शेयर बाजार की कीमतें वास्तविक अर्थव्यवस्था का महत्वपूर्ण संकेतक है। साल 2003 और 2008 के दौरान शेयर बाजार में आई तेजी के दौरान इस सच्चाई को समर्थन मिला। शेयर बाजार में तेजी की शुरुआत अप्रैल 2003 में हुई।
एक साल बाद एनडीए सरकार को बहुमत नहीं मिल पाया क्योंकि वास्तविक अर्थव्यवस्था में उतना सुधार नहीं हुआ था जिससे मतदाताओं को भरोसा हो कि ‘भारत चमक रहा था’।
बाजार में गिरावट की शुरुआत जनवरी के उत्तरार्ध्द में हुई। गिरावट की शुरुआत एक बार फिर मंदी के पूर्णत: स्पष्ट होने के छह महीने पहले शुरू हुई।
अगर आप निफ्टी की ऐतिहासिक गतिविधियों को तिमाही दर तिमाही आधार आय में बढ़ोतरी के आधार पर मापें तो इस तरह के महत्वपूर्ण समय गौर करने लायक हैं। बाजार के उतार-चढ़ाव के चक्र में ऐसे महत्वपूर्ण समय भिन्न-भिन्न हैं।
लेकिन, आमतौर पर वास्तविक अर्थव्यवस्था में सुधार से पहले शेयर बाजार में महत्वपूर्ण सुधार होता है। दिलचस्प बात यह है कि शेयर बाजार बॉन्ड बाजार के पीछे चलता है। ऐसा इसलिए क्योंकि बॉन्ड के लाभ वाणिज्यिक ब्याज दरों में बदलाव की संभावना जताते हैं ।
जबकि शेयर बाजार में (लगभग तुरंत ही) वाणिज्यिक दरों में बदलाव पर प्रतिक्रिया होती है। और वास्तविक अर्थव्यवस्था दरों में बदलाव पर बाद में अपनी प्रतिक्रिया देतती है।
इसलिए सुधार के चरण में बॉन्ड के लाभ, वाणिज्यिक दर, शेयर की कीमतें और अंत में वास्तविक अर्थव्यवस्था का स्थान आता है।
बॉन्ड बाजार चलन में भारी बदलाव का संकेत दे रहा है। प्रारंभ गलत भी हो सकता है लेकिन यह गतिविधि चार महीने तक चली। 364 दिन के ट्रेजरी बिल का लाभ सितंबर महीने में चरम पर, लगभग 9.5 प्रतिशत के स्तर पर था।
तब से लाभ घटे हैं। 364 दिन के ट्रेजरी बिल के लाभ 4.5 प्रतिशत तक आ पहुंचे जो साल 2004 के बाद का न्यूनतम है। 10 वर्षों वाली भारत सरकार की प्रतिभूति की दरें भी घट कर 4.8 प्रतिशत के न्यूनतम स्तर पर आ गई हैं।
महंगाई दर कम होने से लाभ घट रहे हैं। मई 2008 से थोक मूल्य सूचकांक में गिरावट आ रही है जो पिछले सात महीनों से अपस्थिति की ओर संकेत करती है।
अगर सालाना आधार पर देखें तो पिछले चार महीने ही थोक मूल्य सूचकांक 12 प्रतिशत से घट कर छह प्रतिशत से कम के स्तर पर आ गया है।
ट्रेजरी बिल के लाभों के घटने और महंगाई कम होने से वाणिज्यिक दरों में कमी आनीचाहिए। आरबीआई ने भी विभिन्न दरों में कटौती की है। दुर्भाग्यवश, बैंक आरबीआई के बढ़ाए कदम पर चलने के मामले में सतर्कता बरत रहे हैं।
आरबीआई के संकेतों के बावजूद बैंकों की इस सतर्कता की वजह केवल भय है। उन्हें भय है कि डीफॉल्ट नियंत्रण से बाहर चला जाएगा। जितनी जल्दी दरों में कटौती होती है उतनी ही जल्दी अर्थव्यवस्था में सुधार संभव है। बैंकों के नजरिये को देखते हुए लगता है कि इसमें वक्त लगेगा।
ऐसा लगता है कि जब तक बैंकों का पीएल आर नहीं घटाया जाता तब तक आरबीआई फिर से दरें नहीं घटाएगा। ब्याज दरों में मामूली कटौती से मांग में पर्याप्त सुधार नहीं होगा। कच्चे माल की कीमतें कम होने का फायदा विनिर्माताओं को उपभोक्ताओं तक पहुंचाना होगा।
कच्चे माल की कीमतें कम होने से उत्पादक ऐसा कर सकते हैं। टॉपलाइन में कमी को देख कर वे ऐसा करेंगे। विमानन में इसकी शुरुआत हो चुकी है।
ऑटोमोबाइल की कीमतों में कटौती होना तार्किक है। रियल एस्टेट पर भी दबाव बढ़ रहा है। सुधार से पहले चौथी तीमाही में स्थिति और बुरी हो सकती है।
हालांकि, बॉन्ड के लाभ कम होना एक अच्छा संकेत है। अगर, यह चलन वास्तविक है तो वाणिज्यिक दरों में कटौती के बाद कैलेंडर वर्ष 2009 के मध्य तक शेयर बाजार में सुधार देखने को मिल सकता है।