राजनीतिक पार्टियों के चंदे के लिए बनाई गई चुनावी बॉन्ड योजना को आज सर्वोच्च न्यायालय ने असंवैधानिक और मनमानी भरी बताते हुए रद्द कर दिया। अदालत ने यह भी कहा कि योजना नागरिकों के सूचना के अधिकार का उल्लंघन करती है। उसने कहा कि इसके कारण नागरिक यह नहीं जान पाते कि किसी पार्टी को चंदा देने के एवज में किसी व्यक्ति या कंपनी को फायदा तो नहीं दिया गया है।
उच्चतम न्यायालय ने कंपनी अधिनियम की धारा 182 में संशोधन को भी असंवैधानिक करार दिया है। इसके तहत कोई भी भारतीय कंपनी किसी भी राजनीतिक पार्टी को चंदे में कितनी भी रकम दे सकती है। अदालत ने चुनावी बॉन्ड जारी करने वाले भारतीय स्टेट बैंक को 12 अप्रैल, 2019 से अब तक खरीदे गए बॉन्डों का पूरा ब्योरा 6 मार्च तक निर्वाचन आयोग को सौंपने का भी निर्देश दिया। न्यायालय के आदेशानुसार निर्वाचन आयोग को चंदा देने वालों के नामों की जानकारी अपनी आधिकारिक वेबसाइट पर 31 मार्च तक प्रकाशित कर देने होंगे।
मुख्य न्यायमूर्ति डीवाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाले पांच न्यायाधीशों के पीठ ने चुनावी बॉन्डों की वैधता को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर सुनवाई के बाद दो हिस्सों में सर्वसम्मति से फैसला सुनाया।
फैसले में कहा गया है कि चुनावी बॉन्ड योजना और उससे पहले जनप्रतिनिधित्व कानून, कंपनी अधिनियम तथा आयकर कानून में किए गए संशोधन नागरिक अधिकारों का उल्लंघन करते हैं। ये संशोधन संविधान के अनुच्छेद19 (1) ए के तहत मतदाताओं को मिले उस अधिकार का उल्लंघन करते हैं, जिसके मुताबिक राजनीतिक दलों को मिलने वाले चंदे की जानकारी मतदाताओं को होनी चाहिए।
अदालत ने कहा कि व्यक्तियों के बजाय कंपनी के चंदे का राजनीतिक प्रक्रिया पर ज्यादा गंभीर प्रभाव पड़ता है। फैसले में कहा गया है, ‘कंपनियों का योगदान खांटी कारोबारी लेनदेन होता है। कंपनी अधिनियम की धारा 182 में संशोधन साफ तौर पर मनमानी है और इसके जरिये कंपनियों तथा व्यक्तियों के चंदे को एक बराबर मान लिया गया है।’
अदालत ने कहा, ‘अधिनियम में संशोधन से पहले घाटे वाली कंपनियां चंदा देने में समर्थ नहीं थीं। संशोधन में इस बात का ध्यान नहीं रखा गया है कि घाटे में चल रही कंपनियां किसी फायदे के बदले चंदा दें तो उसका क्या नुकसान होता है। कंपनी अधिनियम की धारा 182 में संशोधन मनमानी भरा है क्योंकि इसमें घाटे और मुनाफे वाली कंपनियों के बीच फर्क नहीं किया गया है।’
संशोधन के जरिये कंपनियों से चंदे की तय सीमा खत्म कर दी गई। पहले कंपनी अपने शुद्ध मुनाफे का अधिकतम 7.5 फीसदी हिस्सा ही राजनीतिक पार्टियों को चंदे में दे सकती थी। शीर्ष अदालत ने यह सीमा खत्म करने वाला संशोधन भी रद्द कर दिया। अदालत ने भारतीय स्टेट बैंक को ये बॉन्ड जारी करने से भी रोक दिया।
अदालत ने कहा, ‘स्टेट बैंक को चुनावी बॉन्डों के जरिये दिए गए चंदे का विवरण देना होगा और चंदा हासिल करने वाली राजनीतिक पार्टियों का ब्योरा भी देना होगा।’ अदालत ने आदेश दिया कि भारतीय स्टेट बैंक आगे चुनावी बॉन्ड जारी नहीं करेगा और 12 अप्रैल, 2019 से अभी तक खरीदे गए चुनावी बॉन्ड का ब्योरा निर्वाचन आयोग को देगा।
शीर्ष अदालत ने 12 अप्रैल, 2019 को अंतरिम आदेश जारी किया था, जिसमें अभी तक खरीदे गए चुनावी बॉन्ड की पूरी जानकारी सीलबंद लिफाफे में निर्वाचन आयोग को सौंपने का निर्देश दिया गया था। इसमें प्रत्येक बॉन्ड खरीदे जाने की तारीख, बॉन्ड खरीदार का नाम और बॉन्ड की कीमत शामिल है।
अदालत ने आदेश दिया कि 15 दिनों की वैधता अवधि वाले जो चुनावी बॉन्ड अभी तक भुनाए नहीं गए हैं, उन्हें राजनीतिक दल या खरीदार जारीकर्ता बैंक को लौटा देंगे और बदले में रकम खरीदार के खाते में आ जाएगी। न्यायालय के संविधान पीठ ने पिछले साल 2 नवंबर को इस मामले में अपना फैसला सुरक्षित रख लिया था। पीठ में मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ के अलावा न्यायमूर्ति संजीव खन्ना, न्यायमूर्ति बीआर गवई, न्यायमूर्ति जेबी परदीवाला और न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा शामिल हैं।
सरकार ने 2 जनवरी 2018 को यह योजना अधिसूचित की थी। इसे राजनीतिक दलों को मिलने वाली रकम में पारदर्शिता लाने के मकसद से नकद चंदे का विकल्प बनाकर पेश किया गया था। तत्कालीन वित्त मंत्री अरुण जेटली ने वर्ष 2017-18 के केंद्रीय बजट में इसका उल्लेख किया था।
मुख्य न्यायाधीश ने कहा, ‘इस योजना के प्रावधान 7(4) के कारण चुनावी बॉन्ड खरीदारों की जानकारी उजागर नहीं करने की पूरी छूट मिलती है। मतदाताओं को वह जानकारी कभी नहीं दी जाती।’
एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर), मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (माकपा) और डॉ जया ठाकुर ने वित्त अधिनियम 2017 के जरिये किए गए उन संशोधनों को चुनौती दी थी, जिनसे चुनावी बॉन्ड योजना का रास्ता साफ हुआ।
याचियों ने कहा कि चुनावी बॉन्ड खरीदने वाले का नाम उजागर नहीं किए जाने से राजनीतिक चंदे की पारदर्शिता पर असर पड़ता है और मतदाताओं के सूचना के अधिकार का उल्लंघन होता है। उन्होंने तर्क दिया कि इस योजना में मुखौटा कंपनियों के जरिये चंदा देने की अनुमति दी गई है।
सरकार ने इस योजना को सही ठहराते हुए कहा कि इससे सुनिश्चित होता है कि बैंकों के जरिये सफेद धन ही राजनीतिक चंदे में आए। दानकर्ताओं की पहचान को गोपनीय रखना आवश्यक है ताकि कोई राजनीतिक दल बदले की भावना से उनके खिलाफ काम नहीं कर सके।