कभी होलकर वंश की रानी अहिल्याबाई राजसी मेहमानों को तोहफे में जो खास साड़ियां देती थीं आज वही महेश्वरी साड़ियां देश-दुनिया में खास और आम महिलाओं के तन पर सजती हैं। अहिल्याबाई ने ये साड़ियां बनवाने के लिए खास हुनर वाले बुनकरों को मध्य प्रदेश के महेश्वर में बसाया था और वहां से निकलकर आज ये साड़ियां पूरे देश में पहुंच गई हैं। पहले इनकी मांग कुछ शहरों में ही थी मगर सोशल मीडिया के दौर में नई डिजाइनों की वजह से इनकी शोहरत बढ़ी और आज पूरे देश में महेश्वर साड़ियां बेची-खरीदी जाती हैं।
महेश्वरी साड़ी का कारोबार 100 से 120 करोड़ रुपये सालाना है। महेश्वर में 4,000 से 4.500 हैंडलूम ये साड़ियां तैयार करते हैं, जहां 10-12 हजार बुनकर और अप्रेंटिस काम कर रहे है। बढ़ती लोकप्रियता और समय के साथ लोगों के बदलते मिजाज को देखकर महेश्वरी साड़ी बनाने वाले भी साड़ियों को नया रूप-रंग और अंदाज दे रहे हैं। वे धागे, रंगों के पैटर्न और पल्लू में कई तरह के प्रयोग कर रहे हैं। बुनकर अब महेश्वरी साड़ी के अंदाज में सूट, दुपट्टे, पर्दे और तकिया के गिलाफ आदि भी बनाने लगे हैं। दूसरे उद्योगों की तरह वे भी बिक्री बढ़ाने के लिए सोशल मीडिया का सहारा ले रहे हैं।
महेश्वर में गुजराती हैंडलूम के मालिक राहुल कृष्णकांत गुजराती बिजनेस स्टैंडर्ड से बातचीत में बताते हैं कि महेश्वरी साड़ियों के कद्रदानों की अब कमी नहीं है। मगर देश में तरह-तरह की साड़ियों के इतने केंद्र हैं कि फैशन के दौर में कुछ नया किए बगैर बाजार में टिक पाना मुमकिन नहीं है। वह बताते हैं, ‘महेश्वरी साड़ियां शुरू से ही जरीदार सुनहरे रंग की होती थीं। मगर अब रंगों में कई प्रयोग हो रहे हैं। अब तांबा, चांदी आदि धातुओं का इस्तेमाल कर इन साड़ियों को एंटीक लुक दिया जा रहा है। पल्लू को चौड़ा करने का भी प्रयोग हो रहा है।’
महेश्वरी साड़ी तैयार करने वाले बुनकर अजीज अंसारी कहते हैं कि महिलाएं उस तरह की साड़ियां ज्यादा तलाशती हैं, जो फिल्मों और टीवी सीरियल में अभिनेत्रियां पहनी दिखती हैं। ऐसे में हम लोग भी साड़ी बनाते समय ध्यान रख रहे हैं कि रंग और डिजाइन के मामले में अभी क्या चलन में है या महिलाओं को क्या पसंद आ रहा है। अंसारी बताते हैं और 4 और 6 पैडल इस्तेमाल कर मल्टी-डिजाइन साड़ियां बनाने पर भी जोर दिया जा रहा है। इसके अलावा साड़ियों पर कई तरह का बारीक काम भी किया जा रहा है।
इन साड़ियों के कारोबारी देवेंद्र धकले कहते हैं कि साड़ियों में कलर कॉम्बिनेशन बहुत अहम होता है क्योंकि खरीदार की नजर सबसे पहले उसी पर टिकती है। यह कॉम्बिनेशन फिल्में देखकर तय किया जा रहा है। कारोबारी बताते हैं कि नए प्रयोग करने के साथ ही इन साड़ियों की मांग भी बढ़ रही है। गुजराती हैंडलूम के राहुल बताते हैं कि किसी जमाने में ये साड़ियां नागपुर, कोल्हापुर, मुंबई, हैदराबाद और चेन्नई ही भेजी जाती थीं क्योंकि महाराष्ट्र और दक्षिण भारत में इनके खरीदार ज्यादा थे। मगर अब देश के दूसरे हिस्सों में भी इनके कद्रदानों की कमी नहीं है। अंसारी बताते हैं कि अब गुजरात, दिल्ली, पंजाब और उत्तर प्रदेश से इन साड़ियों के खूब ठेके मिलते हैं।
महेश्वरी साड़ी की कीमत आम तौर पर 1,500 रुपये से शुरू होती है और 20,000 रुपये तक जाती है। लेकिन 3,000 से 6,000 रुपये कीमत की साड़ियां ही ज्यादा बिकती हैं। धकले कहते हैं कि पहले खास लोग ही इन साड़ियों को पहनते थे मगर अब आम लोग भी इन्हें खरीदने आते हैं। इसीलिए 2,000 रुपये दाम वाली साड़ियां भी खूब बिक रही हैं।
कोरोना महामारी ने महेश्वरी साड़ियों पर भी तगड़ी चोट की थी और उस दौरान यह कारोबार लगभग ठप हो गया था। मगर महामारी का असर खत्म होते ही यह तेजी से पटरी पर लौट आया और अब बिक्री भी ठीक हो रही है। गुजराती हैंडलूम के राहुल को शादियों के सीजन से बहुत उम्मीद है। वह कहते हैं, ‘इस बार साये ज्यादा पड़ रहे हैं। इसलिए सीजन में महेश्वरी साड़ियों की बिक्री 10-15 फीसदी बढ़ सकती है।’
बीते कुछ सालों में महेश्वरी साड़ी तैयार करने की लागत बढ़ रही थी और कोरोना महामारी के बाद तो खास तौर पर यह उछल पड़ी क्योंकि इसमें इस्तेमाल होने वाला कच्चा माल बहुत महंगा हो गया है। अंसारी बताते हैं, ‘कोरोना से पहले रेशम का भाव 3,500 से 4,000 रुपये प्रति किलोग्राम था मगर अब वह 6,000 से 6,500 रुपये किलो मिल रहा है। केवल 900 या 1,000 रुपये में मिलने वाला सूत का बंडल भी अब 1,600-1,700 रुपये में आ रहा है। जरी के बंडल का दाम भी इस दौरान 200-250 रुपये बढ़ गया है।’
राहुल बताते हैं कि कच्चे माल के साथ ही बुनकरों की मजदूरी भी बढ़ गई है। पहले उन्हें 400 से 500 रुपये रोजाना मजदूरी दी जाती थी मगर अब 500 से 600 रुपये देनी पड़ रही है। उधर अंसारी का कहना है कि महंगाई और बुनकरों के घर के खर्च देखते हुए बढ़ी हुई मजदूरी भी नाकाफी पड़ती है।
बहरहाल बढ़ी लागत की सीधी चोट मार्जिन पर पड़ी है। अंसारी कहते हैं कि पहले महेश्वरी साड़ियों पर 30-40 फीसदी मार्जिन मिल जाता था मगर अब 20 फीसदी भी मुश्किल से मिलता है। देवेंद्र बताते हैं, ‘फैब इंडिया जैसे ब्रांड भी अब 10-12 फीसदी मार्जिन ही दे रहे हैं। पहले जो साड़ी 5,000 रुपये में बन जाती थी, कच्चा माल महंगा होने के बाद अब वह 6,500 रुपये में बनती है। पहले साड़ी की कीमत में 60-70 फीसदी हिस्सा बुनकर की मजदूरी का था मगर अब 50 फीसदी ही रह गया है।’
कारोबार में सोशल मीडिया और ऑनलाइन प्लेटफार्म की बढ़ती भूमिका का फायदा उठाने में महेश्वरी के कारोबारी व बुनकर भी पेछे नहीं हैं। अंसारी कहते हैं कि सोशल मीडिया कारोबार का नया जरिया बन गया है, इसलिए वह भी फेसबुक और इंस्टाग्राम आदि पर अकाउंट बनाकर महेश्वरी साड़ियों का प्रचार प्रसार कर रहे हैं। इससे उनके कुछ खरीदार भी बढ़ जाते हैं। उन्हें लगता है कि सोशल मीडिया के जरिये हर महीने चार-पांच साड़ी भी बिक गईं तो सोने पर सुहागा होगा। राहुल भी मानते हैं कि ऑनलाइन प्टेलफॉर्म ने कारोबारियों और बुनकरों का व्यापार बढ़ाया है।
होलकर वंश की रानी अहिल्याबाई ने जब मेहमानों को तोहफे में कुछ अलग और खास देने की सोची तो उन्होंने सूरत, मालवा और हैदराबाद जैसे शहरों से बुनकर बुलाकर महेश्वर में बसा दिए। यहां बनी साड़ियां अपने चटक रंगों, धारीदार या चार खाने के बॉर्डर और सुंदर डिजाइन की वजह से पूरी दुनिया में पहचानी जाती हैं। महेश्वरी साड़ियां तो एकदम प्लेन होती हैं मगर उनके बॉर्डर पर फूल, पत्ती, हंस, मोर के सुंदर डिजाइन के साथ ही महेश्वर के किले, महल, मंदिर आदि के डिजाइन भी रहते हैं। महाराष्ट्र के कोल्हापुर और नागपुर में इन साड़ियों का बड़ा थोक बाजार है। वहां विवाह की रस्म के दौरान दुल्हन को यही साड़ी पहनाई जाती है। दुर्गा पूजा, मकर संक्रांति, अनंत चतुर्दशी जैसे मौकों पर भी महेश्वरी साड़ियां खूब पहनी जाती हैं। अब तो त्योहारों और शादियों के अलावा दूसरे मौकों पर भी महेश्वरी साड़ी पहनने का चलन खूब बढ़ने लगा है।
मध्य प्रदेश के उज्जैन में दो साल पहले महाकाल लोक कॉरिडोर बनाया गया है, जिसके बाद वहां पर्यटकों की संख्या बढ़ रही है। महेश्वर उज्जैन से करीब 150 किलोमीटर की दूरी पर है। राहुल कहते हैं यह साड़ियों के साथ ही पर्यटक स्थल के तौर पर भी मशहूर है और पर्यटकों तथा तीर्थयात्रियों के लिए यहां बहुत कुछ है। महेश्वर किला शहर का सबसे बड़ा आकर्षण है, जिसे 18वीं शताब्दी में होलकर राजवंश ने बनवाया था। नर्मदा नदी के किनारे बने इस किले से नदी और आस-पास का शानदार नजारा दिखता है। महेश्वर को मंदिरों का शहर भी कहा जाता है। इसलिए उज्जैन से बड़ी तादाद में श्रद्धालु और पर्यटक महेश्वर भी आते हैं। चूंकि यह महेश्वरी साड़ियों का गढ़ है, इसलिए पर्यटकों का ये साड़ियां खरीदना लाजिमी है। इस तरह महाकाल लोक कॉरिडोर से महेश्वरी साड़ियों के कारोबार को भी काफी फायदा हो रहा है।