उच्चतम न्यायालय के संविधान पीठ ने गुरुवार को कहा कि न्यायालय संविधान के अनुच्छेद 200 और 201 के अंतर्गत राज्यपालों या भारत के राष्ट्रपति को भेजे गए विधेयकों के मामले में कोई समयसीमा निर्धारित नहीं कर सकते।
शीर्ष न्यायालय ने कहा,‘हमें यह साफ तौर पर कहने में कोई हिचकिचाहट नहीं है कि न्यायिक रूप से निर्धारित समयसीमा समाप्त होने पर अनुच्छेद 200 या 201 के तहत राज्यपाल या राष्ट्रपति की मानी गई सहमति वास्तव में न्यायपालिका द्वारा न्यायिक घोषणा के माध्यम से कार्यकारी कार्यों का अधिग्रहण और प्रतिस्थापन है जो हमारे लिखित संविधान के दायरे में अस्वीकार्य है।’
यह विचार राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू द्वारा अनुच्छेद 143 के तहत किए गए एक संदर्भ के जवाब में आया है जिसमें सहमति, रोक और विधेयकों अपने पास रखने संबंधित प्रावधानों को नियंत्रित करने वाले संवैधानिक ढांचे पर स्पष्टता मांगी गई थी।
भारत के मुख्य न्यायाधीश बी आर गवई और न्यायाधीश सूर्य कांत, विक्रम नाथ, पीएस नरसिम्हा और एएस चंदुरकर के पीठ ने निर्णय सुनाया कि न्यायालय द्वारा अनिवार्य समयसीमा शुरू करने या ‘मानी गई सहमति’ को मान्यता देने से शक्तियों के पृथक्करण का उल्लंघन होगा। न्यायाधीशों ने कहा कि न्यायिक स्तर पर तय अवधि के बाद सहमति स्वतः ही मिल जाने से राज्यपाल या राष्ट्रपति की संवैधानिक रूप से सौंपी गई भूमिका को न्यायपालिका के निर्देश से बदलने के समान होगा।
‘मानी गई सहमति’ को खारिज करते हुए न्यायालय ने कहा कि वह उन परिस्थितियों में हस्तक्षेप कर सकती है जहां राज्यपाल बिना किसी स्पष्ट कारण के निष्क्रियता दिखा रहे हैं। ऐसे मामलों में न्यायालय राज्यपाल को निर्णय लेने का निर्देश दे सकता है लेकिन यह तय नहीं कर सकता कि वह निर्णय क्या होना चाहिए।