आज का अखबार

नए जमाने की कंपनियां और निवेशकों की भूमिका

प्रवर्तक या तो सीधे प्रबंधन में शामिल होता है या फिर वह पेशेवर लोगों की नियुक्ति करता है जिनका बोर्ड में अहम दखल होता है।

Published by
आकाश प्रकाश   
Last Updated- November 21, 2023 | 10:37 PM IST

नए जमाने की कंपनियां जिनमें प्रवर्तक नहीं होते उनके बोर्ड को आकार देने में संस्थागत निवेशकों की बहुत अहम भूमिका होती है। बता रहे हैं आकाश प्रकाश

सार्वजनिक बाजार निवेशकों के लिए ऐतिहासिक रूप से सूचीबद्ध कंपनियों के बोर्ड के गणित और संचालन का आकलन करना एक सीधी सपाट कवायद रही है। इन कंपनियों में से अधिकांश में एक बड़ा अंशधारक यानी प्रवर्तक होता है जो आमतौर पर 35 से 55 फीसदी हिस्सेदारी रखता है।

प्रवर्तक या तो सीधे प्रबंधन में शामिल होता है या फिर वह पेशेवर लोगों की नियुक्ति करता है जिनका बोर्ड में अहम दखल होता है। स्वतंत्र बोर्ड की नियामकीय आवश्यकता के बीच अधिकांश निदेशक प्रवर्तक समर्थित समूह के होते हैं और उनका चयन निर्विरोध होता है। इसका मंत्र स्पष्ट था: स्थायी और भारी हिस्सेदारी के साथ प्रवर्तक कंपनी के बोर्ड और प्रबंधन में तगड़ा दखल रखते थे।

संचालन को लेकर लोग बोर्ड के बजाय प्रवर्तक की बाट अधिक जोहते थे। बोर्ड से बचाव की कोई अपेक्षा नहीं होती थी। वास्तव में लोग प्रवर्तक से ही अपेक्षा करते थे कि कंपनी का सही संचालन और पूंजी का उचित आवंटन होगा क्योंकि वह सबसे बड़ा अंशधारक था। कंपनी में शेयरों की खरीद बिक्री का आपका निर्णय प्रवर्तक समूह के साथ आपकी सहजता पर निर्भर करता था।

भारतीय प्रवर्तकों की बात करें तो यहां विश्वस्तरीय प्रवर्तकों से लेकर मूल्य नष्ट करने वालों तक तमाम तरह के प्रवर्तक रहे हैं। सफल निवेश के लिए यह आवश्यक है कि प्रवर्तक की गुणवत्ता तथा मूल्य निर्माण की उनकी काबिलियत का पता लगाया जाए। भारत में कुछ ऐसी कंपनियां भी हैं जिनका प्रबंधन पूरी तरह बोर्ड करता है। उनमें प्रवर्तक समूह का दबदबा नहीं है।

बहरहाल प्रवर्तकों से रहित और बोर्ड प्रबंधन वाली कंपनियों के साथ भारत का अनुभव ठीक नहीं है। एक-दो अपवादों को छोड़ दें तो हमने देखा है कि ज्यादातर मामलों में बोर्ड पर दबदबा कायम करने वाले मुख्य कार्याधिकारी यानी सीईओ को सितारा की हैसियत मिल जाती है।

बोर्ड पर इस प्रकार काबिज होने के बाद क्षतिपूर्ति के दुरुपयोग, साम्राज्य खड़ा करने, उत्तराधिकार की कमजोर योजना और कमजोर पूंजी आवंटन जैसी घटनाएं देखने को मिलीं। बोर्ड अक्सर सीईओ के सामने खड़े नहीं हो पाता और सीईओ बिना हिस्सेदारी के भी असीमित शक्तियों के साथ प्रवर्तक जैसा व्यवहार करने लगता है।

संस्थागत निवेशकों ने भी बोर्ड की सच्ची स्वायत्तता सुनिश्चित नहीं की। अमेरिका में भी जब तक कार्यकर्ता अंशधारक शक्तिशाली नहीं हुए और खराब संचालन वाली कंपनियों पर हमले शुरू नहीं किए तथा बोर्डों के खिलाफ वोटिंग नहीं शुरू की, तब तक बोर्ड सक्रिय नहीं हुए। व्यापक तौर पर बिखरी संस्थागत अंशधारिता वाली कंपनियों में भी पेशेवर प्रबंधन टीम द्वारा बोर्ड पर कब्जे की आशंका थी।

नियामक ने इस बात को चिह्नित किया और अल्पांश हिस्सेदारों को मजबूती प्रदान की। संबंधित पक्ष के लेनदेन और अन्य अहम मसलों के लिए अब आवश्यकता यह थी कि अधिकांश गैर प्रवर्तक अंशधारक पक्ष में मतदान करें। मौजूदा दौर में यह बोर्ड की तुलना में निवेशकों के संरक्षण का अधिक गहरा उपाय है।

आज हमें वेंचर कैपिटल और प्राइवेट इक्विटी आधारित कंपनियों का नया स्वरूप देखने को मिल रहा है। माना जा रहा है कि भविष्य की अधिकांश ब्लूचिप कंपनियां यहीं से निकलेंगी और आने वाले एक दशक में सैकड़ों संभावित सूचीबद्ध कंपनियां सामने आएंगी।

इन कंपनियों में अक्सर संस्थापक समूह के पास 10 फीसदी से कम हिस्सेदारी रहती है और शेष हिस्सेदारी वेंचर कैपिटल या प्राइवेट इक्विटी फंड के पास रहती है। ये कंपनियां सूचीबद्ध होने के पहले बोर्ड का पुनर्गठन करती हैं। इसमें दो-तीन निवेशक निदेशक, संस्थापक और तीन-चार स्वतंत्र निदेशक शामिल किए जाते हैं। इन बाहरी निदेशकों का चयन अक्सर निजी निवेशकों या संस्थापकों द्वारा किया जाता है।

बहरहाल कई मामलों में अनुच्छेदों में संशोधन करके कुछ निजी निवेशकों ने बोर्ड में असंगत अधिकार अपने पास रखे जबकि वे अपनी अधिकांश हिस्सेदारी त्याग चुके थे।

इन नए कारोबारों में सार्वजनिक हिस्सेदारों की रक्षा अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है। सार्वजनिक निवेशकों को बोर्ड की आवश्यकता होती है ताकि वे निजी निवेशकों और संस्थापकों के बीच संतुलन कायम कर सकें। उनकी समयावधि और प्रेरणाएं अलग हो सकती हैं।

अगर किसी कंपनी में एक बड़ा स्थायी अंशधारक नहीं होता है तो उसमें बोर्ड का प्रभाव और ताकत बहुत अधिक होती है। वहां निवेशक बोर्ड को तैयार करने में बहुत अधिक प्रभावी हो सकते हैं।

पुरानी कंपनियों में प्रवर्तक समूह बोर्ड को चलाते हैं और कंपनी की दिशा तय करते हैं और खुद को स्थायी अंशधारक मानते हैं। संस्थापक और निजी निवेशक नए दौर की सूचीबद्धता में यही भूमिका निभाने की कोशिश कर रहे हैं।

नए दौर की इन कंपनियों में हालात ऐसे हैं कि संस्थागत अंशधारक अपने स्तर पर संस्थापकों से अधिक हिस्सेदारी रख सकते हैं। कई मामलों में संस्थापक अधिक पेशेवर प्रबंधन करते हैं। वेंचर कैपिटल और प्राइवेट इक्विटी फंड पूरी तरह बाहर हो जाएंगे। ऐसे में बिना प्रवर्तक की नई कंपनी तैयार होती हैं।

ऐसी कंपनियों के साथ हमारा प्रदर्शन बेहतर नहीं रहा है। कोई एक मजबूत एकल अंशधारक होने और बंटे हुए संस्थागत स्वामित्व की स्थिति में यह बात अहम होती है कि बोर्ड की नियुक्ति कैसे होती है, उसे क्या क्षतिपूर्ति दी जाती है और उसका संचालन कैसे होता है? बोर्ड में किसका नेतृत्व रहता है? विभिन्न अंशधारकों के हितों को किस प्रकार संतुलित किया जाता है? हमें बोर्ड पर संस्थापकों का कब्जा नहीं होने देना चाहिए।

सार्वजनिक बाजार को लेकर उनके कम अनुभव को देखते हुए संस्थागत निवेशक हमेशा संस्थापकों के भरोसे नहीं रह सकते। कई मामलों में संस्थापक ऐसे व्यवहार करते हैं मानो उनके पास सामान्य से ऊपर मताधिकार हो। अच्छी बात है कि भारत में यह परंपरा नहीं पड़ी है।

संस्थागत निवेशकों को अधिक सक्रिय होना पड़ता है और यह सुनिश्चित करना पड़ता है कि वास्तव में एक स्वतंत्र और संतुलित बोर्ड हो। हर संस्थापक समूह सूचीबद्धता के पहले अहम शेयर हिस्सेदारी की मांग करता नजर आता है ताकि उसकी हिस्सेदारी सम्मानजनक लगे।

वहीं कुछ सूचीबद्धता के बाद और हिस्सेदारी जुटाने में लगे रहते हैं। यह एक अहम निर्णय है जो बोर्ड को लेना होता है। हम उत्तराधिकार से कैसे निपटेंगे? मूल संस्थापक को पद कब छोड़ना चाहिए? पूंजी का आवंटन भी एक मसला होगा।

अधिकांश संस्थापकों का ध्यान वृद्धि पर होता है और उनकी मानसिकता निवेशकों को पूंजी लौटाने की नहीं होती है। इन कंपनियों में सार्वजनिक बाजार निवेशकों को बोर्ड की चयन प्रक्रिया पर अधिक ध्यान देना होता है। जो निजी निवेशक परिभाषा के स्तर पर पूरी तरह बाहर होने वाले हैं, वे बोर्ड का निर्धारण क्यों करेंगे? क्या केवल 10 फीसदी हिस्सेदारी वाले संस्थापकों का बोर्ड पर नियंत्रण होना चाहिए?

अगर इन कंपनियों में संस्थागत शेयर निवेशकों की बहुलांश हिस्सेदारी हो तो इन निवेशकों को सही मायने में स्वतंत्र निदेशक के चयन में शामिल होना चाहिए जो सभी अंशधारकों के हितों की रक्षा करेंगे। संस्थान अक्रिय बोर्ड पर कब्जे की इजाजत की अपनी गलती को दोहरा नहीं सकते।

बाजार नियामक ने सार्वजनिक अंशधारकों को वह उपाय दिया है कि वे स्वतंत्र निदेशक चुन सकें। संस्थानों को आपस में मशविरा करना चाहिए और स्वतंत्र रहने के लिए उन निदेशकों के पीछे एकजुट होना चाहिए जिनपर वे यकीन करते हैं। विसंगतियों वाला बोर्ड अंशधारकों को नुकसान पहुंचा सकता है। निवेशकों की ओर से निष्पक्षता की मांग स्वतंत्र निदेशक तैयार करेगी।

कंपनी को यह अनुमति होनी चाहिए कि वह इन निदेशकों को सही क्षतिपूर्ति दे और उन्हें अतिरिक्त हिस्सेदारी दे। हितों के टकराव की आशंका है लेकिन अधिकांश सार्वजनिक बाजार निवेशक ऐसे निदेशकों को तवज्जो देंगे जो शेयर कीमतों की चिंता करें।

नई सूचीबद्धता के मामलों में बोर्ड की गुणवत्ता और स्वतंत्रता अहम है। कई लोग स्वतंत्रता, अनुभव और समझ के मोर्चे पर पिछड़ जाते हैं। संस्थागत निवेशकों के पास अवसर है कि वे हस्तक्षेप करें और बोर्ड को आकार दें।

यह अहम है कि वे निवेशकों के प्रति अपनी जिम्मेदारी निभाएं। अब कोई भी पर्याप्त स्वामित्व वाले प्रवर्तक समूह को संचालन आउटसोर्स नहीं कर सकता है। नए दौर की कंपनियों में इनका अस्तित्व नहीं है।

(लेखक अमांसा कैपिटल से संबद्ध हैं)

First Published : November 21, 2023 | 10:06 PM IST