भारतीय जेल हमेशा खचाखच भरे होने के लिए जाने जाते हैं। उनकी स्थिति और भी बदतर हो रही है। कुछ जेलों में तो अब क्षमता से दोगुना अधिक कैदी रखे जा रहे हैं। प्रिजन स्टैटिस्टिक्स इंडिया रिपोर्ट के हालिया आंकड़े दर्शाते हैं कि जेलों की निर्धारित क्षमता के मुकाबले कैदियों की मौजूदगी यानी ऑक्यूपेंसी रेट पिछले पांच वर्षों में बढ़ गए हैं।
नतीजतन, जेल के कैदियों के खर्च में भी 42 फीसदी का इजाफा हुआ है, जो साल 2018-19 के 1,776 करोड़ रुपये से बढ़कर साल 2022-23 में 2,528 करोड़ रुपये हो गया।
कुल मिलाकर जेलों में औसत ऑक्यूपेंसी रेट कैलेंडर वर्ष 2018 के 117.6 फीसदी से बढ़कर 2022 में 131.4 फीसदी हो गई। जिला कारागारों की स्थिति और भी बदतर है, जहां इस अवधि के दौरान ऑक्यूपेंसी रेट 133 फीसदी से बढ़कर 156.5 फीसदी हो गया।
सरकारी आंकड़ों से पता चलता है कि उत्तर प्रदेश के जिला कारागार सबसे ज्यादा भरे हुए है और वहां कैदियों की संख्या साल 2018 के 183 फीसदी से बढ़कर साल 2022 में 207.6 फीसदी हो गई। इसके बाद उत्तराखंड आता है जहां ऑक्यूपेंसी रेट 182.4 फीसदी है। उसके बाद पश्चिम बंगाल (181 फीसदी), मेघालय (167.2 फीसदी), मध्य प्रदेश (163 फीसदी) और जम्मू कश्मीर (159 फीसदी) का स्थान है।
भले ही इन पांच वर्षों में कैदियों की संख्या 23 फीसदी बढ़कर 5,73,000 हो गई मगर जेलों की संख्या 1,339 से घटकर 1,330 हो गई है। जेलों में बंद महज कुछ कैदी ही सजायाफ्ता हैं या जिन्हें दोषी ठहराया गया है। तीन चौथाई या हर दस में से 8 कैदी विचाराधीन हैं। साल 2022 में सरकार ने सभी कैदियों पर 2,528 करोड़ रुपये खर्च किए। उनमें से 1916.5 करोड़ रुपये विचाराधीन कैदियों पर खर्च किए गए थे।
हालांकि, इस बीच सरकार का प्रति कैदी औसत खर्च साल 2018-19 के 38 हजार रुपये से बढ़कर 44,129 रुपये (120 रुपये प्रति दिन) से अधिक हो गया। साल 2022-23 में देश के 12 राज्यों का जेल बजट राष्ट्रीय औसत से अधिक है। आंध्र प्रदेश इसमें सबसे आगे है, जो हर साल एक कैदी पर 2,68,000 रुपये खर्च करता है, जबकि हरियाणा में 160,000 रुपये और दिल्ली में 149,000 रुपये खर्च किए जाते हैं। मिजोरम सरकार सबसे कम 2,000 रुपये खर्च करती है।