कैप्टिव 5जी स्पेक्ट्रम के लिए भारतीय दूरसंचार कंपनियों के साथ वैश्विक प्रौद्योगिकी कंपनियों की तकरार के बाद भी जंग जारी रहने के आसार दिख रहे हैं। इस बार वैश्विक प्रौद्योगिकी कंपनियां 6 गीगाहर्ट्ज बैंड (5,925 से 7,125 मेगाहर्ट्ज) के लाइसेंस रद्द कराने पर जोर देंगी। केंद्रीय कैबिनेट द्वारा प्राइवेट कैप्टिव नेटवर्क के प्रस्ताव को मंजूरी दिए जाने के बाद दूरसंचार कंपनियां 5जी स्पेक्ट्रम की जंग में प्रौद्योगिकी कंपनियों से पिछड़ती दिख रही हैं।
दूरसंचार विभाग 6 गीगाहर्ट्ज स्पेक्ट्रम की रूपरेखा पर विभिन्न हितधारकों के साथ विचार-विमर्श की प्रक्रिया पहले ही शुरू कर चुका है। इसके जरिये यह जानने की कोशिश की जा रही है कि क्या इसके लाइसेंस को रद्द करना जरूरी है। गूगल, मेटा, क्वालकॉम और सिस्को (ब्रॉडबैंड इंडिया फोरम का प्रतिनिधित्व) जैसी वैश्विक प्रौद्योगिकी कंपनियां इस बैंड में पूरे 1,200 मेगाहर्ट्ज स्पेक्ट्रम का लाइसेंस रद्द करने की मांग कर रही हैं। लाइसेंस रद्द किए जाने से स्पेक्ट्रम का उपयोग उथल-पुथल मचाने वाली भविष्य की प्रौद्योगिकी को समर्थ बनाने में किया जा सकेगा जिनमें मेटावर्स, ऑग्मेंटेड ऐंड वर्चुअल रियलिटी, स्ट्रीमिंग एट 8के, हाई क्वालिटी एचडी वीडियो आदि शामिल हैं। इन प्रौद्योगिकी के लिए वाईफाई पर व्यापक मात्रा में बैंडविड्थ (जिसे वाईफाई 6ई कहा जाता है। यह मौजूदा मानकों के मुकाबले ढाई गुना अधिक गति उपलब्ध कराता है।) की जरूरत होगी। भविष्य की इन प्रौद्योगिकी का संचालन मौजूदा बैंड पर करना संभव नहीं होगा। इसका उपयोग मोबाइल डेटा को वाईफाई नेटवर्क पर ऑफलोड करने में भी किया जाएगा ताकि मोबाइल नेटवर्क में कंजेशन को कम किया जा सके।
दूसरी ओर, दूरसंचार कंपनियां चाहती हैं कि 5जी सेवाओं के लिए सभी स्पेक्ट्रम को लाइसेंस के दायरे में रखा जाना चाहिए। उनका कहना है कि यह बैंड सी-बैंड का हिस्सा है जिसकी विशेषताएं आईएमटी 5जी के लिए पहले से ही इस्तेमाल होने वाले 3.3 गीगाहर्ट्ज से 3.67 गीगाहर्ट्ज और 4.8 गीगाहर्ट्ज से 4.98 गीगाहर्ट्ज बैंड की तरह हैं। यह 5जी सेवाओं के लिए कवरेज के साथ-साथ हाई स्पीड दोनों उपलब्ध कराता है।
भारत में जो लड़ाई लड़ी जा रही है वह अन्य देशों की ही तरह है जहां नियामकों और सरकार ने दो अलग-अलग मॉडलों को स्वीकार कर लिया है। एक अमेरिकी मॉडल है जहां पूरे बैंड को लाइसेंस से बाहर रखा गया है। चीन, कनाडा, दक्षिण कोरिया और ब्राजील में भी इसी मॉडल का अनुकरण किया गया है।
दूसरा यूरोपीय मॉडल है जहां वाईफाई के लिए 6 गीगाहर्ट्ज के निचले बैंड यानी 480 मेगाहर्ट्ज को लाइसेंस से बाहर रखने का निर्णय लिया गया है।
भारतीय दूरसंचार कंपनियां 6 गीगाहर्ट्ज स्पेक्ट्रम को लाइसेंस से बाहर रखने का पुरजोर विरोध कर रही हैं। उनका कहना है कि भले ही अमेरिका में इस बैंड में स्पेक्ट्रम को लाइसेंस से बाहर रखा गया है लेकिन यदि भारत में ऐसा किया गया तो सीमित स्पेक्ट्रम बचेगा जो जनसंख्या घनत्व को देखते हुए वह सही नहीं होगा। भारत में अमेरिका के मुकाबले 10 गुना और रूस के मुकाबले 100 गुना अधिक आबादी है। यहां एक बड़ी आबादी को कवर करने के लिए उपलब्ध स्पेक्ट्रम अमेरिका के मुकाबले काफी है।
दूरसंचार कंपनियों का यह भी कहना है कि भारत में 97 फीसदी दूरसंचार ट्रैफिक वायरलेस नेटवर्क पर आधारित हैं जबकि अधिकतर विकसित देशों में 85 फीसदी ट्रैफिक वायरलेट नेटवर्क पर आधारित हैं। इस अंतर के कारण मोबाइल नेटवर्क के लिए स्पेक्ट्रम पर काफी दबाव दिखेगा।
उनकी एक दलील यह भी है कि वाईफाई 6ई और उसका अगला संस्करण वाईफाई 7 वास्तव में उस नेटवर्क का आउटडोर सेल्युलर संस्करण हैं जो 5जी और भविष्य की 6जी सेवाओं से प्रतिस्पर्धा करते हैं।
इसलिए उनका मानना है कि स्पेक्ट्रम को लाइसेंस मुक्त करना ही स्पेक्ट्रम के उपयोग का सबसे कुशल तरीका है। अकुशल प्रौद्योगिकी के लिए मूल्यवान स्पेक्ट्रम को बर्बाद करने का कोई मतलब नहीं है।
साल 2018 में वैश्विक प्रौद्योगिकी कंपनियों के दबाव में भारत सरकार ने बेहतर वाईफाई स्पीड के लिए 5.1 गीगाहर्ट्ज से 5.9 गीगाहर्ट्ज बैंड में स्पेक्ट्रम को लाइसेंस मुक्त करने का निर्णय लिया था। इससे देश में वाईफाई हॉटस्पॉट के प्रसार को मदद मिल सकती थी लेकिन उस स्पेक्ट्रम का उपयोग काफी कम हुआ।
