देश के पूर्व शीर्ष अधिकारियों और राजनयिकों ने बिज़नेस स्टैंडर्ड के ‘मंथन’ कार्यक्रम में कहा कि भारत को अपनी आंतरिक आर्थिक ताकत के अनुरूप रणनीति बनानी चाहिए और वर्ष 2047 तक के अपने लक्ष्य को हासिल करने के लिए विकास के अपने रास्ते पर चलना चाहिए और इसके लिए चीन के तरीके और उनकी राह की नकल करने की आवश्यकता नहीं है।
पूर्व राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार शिवशंकर मेनन, पूर्व विदेश सचिव श्याम सरन और ब्रिटेन में पूर्व भारतीय उच्चायुक्त नलिन सूरी वाले पैनल ने इस बात पर चर्चा की कि भारत, पश्चिमी देशों की चीन-प्लस टैग या चीन के अतिरिक्त अन्य देशों पर निर्भरता जैसे टैग को कैसे छोड़ सकता है और मजबूती से उभर सकता है। विदेश नीति के इन विशेषज्ञों का तर्क था कि भारत को चीन पर अपनी आयात निर्भरता कम करनी चाहिए और यह इस दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम हो सकता है।
पूर्व भारतीय उच्चायुक्त ब्रिटेन नलिन सूरी ने कहा, ‘ड्रैगन एक काल्पनिक जानवर है। हाथी असली जानवर है। मुझे नहीं लगता कि भारत को चीन-प्लस (चीन के अलावा एक और विकल्प) कहा जा सकता है। भारत अपने आप में अद्वितीय है। इस लिहाज से भी चीन भी ऐसा ही है। जो देश ‘प्लस’ टैग का हिस्सा हैं, वे वास्तव में चीन के समान ही आर्थिक प्रगति की राह पर हैं। उनके पास निर्यात से संचालित बड़ी अर्थव्यवस्थाएं हैं।’
सूरी ने यह तर्क भी दिया कि भारत और चीन के आर्थिक रास्ते आगे चलकर समानांतर लेकिन समान ही होंगे और ऐसे क्षेत्र होंगे जहां एक-दूसरे को काटने की भी संभावना है। उन्होंने जोर देकर कहा, ‘चीन का रवैया आपको घूरने और चाहे जिस भी तरीके से आपको एक कोने में खड़ा करने का है। वे यह सुझाव देंगे कि भारत किसी भी तरह से चुनौती नहीं है लेकिन मेरा मानना है कि चीन के लिए, सबसे बड़ी चुनौती भारत है जिसकी शुरुआत एशिया से शुरू होकर आगे बढ़ रही है।’
पूर्व राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार शिवशंकर मेनन ने कहा कि भारत का आर्थिक भविष्य किसी और के चीन को पसंद करने या नापसंद करने पर निर्भर नहीं हो सकता। उन्होंने कहा, ‘इसके बजाय, भारत को यह सुनिश्चित करना होगा कि यह थाईलैंड, वियतनाम, बांग्लादेश और मेक्सिको की तुलना में समान रूप से या अधिक महत्वपूर्ण है।
वे बड़े व्यापारिक प्रबंधों का हिस्सा हैं जैसे कि अमेरिका-मेक्सिको-कनाडा समझौता जिसके माध्यम से उनकी अमेरिकी बाजार तक पहुंच है या फिर क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक भागीदारी (आरसीईपी) जहां वे वैश्विक आपूर्ति श्रृंखलाओं का हिस्सा हैं लेकिन हम फिलहाल इस स्थिति में नहीं हैं।
मेनन ने कहा, ‘चीन के दृष्टिकोण से देखें तो पिछले कुछ वर्षों में उन्होंने अपने प्रति दुनिया के रुख में बड़ा बदलाव देखा है। चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने खुद 2012 में कहा था उनकी जितनी प्रगति होगी, उन्हें उतने ही विरोध का सामना करना पड़ सकता है।
नतीजतन, चीन ने एक दोहरे संचालन वाली अर्थव्यवस्था बनाने पर ध्यान केंद्रित किया है जिसने घरेलू आर्थिक क्षमता का निर्माण किया और साथ ही अन्य देशों की चीन की अर्थव्यवस्था पर निर्भरता भी बढ़ाई है।
मंथन कार्यक्रम के सत्र का संचालन करते हुए, पूर्व विदेश सचिव श्याम सरन ने कहा कि वैश्विक व्यापार और निवेश में कई बाधाएं आईं जब चीन कई आपूर्ति श्रृंखलाओं का मुख्य केंद्र बन गया।
सरन ने कहा, ‘चीन-प्लस-वन अवधारणा की शुरुआत वर्ष 2008 में ही सामने आई थी जब चीन में सांस से जुड़ी महामारी सार्स फैली थी और आपूर्ति श्रृंखला में इसी तरह की बाधाएं थीं हालांकि ये बाधाएं बेहद छोटे पैमाने की थीं।
कई ऐसे विचार भी उठ रहे थे जिसमें कहा जा रहा था कि आपूर्ति श्रृंखला में विविधता की आवश्यकता है जिसे उस वक्त फिर से स्थापित किया जा रहा था। हालांकि यह मुद्दा चीन-अमेरिका के कारोबार युद्ध के चलते और बढ़ गया और यह अब भी जारी है। इसके अलावा कोविड महामारी से भी बड़ी बाधाएं बनी हैं।’
चीन है प्रासंगिक
मेनन ने बताया कि पश्चिमी ताकतें अपने संबंधों को चीन से पूरी तरह से अलग करने की धारणा से हटकर कुछ रणनीतिक क्षेत्रों के जोखिम को कम करने पर केंद्रित हो गई हैं। मेनन ने कहा कि हर जगह, चीन का अमेरिका और यूरोपीय संघ के साथ कारोबार फलफूल रहा है।
उन्होंने कहा, ‘स्पष्ट रूप से, विश्व अर्थव्यवस्था को आज चीन की आवश्यकता 3 साल पहले की तुलना में कहीं अधिक है। चीन आज विश्व अर्थव्यवस्था में लगभग 40 प्रतिशत वृद्धि का योगदान देता है। जब हम चीन-प्लस-वन की बात करते हैं, तो वे (पश्चिमी ताकतें) वास्तव में चीन के अलावा अन्य विकल्पों की तलाश की बात करते हैं।’
सरन ने कहा कि देश में विदेशी कंपनियों के देश से बाहर निकलने और कहीं और जाने के साथ ही भारत उनका स्वागत करने की अच्छी स्थिति में है जैसी बातें वास्तव में सच्चाई से परे है। उन्होंने कहा, ‘कोई भी वास्तव में चीन से दूर नहीं जा रहा है और अगर यह हो भी रहा है तो बेहद छोटे पैमाने पर हो रहा है।
प्रमुख बहुराष्ट्रीय कंपनियां जो पहले से ही चीन में भारी निवेश कर चुकी हैं, वे वास्तव में चीन में उतना अधिक निवेश नहीं कर रही हैं जितना कि वे वैकल्पिक जगहों पर कर रही हैं। हम मूल रूप से कुछ क्रमिक निवेश के बारे में बात कर रहे हैं जो चीन से हट रहे हैं।’
उन्होंने कहा कि चीन में बढ़ते वेतन और श्रम आधारित उत्पादन में प्रतिस्पर्धा के चलते होने वाले घाटे के कारण यह बदलाव आया है, जिस पर चीन की कंपनियां भी जो दे रही हैं।
आयात में कमी
सूरी ने बताया कि जून 2020 में लद्दाख के गलवान में चीन और भारतीय सेना के बीच हुई झड़प के बाद भी चीन पर भारत की आयात निर्भरता कम नहीं हुई है। उन्होंने कहा, ‘चीन से हमारा आयात लगभग 98 अरब डॉलर के करीब है। इसमें से 28 श्रेणियां करीब 90 अरब डॉलर का योगदान देती हैं। इसमें विद्युत उपकरण और ऊर्जा उपकरण आयात का हिस्सा 50 प्रतिशत है।’
इस बीच, मेनन ने कहा कि भारत को अपने आयात में चीन-प्लस नीति का अनुसरण करना चाहिए और इसके लिए चीन से आयात किए जाने वाले महत्वपूर्ण सामानों के लिए वैकल्पिक स्रोत ढूंढकर ऐसा करना चाहिए भले ही यह काफी मुश्किल हो। मेनन ने कहा, ‘वर्ष 2006 में भारत के निर्यात में चीन का मूल्य वर्धन 6 प्रतिशत था लेकिन कोविड महामारी के आने से ठीक पहले वर्ष 2019 तक यह बढ़कर 28 प्रतिशत हो गया।