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क्या बैंक जनता से कुछ छिपा रहे हैं?

Last Updated- December 09, 2022 | 11:36 PM IST

ईंधन की कीमतों में हुई कटौती का स्वागत तेल और गैस क्षेत्र से अलग लगभग सभी उद्योगों ने किया है।


इससे मार्च के अंत तक महंगाई दर (थोक मूल्य सूचकांक के) 3 प्रतिशत होने के भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) के अनुमानों की सुनिश्चितता में मदद मिलनी चाहिए। कीमतों में कमी के आधार पर पूरे परिवहन क्षेत्र की व्यवहार्यता में बढ़ोतरी होगी।

ऑटो-विनिर्माण क्षेत्र के शेयरों में पहले ही कुछ सट्टा आधारित क्रियाकलाप हुए हैं जो वास्तव में तीसरी तिमाही के परिणामों के आधार पर असंगत लगता है।

ऑटो उद्योग के लाभ-हानि खाता का दायरा दोपहिया के सपाट स्तर से लेकर टाटा मोटर्स के भारी घाटे तक देखा गया है। माईलेज की लागत कम होने से आशावादियों का अनुमान है कि ऑटो की बिक्री में तेजी आएगी।

डीजल की कीमतें घटने से यह सुनिश्चित होता है कि सड़क और रेल परिवहन के साथ-साथ लॉजिस्टिक्स कारोबार का मार्जिन भी बेहतर होगा। यह प्रत्येक वैसे विनिर्माण कारोबार के लिए सकारात्मक है जो सड़क मार्ग से अपने सामानों का परिवहन करते हैं।

साथ ही इससे रेल के माल-भाड़ा दर कम होने की भी संभावना बनती है। इससे तटीय लदाई में भी सकारात्मक फर्क दिखेगा, जो भारतीय कीमतों पर ईंधन की खरीदारी करते हैं। खुले बाजारों में पेट्रोलियम, गैस और कोयले की कीमतों में काफी नजदीकी सह-संबंध है।

भारत में ऐसा नहीं है लेकिन भारत में पेट्रोलियम उत्पादों की कीमतों में की गई कटौती कच्चे तेल की लागत कम होने को प्रदर्शित करती है। कच्चे तेल की अंतरराष्ट्रीय कीमतें कम होने के साथ-साथ गैस और कोयले की कीमतों में भी कमी आई है।

चूंकि भारत इन दोनों का अच्छे-खासे परिमाण में आयात करता है, इसलिए घरेलू कीमतें (जो नियंत्रित हैं) भी अंतरराष्ट्रीय कीमतों में हुए बदलाव को प्रदर्शित कर सकती हैं। इससे पारंपरिक ऊर्जा क्षेत्र को प्रोत्साहन मिलेगा।

परिणामस्वरूप, स्वतंत्र ऊर्जा परियोजनाएं, जिन्होंने ईंधन के लिए गठजोड़ किया था, आसानी से बंद हो सकती हैं। निश्चय ही यह खबर अक्षय ऊर्जा क्षेत्र के लिए उतनी अच्छी नहीं है।

कछ समय के लिए पवन ऊर्जा और फॉसिल ऊर्जा स्तरीय लागत की वजह से प्रतिस्पर्ध्दी थीं। अल्कोहल और बायो-डीजल में भी दिलचस्पी देखी गई।

रिफाइनिंग क्षेत्र इससे नाखुश होगा। तीन वर्षों में कीमतों पर छूट दिए जाने से हुए भारी घाटे से उबरने के लिए सार्वजनिक क्षेत्र की इकाइयों को काफी कम वक्त मिला और फिर से कटौती कर दी गई। इससे निजी क्षेत्र के रिफानर्स का मार्जिन भी कम हो जाता है।

उनका रुख निर्यात की तरफ अधिक है जिसमें पहले से ही मार्जिन कम रहा है। लेकिन, कुल मिला कर देखा जाए तो पेट्रेलियम की कीमतों में हुई कटौती अर्थव्यवस्था के लिए निश्चित ही अच्छी है।

हालांकि, यह तर्क-वितर्क का विषय है कि इसके परिणामस्वरूप सामानों के परिवहन या इंटर्नल कंबशन व्हीकल के मांग में तुरंत बढ़ोतरी होगी कि नहीं। अभी धारणाएं इतनी कमजोर हैं कि मांग में तेजी आने में थोड़ा वक्त लग सकता है।

आरबीआई द्वारा दरों में की गई कटौती का लाभ उपभोक्ताओं को देने के मामले में बैंकों का इनकार एक दूसरी समस्या है। वास्तव में, कम विकास और महंगाई कम होने के अपने अनुमानों के बावजूद आरबीआई ने वर्तमान मौद्रिक प्रोफाइल बनाए रखने का निर्णय किया है। संभवत:, आरबीआई बाजार दरों के कम होने का इंतजार कर रहा है।

पैसे आसानी से उपलब्ध नहीं होने पर मांग में तेजी शायद ही आ सकती है। यह बात उपभोक्ता-चाालित कारोबार जैसे आवास ऋण और ऑटो बिक्री के लिए पूरी तरह सही है। बड़ी बुनियादी परियोजनाओं के लिए भी ये बात लगभग पूरी तरह फिट बैठती है।

बिड परियोजना के कुछ प्रवर्तकों ने अभी काम बंद कर दिया है और ब्याज दरों के कम होने का इंतजार कर रहे हैं। हम एक अजीब परिस्थिति देख रहे हैं। सितंबर माह के शीर्ष स्तर से महंगाई तेजी से कम हुई है।

कुछ आकलनों के अनुसार, पिछले चार महीनों में थोक मूल्य के स्तर पर महंगाई की दर (सालाना) 13 से 14 प्रतिशत ऋणात्मक देखी गई है।

अर्निंग अनुपात के नजरिये से इक्विटी का मूल्यांकन वैसे स्तर पर आ गया है जो साल 2002-03 की बाजार के मंदी के समय से नहीं देखा गया। शेयर की कीमतें घट कर साल 2006 के स्तर पर आ गई हैं।

पैसा ही सबसे खर्चीली वस्तु है। लेकिन यह तर्कसंगत नहीं लगता। क्योंकि, तर्क के अनुसार दरों में तेजी से कटौती करना बैंकों के लिए भी एक अच्छा निर्णय होता। एक ही सटीक कारण नजर आता है कि बैंकों की गैर-निष्पादित परिसंपत्तियां (एनपीए) बढ़ गई हैं।

हालांकि, तीसरी तिमाही के परिणामों में यह नजर नहीं आता है। अगर, ऋण-जमा अनुपातों पर भरोसा किया जाए तो नकदी की कमी भी नजर नहीं आती है।

इसलिए, हो सकता है कि बैंकों ने सामूहिक तौर पर बड़ी गलतियों पर परदा डाला हो और संभवत: ये सब चौथी तिमाही में प्रकाश में आ जाएंगे। या फिर बैंकों ने गलत नीति अपनाई हो सकती है। लेकिन दोनों ही निष्कर्ष भयानक लगते हैं।

First Published - February 1, 2009 | 9:11 PM IST

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