कपास उत्पादन के लिए मशहूर महाराष्ट्र के विदर्भ क्षेत्र के यवतमाल जिले के कुणबी नेता राजाभाऊ गणेशराव ठाकरे अब अपने राजनीतिक जीवन के आखिरी पड़ाव पर हैं, लेकिन करीब तीन दशक पहले सन 1996 में वह देश भर में सुर्खियों में थे। उस साल के लोक सभा चुनावों में कांग्रेस ने अपने चार बार के सांसद और कुणबी नेता उत्तमराव देवराव पाटिल को दरकिनार करते हुए तत्कालीन केंद्रीय नागर विमानन मंत्री गुलाम नबी आजाद को यवतमाल सीट से चुनावी मैदान में उतारा था।
कांग्रेस को लगा था कि आजाद उस सीट से आसानी से जीत दर्ज कर लेंगे, क्योंकि पार्टी वहां से कभी नहीं हारी थी। मगर भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) ने उसी सीट से ठाकरे को अपना उम्मीदवार बनाया। विदर्भ क्षेत्र में किसानों की प्रमुख जाति कुणबी है और वे परंपरागत तौर पर कांग्रेस के समर्थक माने जाते रहे हैं, लेकिन जब मतगणना के परिणाम सामने आए तो ठाकरे ने आजाद को 38,000 मतों के अंतर से हरा दिया। इस हार के बाद कांग्रेस को सदमा लगा और पार्टी ने अपनी भूल सुधार कर ली। अगली बार कांग्रेस ने दोबारा पाटिल को चुनावी मैदान में उतारा और उन्होंने ठाकरे को हरा दिया।
भाजपा को भी इससे सबक मिला। पार्टी को अहसास हो गया कि मंडल युग में सही जाति संयोजन के साथ वह कांग्रेस के लिए गंभीर चुनौतियां खड़ी सकती है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) की विचारधारा वाले अखबार तरुण भारत के संपादक रहे सुधीर पाठक कहते हैं, ‘भाजपा ने महाराष्ट्र में माली-धनगर-वंजारी (माधव) जातियों के संयोजन पर काम किया।’ भाजपा- शिवसेना (अविभाजित) की रणनीति का एक हिस्सा यह देखना था कि विदर्भ में कांग्रेस के दलित-मुस्लिम-कुणबी समीकरण का कैसे मुकाबला करना है।
भाजपा के सूत्रों के मुताबिक, 1990 के दशक की शुरुआत में श्रीराम जन्मभूमि आंदोलन के जोर पकड़ने के बाद पार्टी में चीजें सही होने लगीं। यह देखकर कि भाजपा तेजी से उभर रही है, कांग्रेस में अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) के नेताओं का एक धड़ा इसमें शामिल होना चाहता था, मगर वे अनिश्चितता की स्थिति में थे, क्योंकि उन्हें लग रहा था कि भाजपा ब्राह्मण और बनियों की पार्टी है। फिर, गोपीनाथ मुंडे और प्रमोद महाजन ने उनका रुख किया और गैर ब्राह्मण रहे बालासाहेब ठाकरे को हिंदुत्ववादी नेता बताते हुए उन्हें शिवसेना में शामिल किया। इस बीच, भाजपा ने चुपचाप गैर कुणबी ओबीसी जातियों को गोलबंद करना शुरू किया।
कुणबी मतदाताओं को लुभाने के लिए जहां भी कांग्रेस ने महार (प्रमुख अनुसूचित जाति जिससे बाबा साहब भीमराव आंबेडकर आते थे) को उम्मीदवार बनाया, भाजपा और शिवसेना ने उससे मुकाबले के लिए गैर प्रमुख अनुसूचित जाति के उम्मीदवार को चुनावी मैदान में खड़ा किया। साल 2014 के लोक सभा चुनावों में भी गैर प्रमुख जातियों को एकजुट करने की रणनीति हावी थी और उस साल भी भाजपा शिवसेना ने क्षेत्र की सभी 10 सीटों पर जीत हासिल की थी। साल 2019 के चुनावों में भी इस गठबंधन ने दो को छोड़कर अन्य सभी सीटों पर जीत हासिल की।
साल 2024 में विदर्भ में चीजें उलट गईं, साल 2014 और 2019 के लोक सभा चुनावों में भाजपा को बड़ी जीत दिलाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले इस क्षेत्र में साल 2024 के चुनावों में भाजपा नीत गठबंधन (महायुति) 10 में से सिर्फ तीन सीट ही जीत सका। पाठक कहते हैं, ‘ संविधान को लेकर विपक्षी दलों द्वारा पैदा किए गए माहौल का भाजपा मुकाबला नहीं कर सकी। पार्टी का समर्थन करने वाली कुछ पिछड़ी जातियों ने भी इस बार उनके उम्मीदवारों के पक्ष में मतदान नहीं किया।’
उन्होंने कहा, ‘लोगों को पार्टियों को तोड़ने वाली राजनीति पसंद नहीं आई। आपके पास जब पहले से शिंदे सेना थी तब अजित पवार को रखने की क्या जरूरत थी। विधान सभा चुनावों से पहले भाजपा को इन बातों का ठोस जवाब ढूंढना होगा और अपने संगठन को मजबूत करना होगा।’
सूत्रों के बताया कि वैश्विक महामारी कोविड-19 के बाद से नगर पंचायत और ग्राम पंचायत के चुनाव भी नहीं होने से भाजपा नेता हतोत्साहित महसूस कर रहे हैं, क्योंकि उन्हें लग रहा है कि अफसरशाहों के जरिये ही शासन किया जा रहा है।
महाराष्ट्र कांग्रेस कमेटी के महासचिव देवानंद पवार का कहना है कि उनकी पार्टी इस बार के विधान सभा चुनावों में बड़ी जीत हासिल करेगी। उन्होंने कहा, ‘इस बार के लोक सभा चुनावों में पिछड़े वर्ग, अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के वोटों में कोई विभाजन नहीं हुआ।
इसके अलावा, कई बड़े नेताओं के भाजपा में शामिल हो जाने से कांग्रेस के भीतर कलह भी कम हो गई।’ कांग्रेस नीत गठबंधन महाविकास आघाड़ी (एमवीए) ने महाराष्ट्र में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजातियों के लिए आरक्षित सभी नौ सीटों में से आठ सीट पर जीत दर्ज की है। साल 2019 के लोक सभा चुनावों में ये आठ सीटें भाजपा ने जीती थीं। उससे पहले साल 2014 के चुनावों में भाजपा सभी नौ सीट पर विजयी रही थी।
अगर दलित-मुस्लिम-कुणबी समीकरण ने विदर्भ में महायुति की नाव को हिलाया, तो मराठा-मुस्लिम-दलित समीकरण पूरे महाराष्ट्र में ऐसा करेगा। मराठा आरक्षण का प्रमुख केंद्र रहे मराठवाड़ा में प्रमुख मराठा समुदाय ने निर्णायक तौर पर भाजपा के उम्मीदवार के पक्ष में मतदान नहीं किया। चुनावी जानकार शांतनु लमधडे कहते हैं, ‘मराठा बनाम मराठा की लड़ाई में मराठों ने महायुति के खिलाफ मतदान किया। भाजपा नीत गठबंधन मराठवाड़ा में बस उसी एक सीट से जीत सका, जहां से महाविकास आघाडी ने गैर मराठा उम्मीदवार खड़ा किया था।’
निर्वाचन आयोग की वेबसाइट पर विजयी उम्मीदवारों का जातिवार विवरण का पता नहीं चलता है, मगर स्वतंत्र सूत्रों द्वारा जुटाए गए आंकड़ों से जानकारी मिलती है कि कम से कम 28 मराठा अथवा मराठा-कुणबी उम्मीदवार और अति पिछड़ा वर्ग से आने वाले सात उम्मीदवारों ने इस बार जीत दर्ज की है।
अजिंक्य डीवाई पाटिल विश्वविद्यालय, पुणे में राजनीति विज्ञान के प्रोफेसर केदार नाइक कहते हैं कि महाराष्ट्र में हमेशा कांग्रेसियों के लिए थोड़ी सहानुभूति रहती है।
भाजपा नीत गठबंधन के लिए विधान सभा चुनावों की राह कठिन बताने वाले नाइक ने कहा, ‘मराठा आंदोलन ने भाजपा को प्रभावित किया है।
अप्रत्याशित संख्या में मराठा उम्मीदवारों ने जीत हासिल की है। मराठाओं के पास सिर्फ बाहुबल ही नहीं है बल्कि वे चीनी कारखानों, कृषि उपज विपणन समितियों और शिक्षण संस्थानों तक फैले हैं। कुछ अति पिछड़ी जातियों को इसके साथ सहयोग करना होगा।
यहां तक कि राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री अशोक चव्हाण जैसे दिग्गज मराठा नेता भी भाजपा के साथ जाने पर नहीं बच पाए।’ नाइक ने कहा, ‘भाजपा गठबंधन को मराठा आरक्षण मुद्दे को कुशलता से संभालने की जरूरत है और इसके मूल कारण यानी कृषि संकट को दूर करना होगा। ‘