (प्राइवेट) बसें थीं। अब वे नहीं चलतीं और सरकारी बसों के फेरे बहुत कम हैं। सरकार का सारा ध्यान मेट्रो पर है, जो हमारे लिए फायदे की नहीं है। गांव मेट्रो स्टेशनों से बहुत दूर है।’

राष्ट्रीय सां​ख्यिकी कार्यालय (एनएसओ) के आंकड़े बताते हैं कि भारतीय परिवार खाने-पीने के बाद दूसरा सबसे बड़ा खर्च परिवहन पर ही करते हैं। शहरी क्षेत्रों में परिवहन पर खर्च 2011-12 के 6.5 फीसदी (171 रुपये) से बढ़कर 2023-24 में 8.5 फीसदी (592 रुपये) हो गया। ग्रामीण परिवारों में यह खर्च 4.2 फीसदी (60 रुपये) से बढ़कर 7.6 फीसदी (312 रुपये) हो गया। दिल्ली में शहरी परिवारों ने इस दौरान अपने मासिक बजट का 8.2 फीसदी (698 रुपये) आवागमन पर खर्च किया।

बस स्टॉप पर पीछे छूटे

दिल्ली मेट्रो को बुनियादी ढांचे में भारत की सबसे बड़ी सफलता माना जाता है। मगर दिल्ली के बाहरी या दूर-दराज के इलाकों में यात्रियों को लगता है कि दो दशक पहले शुरू हुई इस क्रांति ने उन्हें समय में अटके प्लेटफॉर्म पर फंसा दिया है। कापसहेड़ा में 44 वर्षीय राम सरोज कहते हैं कि मेट्रो पास के द्वारका में तो दो दशक पहले ही आ चुकी है मगर गुरुग्राम जाना अब भी दूभर होता है। वह व्यंग्य में कहते हैं, ‘दोनों इलाके अ​धिक दूर नहीं हैं। हजारों लोग रोजाना यहां से गुरुग्राम आते-जाते हैं। मगर दे​खिए सरकार का कितना ध्यान है।’

एनएसओ का आंकड़ा बताता है कि वित्त वर्ष 2024 में ग्रामीण दिल्ली के परिवारों ने शहरी परिवारों (8.2 फीसदी खर्च) की तुलना में परिवहन पर अधिक (9.5 फीसदी) खर्च किया। परिवहन की समस्या केवल उपनगरों तक ही सीमित नहीं है, शहर के भीतर भी यह चिंता का विषय बना हुआ है।

महिलाओं को सुरक्षा की चिंता भी सताती है। 21 वर्षीय रोशनी महिलाओं के लिए बसों में मुफ्त यात्रा के बावजूद भीड़भाड़ वाली बसों से बचती हैं और लंबी दूरी तय करते हुए मेट्रो से जाना पसंद करती हैं। सुरक्षा की फिक्र इसकी वजह है।

द इन्फ्राविजन फाउंडेशन के सीईओ जगन शाह ने कहा, ‘सुलभ यातायात न होने पर कार्यबल में महिलाओं की भागीदारी कम हो सकती है। दफ्तर तक सुरक्षित पहुंचने में यातायात की अहम भूमिका है।’ दिव्यांगजनों के लिए यह चुनौती और भी कठिन है। शहरी नियोजन विशेषज्ञ आर. श्रीनिवास के अनुसार दिव्यांगों के लिए केवल 6 फीसदी सार्वजनिक परिवहन ही सुलभ है।

निजी वाहन, सार्वजनिक बोझ

पिछले तीन दशक में दिल्ली में निजी वाहनों की बाढ़ आ गई है जिससे भीड़भाड़ और प्रदूषण बढ़ गया है। दिल्ली सरकार की वित्त वर्ष 2024 की आ​र्थिक समीक्षा में कहा गया है कि अंतिम छोर तक कनेक्टिविटी अच्छी नहीं होने के कारण नागरिक सार्वजनिक परिवहन से बचते हैं।

समीक्षा में कहा गया है, ‘निजी कारों और दोपहिया के बढ़ते उपयोग से वायु गुणवत्ता और यातायात सुरक्षा में भारी गिरावट आई है। शहर के कई शहरी क्षेत्रों में सड़कों पर भीड़भाड़ काफी बढ़ गई है और दिल्ली पहले से ही ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन का भारत का सबसे बड़ा उत्पादक है।’सार्वजनिक परिवहन जनसंख्या वृद्धि से पीछे रह गया है। दिल्ली में रोजाना 42 लाख यात्रियों को ढोने केवल 7,100 बस उतरती हैं। पेइचिंग में आबादी इससे कम है मगर वहां 27,000 से अधिक बसें चलती हैं।

देर डिपो के कारण भी होती है। सीमापुरी बस डिपो में संकरी सड़कें, ई-रिक्शा की भीड़भाड़ और क्रॉस-ट्रैफिक से बसों को 15 मिनट या उससे अधिक समय तक रुकना पड़ता है। डिपो के एक कर्मचारी ने कहा, ‘अधिकतर बसें आनंद विहार या मेरठ एक्सप्रेसवे की ओर जाती हैं लेकिन वह डिपो की लेन की विपरीत दिशा में है इसलिए लगभग हर बस इस संकरी सड़क पर यू-टर्न लेने की कोशिश में ट्रैफिक जाम करती है।’

नीतिगत पंगुता

परिवहन विभाग के एक वरिष्ठ अ​धिकारी ने मजाकिया लहजे में कहा, ‘दिल्ली के हर अफसरशाह को एक मर्सिडीज दे दो, लेकिन ड्राइवर नहीं। शायद तब उन्हें मोबिलिटी की समस्या समझ आएगी।’

भारत के नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (सीएजी) के ऑडिट में डीटीसी के बेड़े में कमी देखी गई है। डीटीसी बसों की संख्या 2015 में 4,344 थी जो घटकर 2022 में 3,937 रह गई जबकि खरीद के लिए पर्याप्त धन उपलब्ध है।

परफॉर्मेंस ऑडिट में पाया गया कि पिछले 10 साल में डीसीटी अपने बेड़े में नई बसें (मार्च 2022 में 2 इलेक्ट्रिक बसों और मार्च 2022 के बाद नवंबर 2022 तक 298 बसों को छोड़कर) शामिल करने में विफल रहा।’

डीटीसी के प्रबंध निदेशक जितेंद्र यादव ने कहा, ‘हम इस साल 3,000 बसें खरीद रहे हैं और अगले साल भी इतनी ही बसें खरीदने की योजना है। साल 2029 तक दिल्ली में 11,000 ई-बसें होंगी।’

मेट्रो: इंजीनियरिंग का चमत्कार

दिल्ली मेट्रो शानदार है मगर वहां तक पहुंचना अब भी मुश्किल है। एक परिवहन अधिकारी ने कहा, ‘सुविधा के लिहाज से मेट्रो शीर्ष अंतरराष्ट्रीय प्रणालियों के मुकाबले शहर के बहुत कम हिस्से में है।’

अब मेट्रो के चौथे चरण के नेटवर्क का विस्तार 65 किलोमीटर तक किया जाएगा। साथ ही दिल्ली मेट्रो रेल कॉर्पोरेशन (डीएमआरसी) दूर-दराज के इलाकों तक बेहतर कनेक्टिविटी के लिए शटल बसों और साझेदारियों की संभावनाएं भी तलाश रही है। मेट्रो का किराया हाल ही में बढ़ाया गया है। मगर एक शहरी नियोजन विशेषज्ञ का कहना है, ‘परिवहन निगम अपनी खरीदी गई बसों के लिए यात्रियों से कोई शुल्क नहीं लेते हैं। तो फिर मेट्रो जीका का कर्ज निपटाने के लिए यात्रियों से शुल्क क्यों लेती है?

दुनिया भर में मेट्रो एजेंसियां इसके बजाय भूमि मूल्य अधिग्रहण के जरिये निवेश की वसूली करती हैं।’ इस संबंध में जानकारी के लिए डीएमआरसी को भेजे गए सवालों का खबर लिखे जाने तक कोई जवाब नहीं मिला।

First Published : November 12, 2025 | 9:52 PM IST