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चार साल रोशन, पांचवें बरस ने दिया टेंशन

Last Updated- December 10, 2022 | 1:16 AM IST

चार साल से तेजी से भागती एशिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था अचानक धीमी हो गई है। इसका कारण एशियाई चीते की राह में आई वित्तीय सुनामी और राजनीतिक रुकावटें हैं। मंदी की मार और चुनावी सरोकार के चलते आर्थिक विकास अगले वर्ष भी ठहरा रह सकता है।
फिलहाल स्थिति यह है कि अर्थव्यवस्था के आठ में से छह तत्व गिरावट की गिरफ्त में हैं। राजकोषीय घाटा पटरी पर आता दिख रहा था, पर वह भी इस साल सुरसा की तरह बढ़ता रहा। घरेलू बढ़त पर लगाम, निर्यात जाम और फिक्रमंद आवाम, कुल जमा यही तस्वीर उभरती है अगले साल की भी।
कर संग्रह में कमी और खर्च में बेशी, ऐसे में अगर विकास की रफ्तार को पैकेज की और पतवार देनी पड़े तो अचरज नहीं। दूसरे विश्व युध्द के बाद अगर पहली बार दुनिया की विकास दर सिर्फ आधा प्रतिशत रह जाने की आशंका है तो इसका असर भारत पर भी पड़ेगा।
मंदी से जीडीपी पर घाव लगा गंभीर
यह देश की तरक्की की रफ्तार का पैमाना है। मई 2004 में जब सरकार ने सत्ता संभाली तो यह 8.5 प्रतिशत था। पिछले साल यह 9 प्रतिशत पर टिका था। लेकिन इस साल इसके 7 फीसदी के आस-पास रहने का अनुमान है।
यह छह साल में सबसे धीमा साल है। जीडीपी में शामिल आठ में छह तत्व मंदी से पस्त हैं। कृषि 2.5 प्रतिशत के आस-पास रहेगी और औद्योगिक उत्पादन 15 साल में शायद सबसे कम।

कर राजस्व की टेढ़ी डगर पर अगर मगर
संप्रग सरकार के चार साल कर संग्रह के लिहाज से अच्छे थे। इस दौरान आयकर, सीमा शुल्क और उत्पाद शुल्क की दरों में कटौती की गई तो नए तरह के कर भी जैसे एसटीटी, सीटीटी, एफबीटी और बैंक से नकदी निकालने पर कर रोपे गए।
लेकिन मंदी के असर से कर संग्रह भी नहीं बच पाया है। प्रत्यक्ष कर संग्रह लक्ष्य से 60 हजार करोड़ रुपये कम रह सकता है। छह साल में पहली बार कर उगाही में कमी आई है।
कमी का कांटा, बढ़ गया राजस्व घाटा
सरकार के बागडोर संभालने के वक्त राजस्व घाटा जीडीपी का 3.6 प्रतिशत था जो लगातार घटा। यानी राजस्व काफी बढ़ा और राजस्व खर्च भी बढा पर घाटा कम ही रहा। 

एफआरबीएम के तहत सरकार को हर साल आधा प्रतिशत राजस्व घाटा घटाना है और मार्च 2009 तक इसे 3 फीसदी लाना है। लेकिन पांचवें साल में यह 1 प्रतिशत के बजट लक्ष्य के मुकाबले 4.4 प्रतिशत रह सकता है।
राजकोषीय घाटे से बढ़ेंगी मुश्किलें
सब कुछ पटरी पर था, लेकिन मंदी के कारण राजाकोषीय घाटा भी बेकाबू हो गया। जो घाटा मार्च 2008 में 3.4 प्रतिशत आ गया था, उसके इस चुनावी साल में दोगुना होकर 6 प्रतिशत से भी ज्यादा हो जाने के आसार हैं।
वेतन आयोग, कर्ज माफी, कर संग्रह में कमी, दो राहत पैकेज से शुल्कों में कटौती आदि के कारण। अगर इसमें राज्यों का घाटा भी जोड़ दें तो यह जीडीपी का 10 फीसदी से ऊपर चला जाएगा।

ऐसे में उधार ही है सरकार का आधार
पिछली सरकार की भांति संप्रग सरकार ने भी वित्तीय अनुशासन अपनाया। नतीजा यह हुआ कि सरकार की उधारी मार्च 2004 में जीडीपी के 4.5 प्रतिशत से घटते हुए मार्च 2007 तक 3.4 प्रतिशत रह गई।
इस साल घटते कर संग्रह और बढ़ते खर्च के साथ-साथ मंदी की मार भी पड़ी है। नतीजा, इस वर्ष उधारी बजट लक्ष्य से दोगुनी हो रही है।  3-जी से कमाई से थोड़ी उम्मीद बंधी है। फिर भी, उसे बॉन्ड या ट्रोरी बिल जारी करने होंगे।

घटते-घटते फिर बढ़ने लगा सब्सिडी बोझ
थोड़ा संयम बरता तो सब्सिडी घटने लगी। सरकार आई तो यह जीडीपी का 1.4 प्रतिशत थी, जिसे सरकार ने धीरे-धीरे घटाया और यह मार्च 2007 में 1.3 प्रतिशत रह गई। लेकिन यह साल खजाने पर फिर सब्सिडी का बोझ लेकर आया है।
उर्वरक और खाद्य सब्सिडी लक्ष्य से ऊपर भाग रही हैं। खाद्य सब्सिडी 50 हजार करोड़ रु. तो उर्वरक सब्सिडी 1 लाख करोड़ रु. के पास पहुंच रही है। कई साल बाद यह 2 प्रतिशत से ज्यादा रहेगी।
चिंता का सबब है घटता पूंजीगत व्यय
पूंजीगत व्यय में कमी चिंता का विषय है। पहले साल तो सरकार ने जीडीपी का 3.6 प्रतिशत पूंजीगत मद में खर्च किया पर उसके बाद उसमें कमी आती गई। वर्ष 2006-07 में इसमें मामूली वृध्दि हुई।
फिर भी यह बजट खर्च से काफी कम था। स्थिति यह है कि सरकार का गैर योजना और राजस्व खर्च बढ़ा है। हालांकि सामाजिक क्षेत्र पर व्यय बढ़ा है। पर उत्पादक संपत्ति के सृजन में खर्च बहुत नहीं बढ़ पाया।
यह अंतरिम बजट महंगाई को और तेजी से बढ़ाने के लिए उठाया गया कदम है। सरकार ने वैश्विक आर्थिक मंदी से कोई सबक नहीं लिया है।  कमल नयन काबरा अर्थशास्त्री
अंतरिम बजट में सरकार ने यह बात साफ कर दी है कि जल्द ही वित्तीय स्थिति में सुधार होने की उम्मीद नहीं है। लिहाजा, बाजार उधारी और बॉन्ड कमाई पर असर हो सकता है।  अभीक बरुआ मुख्य अर्थशास्त्री, एचडीएफसी
जब संप्रग ने कमान भी नहीं संभाली थी कि एक वामपंथी नेता के एक बयान भर से सेंसेक्स गोता लगा गया और 17 मई 2004 को वह 550 अंक गिरकर बंद हुआ। अर्थशास्त्रियों के हाथ में देश और वित्त की बागडोर के बावजूद जून-जुलाई तक यह पांच हजार के आस-पास ही रहा।
जनवरी 2008 की ऐतिहासिक ऊंचाई के बाद अब सेंसेक्स नवंबर-दिसंबर 2005 के दौर में है। 9 जनवरी को 20870 पर पहुंचा। तब से यह गिरावट की ओर है।

First Published - February 16, 2009 | 11:16 PM IST

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