वर्ष 2001 में पुरानी संसद पर पाकिस्तान समर्थित आतंकवादी समूहों के हमले की 22वीं बरसी पर गत 13 दिसंबर को संसद की नई इमारत में सुरक्षा में सेंध की घटना कई सवाल खड़े करती है। ये सवाल इसलिए हैं कि माना जा रहा था कि नई इमारत 96 वर्ष पहले बनी पुरानी संसद की इमारत की तुलना में कहीं अधिक सुरक्षा प्रणालियों और प्रक्रियाओं से लैस होगी।
कहा गया था कि नए संसद परिसर में 2001 जैसे हमले करना संभव नहीं होगा। परंतु 2001 के हमलों से तुलना दिल्ली पुलिस, अर्द्धसैनिक बलों और संसद सुरक्षा सेवा तीनों के लिए बेहतर नहीं है। ये तीनों सेवाएं संसद की सुरक्षा के लिए जिम्मेदार हैं।
वर्ष 2001 में संसद पर हमला लश्कर-ए-तैयबा और जैश-ए-मोहम्मद ने योजना बनाकर किया था। उस हमले में आधुनिक हथियार शामिल थे। इसके बावजूद वे जिस कार में सवार होकर आए थे वह मुख्य भवन के आसपास भी नहीं पहुंच पाई थी और संसद के भीतर मौजूद करीब 100 सांसदों में से किसी के साथ हमलावरों की शारीरिक झड़प नहीं हुई थी।
परंतु बुधवार को हुए हमले में शारीरिक संपर्क भी हुआ। वर्ष 2001 में हमलावरों की कार में गृह मंत्रालय का एक फर्जी स्टीकर लगा हुआ था और सुरक्षा बलों द्वारा गड़बड़ी की आशंका में सतर्क होने के बाद वह कार वापस घुमा ली गई थी। उसके बाद आतंकवादियों ने गोलीबारी शुरू कर दी और फिर गोलीबारी में सुरक्षा बलों के आठ कर्मियों और एक माली की मौत हो गई।
यह सही है कि 2023 में हुए हमलों के दोषी सामान्य निहत्थे भारतीय नागरिक हैं और इसलिए उन पर संदेह नहीं किया जा सकता लेकिन यह भी खुशकिस्मती ही है कि इस ऑपरेशन की परिकल्पना, योजना और इसके लिए जरूरी संसाधन आदि निहायत हास्यास्पद और शौकिया अंदाज में किए गए, इसलिए इसमें कोई हताहत नहीं हुआ।
दर्शक दीर्घा में दो हमलावर अपने जूतों में छिपाकर जो दो रंगीन धुएं वाले कैन ले गए थे वे किसी जहरीली गैस से भरे नहीं थे और ज्यादातर खेल के मैदानों में इस्तेमाल होते हुए देखे जाते हैं। परंतु यह प्रश्न जरूर पूछा जाना चाहिए कि आखिर दो अन्य षडयंत्रकर्ता इमारत के बाहरी हिस्से के अत्यधिक करीब कैसे पहुंचे जहां उन्होंने नारे लगाए और रंगीन धुएं के कैन इस्तेमाल किए। आंतरिक डिजाइन को लेकर भी पूछताछ होनी चाहिए जहां आगंतुकों की गैलरी सांसदों के निकट बनाई गई है और जहां से एक स्वस्थ व्यक्ति नीचे कूद सकता है।
संसद परिसर के भीतर हंगामे से परे इस घटना के बाद सुरक्षा प्रक्रिया पर भी पुनर्विचार किया जाना चाहिए। सांसद जिस लापरवाही से आगंतुकों के पास जारी करते हैं उस पर भी गौर किया जाना चाहिए। दर्शक दीर्घा में जाने वाले लोगों की सुरक्षा जांच का स्तर वैसा भी नहीं था जैसा कि दुनिया और भारत के भी कुछ प्रमुख हवाई अड्डों में देखने को मिलता है।
अधिकांश बड़े हवाई अड्डों पर जूतों की अलग से जांच की जाती है। इन दिक्कतों को उन्नत तकनीक से दूर किया जा सकता है लेकिन असल मुद्दा है संसद के आसपास व्यापक सुरक्षा योजना। इसके लिए केवल यातायात तथा पैदल चलने वालों को रोकने या नागरिकों पर निगरानी बढ़ाने के अलावा कुछ कदम उठाने होंगे।
अमेरिका में कैपिटल बिल्डिंग पर 6 जनवरी, 2021 को हुए हमले ने भी दिखाया कि सार्वजनिक प्रशासन से जुड़े संस्थान किस तरह अप्रत्याशित हमलों की जद में हैं। भारत जैसे जटिल लोकतांत्रिक देश में कई बाहरी और आंतरिक खतरे हमेशा रहते हैं।
संसद की सुरक्षा के जिम्मेदार लोगों को ऐसे खतरों का अनुमान लगाकर पूरी योजना के साथ उनसे निपटने की तैयारी करनी चाहिए। इस प्रक्रिया में जवाबदेही तय करने और सुरक्षा ढांचा मजबूत करने के साथ खुफिया मोर्चे पर भी अधिक मेहनत करने की जरूरत है।