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योजनाओं में बदलाव का क्या होगा नतीजा?

Last Updated- December 09, 2022 | 11:36 PM IST

पिछले एक साल से म्युचुचल फंड उद्योग गंभीर किस्म की मुश्किलों के दौर से गुजर रहा है। इसकी वजह गिरते शेयर बाजर और डेट योजनाओं के लिए सख्त दिशानिर्देश हैं।


इस कारण कई फंड कंपनियां कुछ ऐसे बदलाव लागू करने पर मजबूर हुई हैं जिससे उनको ज्यादा पैसा जुटाने में मदद मिले, साथ ही वे ऐसे कदम भी उठा रही हैं जिससे कि निवेशक फंड से जल्दी-जल्दी पैसा न निकालें।

पिछले साल जनवरी में भारतीय प्रतिभूति एवं विनिमय बोर्ड (सेबी) ने किसी योजना में सीधे निवेश करनवोलों के लिए प्रवेश शुल्क (इक्विटी योजनाओं के लिए 2.5 फीसदी) हटा दिया था। इस साल जनवरी में लिक्विड फंडों की निवेश रणनीति के नियमन के लिए दिशानिर्देश जारी किए गए हैं।

फिक्स्ड मैच्योरिटी प्लान (एफएमपी) पिछले साल तक ठीक-ठाक प्रदर्शन कर रहे थे पर अब उनको भी शेयर बाजारों में सूचीबध्द कराना होगा। जहां म्युचुअल फंड अपनी नीति में किसी बदलाव के बारे में मेल या अखबारों में विज्ञापन देकर जानकारी देते हैं वहीं कई निवेशक ऐसे भी जो इनको नजरअंदाज कर देते हैं।

आइए, हम यहां ऐसे ही कुछ बदलाव के बारे में चर्चा करते है कि कैसे इनसे निवेश संबंधी फैसलों पर असर पड़ेगा।

न्यूनतम निवेश में कमी

पिछले कुछ लंबे समय से म्युचुअल फंडों में निवेश किया जाना एक बडा सौदा समझा जाता था क्योंकि इसमें निवेश की सीमा काफी ज्यादा थी। छोटे निवेशकों को ध्यान में रखकर ऐसी योजनाओं का पता लगाना बहुत आसान हो था ।

जिसमें  5,000- 10,000 न्यूनतम निवेश की आवश्यकता होती थी । कुछ विश्ष्टि फंड जैसे सेक्टर और थीम फंड में न्यूनतम निवेश की सीमा 25,000 रुपये तक थी।

कई ऐसी योजनाएं हैं जो सिर्फ बड़े निवेशकों के लिए ही हैं या फिर संस्थागत निवेशकों के लिए हैं जहां पर निवेश की शुरुआत ही छह अंकों से होती है और यह एक लाख, दस लाख या फिर एक करोड तक हो सकती है।

हाल में डेट म्युचुअल फंड ने न्यूनतम निवेश की सीमा में कुछ हजार रुपयों की कमी की है जिससे न्यूनतम निवेश की आवश्यकता में 70-90 फीसदी तक की कमी आई है। इस तरह की कमी करने के बाद ऐसी योजनाएं निवेशकों के लिए बहुत हद तक दोस्ताना हो गई है।

हालांकि निश्चित तौर पर यह एक अच्छी बात है लेनिक फिर भी निवेश्कों को ऐसी योजनाओं में निवेश से बचना चाहिए जिसमें शुरु आती तौर पर अपेक्षाकृम कम निवेश करना पडता है।

कई ऐसे अवसर होते हैं जब बड़े निवेशक अंदर-बाहर करते हैं जिससे फंड कंपनियां प्रतिभूतियों की बिकवाली बिना सोचे- समझे करने लगते हैं।

इससे योजनाओं की कुल परिसंपत्ति को खासा नुकसान उठाना पड़ता है।ऐसे निवेशक जो इन छोटी योजनाओं के हिस्से होते हैं, अचानक वे पाते हैं कि उनकेनिवेश की कीमत में काफी तेज गिरावट आ गई है।

निकासी प्रभार में बढ़ोतरी

बहुत सारी फंड कंपनियों ने अपनी इक्विटी योजनाओं के निकासी प्रभार (एक्जिट प्रभार) को बढाने का रास्ता अपना लिया है। इससे पहले अधिकांश फंड पर 0.5 फीसदी का एक्जिट प्रभार लगता था जबकि अब यह बढ़कर 1 फीसदी तक हो गया है।

कई मामलों में तो यह 1.5 फीसदी तक भी चला गया है। हालांकि यह वैसे सुनने में बडा भले ही नहीं लगता हो लेकिन गंभीर परिस्थितियों में यह संख्या बहुत महत्वपूर्ण हो जाती है।

पिछले एक सालों के दौरान डाइवर्सिफाइड इक्विटी योजनाओं में औसतन 51 फीसदी तक की गिरावट आ चुकी है जबकि कई इक्विटी योजनाओं का प्रदर्शन तो बहुत बुरा रहा है और इसमें 60-80 फीसदी तक की गिरावट आ चुकी है।

मूल्यों में आई इतनी ज्यादा गिरावट और शेयर बाजार में कारोबार की बुरी स्थिति के कारण पिछले प्रदर्शन को दोहरा पाने के लिए यह जरूरी है कि शेयर की कीमतों में काफी तेजी आए जो कि बाजार की मौजूदा हालत देखकर आसान नहीं लग रहा है।

ऐसी स्थिति में कई निवेशक परिस्थितियों के मुताबिक अपने निवेश निकालते हैं या फिर इसको जारी रखते हैं।  उदाहरण के लिए अगर कोई निवेशक किसी योजना में यूनिट की खरीदारी करता है और कुछ समय बाद यूनिट की कुल परिसंपत्ति की कीमत में गिरावट आनी शुरू हो जाती है।

ऐसी स्थिति में जैसे ही कुल परिसपंत्ति की कीमत थोड़ी सी ऊपर जाती है निवेशक इसकी बिकवाली कर देंगे और फिर जब कुल परिसंपत्ति में गिरावट आएगी वे दोबार इसकी पुनर्खरीद कर लेंगे।

इनसे उन्हें कुछ मुनाफा कमाने का मौका मिलता है जो 8-12 फीसदी के बीच होते हैं और इससे कुछ अन्य नुकसानों की भरपाई हो जाती है।

म्युचुअल फंड, हालांकि फंड की कीमतों में बढ़ोतर कर इस तरह की बातों को रोकने का प्रयास करते हैं। ऐसे हालात में जो निवेशक  उपरोक्त रणनीति को अपनाते हैं उनकेलिए ऐसा करने से पहले फंडों की ऊंची कीमतों की बात दिमाग में रखनी पड़ता है।

इसकी वजह यह है कि अगर छोटी अवधि का कारोबार होता है तो इस हालात में निवेशकों के मुनाफे में बहुत बड़ी सेंध लग सकती है। ऐसे निवेशकों के पास एक ही विकल्प रह जाते हैं, या तो वे ऐसे कदमों को उठाने से परहेज करें या फिर बड़ा मुनाफा होने तक इंतजार करे।

प्रभार की अवधि में बढ़ोतरी

वास्तविक प्रभार के अलावा प्रभार के लागू होने की समयावधि में भी बढ़ोतरी देखने को मिली है। लेकिन इस बार अवधि को बढ़ाकर 12 महीने यहां तक कि 15 महीने तक कर दिया गया है। अवधि को बढ़ाकर 12 महीने तक किए जाने का मतलब निवेशकों के लिए दोहरा  नुकसान हो सकता है।

जहां तक कर की बात है तो निकासी प्रभार के साथ 15 फीसदी के शॉर्ट-टर्म कैपिटल गेन टैक्स की बात  नौबत बनी जाती है जबकि नुकसान की स्थिति में भी प्रभार लागू रहेगा जिससे स्थिति और ज्यादा खराब हो जाती है।

इसके आगे भी अगर एक्जिट प्रभार को अगर बढ़ाकर 15 महीने तक किया जाता है कर प्रक्रिया के साथ असंतुलन की स्थिति पैदा हो जाती है।

मौजूदा समय में अगर कोई इक्विटी योजनाओं से स्वयं को अलग करता है तो फिर दीर्घ अवधि के कैपिटल गैन टैक्स की बात नहीं होती है।

हालांकि 15 महीने की अवधि वाली एक्ज्डि प्रभार स्ट्रक्चर के साथ निवेशकों को कर केन होने की भी स्थिति में भी भुगतान करना पड सकता है।

First Published - February 1, 2009 | 8:49 PM IST

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