जाने-माने वैज्ञानिक एवं अंतरराष्ट्रीय मक्का एवं गेहूं सुधार केंद्र (सीआईएमएमवाईटी) केंद्र में क्षेत्रीय निदेशक (एशिया) डॉ. बी एम प्रसन्ना
जलवायु परिवर्तन के नकारात्मक प्रभावों की सबसे अधिक मार कृषि पर पड़ रही है। जाने-माने वैज्ञानिक एवं अंतरराष्ट्रीय मक्का एवं गेहूं सुधार केंद्र (सीआईएमएमवाईटी) केंद्र में क्षेत्रीय निदेशक (एशिया) डॉ. बी एम प्रसन्ना ने संजीव मुखर्जी से बातचीत में इस संबंध में चुनौतियों और उनके समाधानों की जानकारी दी। बातचीत के प्रमुख अंशः
कृषि क्षेत्र के लिए जलवायु परिवर्तन कितना गंभीर खतरा है?
जलवायु परिवर्तन का संकट कई रूपों में कृषि-खाद्यान्न प्रणाली को प्रभावित कर रहा है जिनमें कीटों एवं फसलों को लगने वाली बीमारियां भी शामिल हैं। अधिक तापमान एवं अनियमित बारिश जैसी मौसमी परिस्थितियों में फसलों को नुकसान पहुंचाने वाले कुछ कीटों के हमले बढ़ जाते हैं और कई तरह की बीमारियां भी लगने लगती हैं। अब यह साबित हो चुका है कि सूखा, अत्यधिक तापमान, जल जमाव से न केवल फसलों की पैदावार कम हो रही है बल्कि ये जैविक वर्णक्रम (बायोटिक स्पेक्ट्रम) पर भी असर डाल रहे हैं। इस चुनौती से निपटने के लिए केवल दो- तीन तरीके मौजूद हैं और उनमें एक हैं आनुवांशिक नवाचार। यानी हमें फसलों की ऐसी किस्में तैयार करनी होंगी जो जैविक और अजैविक खतरों का सामना करने में सक्षम हों। दूसरा तरीका सस्य विज्ञान (एग्रोनॉमी) या पर्यावरण के अनुकूल कृषि कार्यों को बढ़ावा देना है जिससे हम जलवायु परिवर्तन के हानिकारक प्रभाव कम कर सकते हैं। तीसरा तरीका उपयुक्त नीतियां तैयार करना है। ये नीतियां विशेषकर जल, पोषक तत्त्व एवं उपयोग में दक्षता और श्रम बचत को बढ़ावा देने वाली होनी चाहिए। ये तीनों उपाय एक साथ आजमाने होंगे।
दुनिया में कीटों के हमले एवं बीमारियां कितना गंभीर रूप ले चुके हैं?
मुझे लगता है कि कई फसलों को कीटों के हमलों एवं बीमारियों ने शिकार बना लिया है। उदाहरण के लिए फॉल आर्मी वर्म (फसलों को नुकसान पहुंचाने वाला घातक कीड़ा) से मक्के में होने वाली बीमारी अफ्रीका के सब-सहारा क्षेत्र में 2017 से और भारत में 2018 से लगातार बड़ा खतरा बन कर उभरी है। यह बीमारी एशिया-प्रशांत क्षेत्र के गई देशों में भी तेजी से फैल गई और दूसरे देशों में भी फैल रही है।
यानी फॉल आर्मी वर्म जलवायु परिवर्तन के बड़े प्रभावों का एक उदाहरण है?
बिल्कुल। यह कीड़ा दुनिया के कई देशों में मक्के की फसल को नुकसान पहुंचा रहा है। मगर यही एक मात्र खतरा नहीं है। उदाहरण के लिए बांग्लादेश में गेहूं में व्हीट ब्लास्ट (कवक संक्रमण) बीमारी लग गई है। यह बीमारी ब्राजील से वहां तक पहुंची है। इसी तरह, दक्षिण एशिया, खासकर भारत में फूल आने के बाद मक्के में डंठल सूखने की बीमारी भी बढ़ रही है।
ये बीमारियां तो 30-40 वर्ष पहले भी फसलों को लग रही थीं। तो जलवायु परिवर्तन इसके लिए क्यों जिम्मेदार माना जा रहा है?
हां, इनमें कुछ बीमारियां फसलों को पहले भी लगती रही हैं मगर ऐसे मामले कम होते थे। उदाहरण के लिए फॉल आर्मी वर्म अफ्रीका या एशिया में पहले कभी नहीं देखा गया था। यह केवल अमेरिका में मक्का उत्पादक क्षेत्रों तक ही सीमित था। यह कीड़ा शरद ऋतु में दिखता था इसलिए इसका नाम भी फॉल आर्मी वर्म रखा गया है। गर्मी के दिनों में ये अमेरिका और लैटिन अमेरिका के गर्म हिस्सों में पहुंच जाते थे। मगर 2016 में अफ्रीका के सब-सहारा क्षेत्र में फॉल आर्मी वर्म का बड़ा हमला देखा गया। 2018 में एशिया में भी मक्के की फसल में फॉल आर्मीवर्म की बीमारी लग गई। उनमें कई बीमारियां कई दशकों से एशिया या अफ्रीका में नहीं थी। कुछ रोगाणु छोटी-मोटी बीमारियां फैलाते थे मगर जलवायु परिवर्तन के बाद वे फसलों को अधिक नुकसान पहुंचाने लगे हैं। कुल मिलाकर दोनों बातें हो रही हैं। जो बीमारियां पहले किसी महाद्वीप में नहीं हुआ करती थीं वे अब दिखने लगी हैं और इनके लिए जलवायु परिवर्तन, अंतरराष्ट्रीय व्यापार सहित कई कारक जिम्मेदार हैं। ये सभी बातें कीटों एवं बीमारियों के एक जगह से दूसरी जगह पहुंचने के लिए मुख्य रूप से जिम्मेदार रहे हैं।
इससे लड़ने का सबसे कारगर तरीका क्या है?
बीमारियों से निपटने के लिए बहु-आयामी एवं टिकाऊ उपाय करने होंगे। पौधों के स्वास्थ्य प्रबंधन के लिए सबसे पहले तो हमें राष्ट्रीय पादप स्वास्थ्य एजेंसियों की कार्य क्षमता मजबूत करनी होगी ताकि वे देश में लगातार हानिकारक कीटों के मामलों पर नजर रख कर उनके रोकथाम के उपाय कर सकें। इससे देश में बाहर से आने वाले रोगाणुओं का तुरंत पता लगाकर उन्हें नियंत्रित करने एवं खत्म करने में मदद मिलेगी। पौधों को बीमार करने वाले कीड़ों को आने से रोकना मुश्किल है इसलिए पादप स्वास्थ्य बेहतर बनाए रखना अगला श्रेष्ठ विकल्प हो सकता है। इसके लिए हमें ऐसे समाधान खोजने होंगे जो पर्यावरण के अनुकूल हों। जब किसी देश में कीटों या बीमारियों के हमले होते हैं तो पहले उपाय के रूप में रासायनिक कीटनाशकों का इस्तेमाल किया जाता है। ये कीटनाशक अस्थायी तौर पर राहत जरूर देते हैं लेकिन कई किसान यह नहीं समझ पाते हैं कि इनका सही इस्तेमाल कैसे किया जा सकता है। किसानों के लिए भी यह समझना जरूरी है कि कितनी मात्रा में, कैसे और कब रासायनिक कीटनाशकों का इस्तेमाल करना चाहिए और कब नहीं।
आनुवांशिकी की कितनी भूमिका है?
कीटों के संक्रमण से बेअसर रहने वाली किस्में काफी महत्त्वपूर्ण हैं। अफ्रीका इसका उदाहरण है। सीआईएमएमवाईटी ने फॉल आर्मी वर्म से बेअसर रहने वाली मूल आनुवांशिक प्रतिरोध किस्म का विकास एवं इसका इस्तेमाल किया है। यह बिल्कुल ट्रांसजेनिक (दूसरे पौधों का जीन शामिल नहीं है) नहीं है। हमने मेक्सिको में टक्सपेनो और कैरेबियाई मक्के से तैयार जर्मप्लाज्म (आनुवांशिक पदार्थ) का इस्तेमाल किया। कैरेबियाई द्वीप मक्के की खास किस्म के लिए भी जाने जाते हैं जो कुछ खास कीटों से बेअसर रहते हैं। हमने उस जर्मप्लाज्म को उगाया और अफ्रीका ले आए और हाल में ही यह एशिया आया है। अफ्रीका में फॉल आर्मी वर्म रोधी संकर नस्लों का उपयोग हो रहा है, जो पूरी तरह नॉन- ट्रांसजेनिक हैं। एशिया में हमारे हैदराबाद के शोध केंद्र पर मक्के की पीली नस्ल तैयार हो रही हैं जो फॉल आर्मी वर्म से लड़ने के साथ ही जलवायु परिवर्तन से बेअसर रह सकती हैं।