प्रतीकात्मक तस्वीर
भारत में 1990 के दशक से नकदी का इस्तेमाल कम बढ़ा है मगर हाल के वर्षों में प्रचलन में नोटों की संख्या बढ़ गई है। कोविड-19 महामारी के दौरान एहतियात के तौर पर लोगों का नकदी रखना इसकी एक प्रमुख वजह है। भारतीय रिजर्व बैंक के मासिक बुलेटिन के अनुसार 2001 में 2.1 लाख करोड़ रुपये की मुद्रा चलन में थी, जो 2024 में बढ़कर 34.8 लाख करोड़ रुपये हो गई है। मगर बुलेटिन में व्यक्त विचार लेखकों के हैं और जरूरी नहीं कि रिजर्व बैंक का भी यही रुख हो।
पिछले 2 दशक से नोटों की मांग काफी बदली है। बैंक शाखाओं और एटीएम नेटवर्क के तेज विस्तार, इंटरनेट इस्तेमाल वाले फोन की पहुंच बढ़ने और भुगतान तथा निपटान व्यवस्था में उल्लेखनीय प्रगति के कारण पिछले दशक में प्रचलन में मुद्रा की सालाना चक्रवृद्धि दर कम रही है।
2004 और 2024 के बीच की अवधि को दस-दस साल में बांटें तो हर दशक में मूल्य के हिसाब से प्रचलन में मुद्रा अधिक रही है मगर नोटों की संख्या के हिसाब से यह कम थी। इससे ज्यादा मू्ल्य की मुद्रा के चलन में वृद्धि के संकेत मिलते हैं।
रिपोर्ट में कहा गया है, ‘2004 से 2024 के बीच 10-10 साल की दो अवधियों में से हरेक में प्रचलन में रहे नोट मूल्य के मामले में अधिक चक्रवृद्धि दर से बढ़े। संख्या में वृद्धि की दर कम रही। इससे पता चलता है कि बड़े नोटों का चलन बढ़ता गया है।’ इसके साथ ही 1994 से 2004 के बीच प्रचलन में मुद्रा की वृद्धि ने जीडीपी वृद्धि दर को पीछे छोड़ दिया था। पिछले दो दशक में यह अंतर उल्लेखनीय रूप से कम हुआ है।
2005 से 2014 के बीच प्रति लाख वयस्कों पर एटीएम की संख्या में नाटकीय वृद्धि हुई है और सालाना चक्रवृद्धि का आंकड़ा 25 प्रतिशत से ऊपर रहा है। साक्ष्यों से यह भी पता चलता है कि इसकी वजह से सामान्य दौर में (उदाहरण के लिए जब कोविड-19 जैसी महामारी नहीं थी) लोग आसानी से एटीएम पर पहुंच सकते थे और कम नकदी रखते थे। इसकी वजह से एहतियातन नकदी रखने की जरूरत घट गई थी।