भारतीय रिजर्व बैंक की ओर से नीतिगत दरों में की गई कटौती का फायदा नीचे तक न पहुंचने से कंपनियों के लिए कार्यशील पूंजी की लागत अब भी ऊंची बनी हुई है।
यह तब की स्थिति है जब हाल ही में आरबीआई ने रेपो दर में 525 आधार अंकों की कमी की। कर्ज महंगा बने रहने का असर है कि कंपनियां अपना ज्यादातर कर्ज 12.25 फीसदी की दर से उठा रही हैं। यह दर भारतीय स्टेट बैंक की प्रधान उधारी दर (पीएलआर) भी है।
सभी कर्जों का करीब तीन-चौथाई हिस्सा जैसे नगदी और ओवरड्राफ्ट बैंक की मौजूदा पीएलआर पर उधार दी जा रही है। जेएसडब्ल्यू के मुख्य वित्तीय अधिकारी शेषगिरी राव बताते हैं कि कि 10 साल के जी-सेक पर 6.23 फीसदी का रिटर्न मिलता है, जबकि एसबीआई की पीएलआर 12.25 फीसदी है।
वह सवाल करते हैं कि यह 12.25 फीसदी क्यों है? कंपनियों के मुताबिक, बैंकों का ज्यादातर धन तो सीआरआर और एसएलआर में खप जाता है। इस वजह से उनके लिए मुनाफा कमाना आसान नहीं होता। इन जमा राशि पर उन्हें बहुत मामूली कमाई हो पाती है। बैंक अभी उधार देने से कतरा रहे हैं। वे अपना पैसा आरबीआई के पास रख रहे हैं, जिस पर उन्हें 3.25 फीसदी का रिटर्न मिलता है।
हिंदुजा समूह के सीएफओ प्रबाल बनर्जी के मुताबिक, ”इन डिपोजिट से उन्हें बहुत आमदनी नहीं हो रही। इस वजह से बैंक किसी को कम दर पर कर्ज देने से कतरा रहे हैं।” बनर्जी ने यह भी कहा कि बैंकों को अब ऊंची ब्याज दर की मानसिकता से बाहर आना होगा। बनर्जी के मुताबिक पिछले डेढ़ साल में इन्होंने ऊंची दर पर उधार दिया है, लेकिन अब इस मानसिकता से बाहर निकलने की जरूरत है।
मुनाफे पर दबाव बनने से इनकी कोशिश अतिरिक्त कमाई करने की है। कई सीईओ का मानना है कि ऊंचे ब्याज दर से राहत मिलने में अभी कुछ महीने लगेंगे। बैंकों का अपना तर्क है। मुनाफा कम होने से वे उधार देने से बच रहे हैं।
कर्ज की वृद्धि दर 2006-07 के 27 प्रतिशत से घटकर अब 17-18 प्रतिशत तक आ गई है। दूसरी ओर जमाराशि की वृद्धि दर 22 फीसदी तक पहुंच गई है। मुनाफे पर दबाव की यह एक और वजह है।
शेषगिरी राव का कहना है कि सावधि ऋण में बैंकों की रुचि खत्म हो गई है। अब वे सोच-समझकर कर्ज दे रहे हैं। चूंकि इस समय धन की जबरदस्त किल्लत है, इसलिए बैंक काफी आशंकित हैं कि कहीं ये कंपनियां किसी परियोजना में अपने हिस्से की राशि का जुगाड़ न कर पाएं।
सही समय में यदि 5,000 करोड़ रुपये की किसी परियोजना के लिए आंतरिक स्रोतों से 2,000 करोड़ रुपये का जुगाड़ हो जाता था, तो शेष 3,000 करोड़ रुपये बैंकों से मिल जाते थे। राव के मुताबिक, मौजूदा समय में बैंक ऐसा करने से बच रहे हैं।
