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Basel III rules: बेसल-3 पूंजी मानक….क्या कभी सबक लेंगे बैंकर?

अमेरिकी नियामक बेसल-3 मानकों के तहत पूंजी आवश्यकता निर्धारण में कई बदलावों का प्रस्ताव रख रहे हैं।

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टी टी राम मोहन   
Last Updated- October 16, 2023 | 10:51 PM IST

बैंकर बेसल-3 पूंजी मानकों (Basel III rules) का विरोध कर रहे हैं लेकिन वास्तव में ये मानक न केवल बैंकों के लिए बल्कि समग्र अर्थव्यवस्था के लिए भी लाभदायक हैं। बता रहे हैं टीटी राम मोहन

जेपी मॉर्गन चेज के मुख्य कार्याधिकारी जेमी डिमॉन उन गिनेचुने बैंकरों में से एक हैं जो नियामकों और कानून बनाने वालों के विरुद्ध बोलने में हिचकिचाते नहीं हैं।

उन्होंने डॉड-फ्रैंक अधिनियम की तीखी आलोचना की थी जिसकी बदौलत वैश्विक वित्तीय संकट के बाद अमेरिका में नियमन सख्त किए गए थे।

अब डिमॉन ने अमेरिकी नियामकों द्वारा बैंकों के लिए तैयार किए गए बेसल-3 नियमों को आड़े हाथों लेने का निश्चय किया है। ये वे अंतिम नियम हैं जो वैश्विक वित्तीय संकट के बाद बनी सहमति के तहत तय मानकों के क्रियान्वयन के लिए आवश्यक हैं। नए नियमों का अर्थ है बैंकों द्वारा अधिक पूंजी की आवश्यकता। संभव है कि डिमॉन नियामकों को आड़े हाथों लेकर साहस दिखा रहे हों लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि वह सही हैं।

अमेरिकी नियामक बेसल-3 मानकों के तहत पूंजी आवश्यकता निर्धारण में कई बदलावों का प्रस्ताव रख रहे हैं। वे चाहते हैं कि 100 अरब डॉलर से अधिक परिसंपत्तियों वाले सभी बैंक आंतरिक मॉडल के बजाय मानक मॉडलों का इस्तेमाल करें और इसी आधार पर ऋण जोखिम तथा परिचालन जोखिम के लिए पूंजी का बंदोबस्त करें।

बाजार जोखिम के लिए बैंकों को मानक और मॉडल आधारित रुख अपनाकर जोखिम वाली संपत्तियों का आकलन करना होगा और दोनों में से अधिक वाले का इस्तेमाल करना होगा। इसके अलावा बैंकों को बिक्री के लिए उपलब्ध प्रतिभूतियों पर अघटित लाभ या नुकसान को भी दर्शाना होगा। ये तथा ऐसे अन्य प्रस्तावों के कारण बैंकों को पूंजी बढ़ानी होगी। आवश्यकता भी इसी बात की है।

जोखिम के आकलन के लिए मानक मॉडल के उपयोग की आवश्यकता एक बड़ा बदलाव है। मानक मॉडल में जोखिम का आकलन औसत जोखिम अनुभव के आधार पर किया जाता है। बेसल-3 के पहले बेसल-2 नियमों के तहत पूरा ध्यान इस बात पर केंद्रित था कि आंतरिक जोखिम आधारित मॉडल के आधार पर बैंकों के लिए जोखिम का आकलन किया जाए। जो बैंक प्रभावी ढंग से जोखिम का प्रबंधन करते थे उनकी पूंजी आवश्यकता मानक मॉडल के तहत वांछित स्तर से कम रहती थी। नतीजा, इक्विटी पर अच्छा प्रतिफल मिलता था।

केवल वही बैंक आईआरबी रुख का इस्तेमाल कर पाते थे जिनका जोखिम मॉडल मजबूत होता था। नियामक अब आईआरबी मॉडल का इस्तेमाल करने के पहले दोबारा सोचते हैं। वैश्विक वित्तीय संकट के समय पता चला था कि आईआरबी मॉडल का इस्तेमाल करने वाले कई बैंकों के पास घाटा वहन करने के लिए पर्याप्त पूंजी मौजूद नहीं थी।

बेसल-3 मानक बनाते समय नियामकों ने यह पाया कि आईआरबी मॉडल पर बहुत अधिक जोर देना समझदारी नहीं है। उन्होंने पहले की पूंजी आवश्यकता के पूरक के रूप में सामान्य ऋण अनुपात का इस्तेमाल शुरू किया जो कुल संपत्तियों के तीन प्रतिशत की टियर वन पूंजी के रूप में परिभाषित था। इसका अर्थ है डेट: इक्विटी के बीच 33:1 का अनुपात। अगर कर्ज का यह अनुपात अधिक लग रहा तो यह याद रखें कि बैंकों की स्थिति पहले इससे भी अधिक बुरी थी।

ताजा बेसल-3 प्रस्तावों के साथ अमेरिकी नियामक रुख बदल रहे हैं। अब वे बैंकों के आंतरिक मॉडल पर भरोसा नहीं करेंगे। वे ऋण जोखिम तथा परिचालन जोखिम के आंतरिक मॉडल के बजाय बाजार जोखिम के मॉडल के साथ सुरक्षित रहना चाहते हैं। भारतीय रिजर्व बैंक (RBI) आईआरबी मॉडल पर आधारित ऋण नुकसान के आकलन की दिशा में बढ़ता रहा है अब शायद वह इसकी समीक्षा करे।

इस नए अमेरिकी प्रस्ताव के पीछे का सिद्धांत बहुत साधारण है: बैंकों के लिए अधिक इक्विटी पूंजी कम से बेहतर है। डिमॉन उन दलीलों के साथ इसका विरोध कर रहे हैं जो हम बैंकरों से वर्षों से सुनते आ रहे हैं। दो अमेरिकी विद्वान अनत अदमाती और मार्टिन हेलविग ने एक पूरी किताब इन तर्कों की खामियां गिनाने पर केंद्रित कर दी जिसका नाम है द बैंकर्स न्यू क्लॉथ्स।

डिमॉन कहते हैं कि अधिक इक्विटी पूंजी से कर्जदारों के लिए ऋण दर बढ़ेगी। यह इस धारणा पर आधारित है कि इक्विटी ऋण से महंगी है, खासतौर पर तब जबकि हम खाते के ऋण के लिए कर को बचाव के रूप में इस्तेमाल करते हैं। बैंकिंग में यह इसलिए कारगर होता है कयोंकि बैंक ऋण बहुत कम मूल्य वाला होता है।

बैंकों को कर्ज देने वाले जानते हैं कि बड़े बैंकों को नाकाम नहीं होने दिया जाएगा और वे कम दर पर ऋण देने को तैयार रहते हैं। ऐसे में बैंकों को एक तरह की सब्सिडी मिलती है। इसकी कीमत करदाता चुकाते हैं। इसकी अनदेखी करने से और अधिक बैंक नाकामियों की राह निकलती है।

डिमॉन यह भी कहते हैं कि अगर पूंजी की आवश्यकता बढ़ती है तो निवेशकों को बैंक के शेयर आकर्षक नहीं लगते हैं और इक्विटी पर प्रतिफल कम होता है। बैंक की शेयर कीमत मूल्य और आय के अनुपात तथा प्रति शेयर आय का गुणक होती है।

उच्च पूंजी आवश्यकता के कारण प्रति शेयर आय में कमी आती है लेकिन मूल्य और आय अनुपात में इजाफा होता है क्योंकि निवेशक मानते हैं कि उच्च शेयर मूल्य वाले बैंक सुरक्षित होते हैं। वे उच्च शेयर पूंजी वाले बैंक शेयरों का दोबारा मूल्यांकन करते हैं।

उपरोक्त दोनों में से कौन से प्रभाव का दबदबा होगा? बैंकर शायद सोचते हैं कि मूल्य आय प्रभाव का दबदबा होगा और इसका नतीजा उच्च मूल्यांकन के रूप में सामने आता है। यही वजह है कि बेहतरीन प्रदर्शन वाले बैंकों में पूंजी पर्याप्तता अनुपात न्यूनतम नियामकीय आवश्यकता से अधिक है।

अमेरिका में अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के बैंकों के नमूने की पूंजी पर्याप्तता 16 फीसदी से अधिक है जबकि अधिकांश बैंकों में जरूरत करीब 11 फीसदी की है। बहुत बड़े बैंकों के मामले में यह 16-17 फीसदी है। ब्रिटेन, स्विट्जरलैंड और स्वीडन में औसत क्रमश: करीब 22,20 और 23 फीसदी है।

भारत में निजी बैंक 19 फीसदी की पूंजी पर्याप्तता पर संचालित है हालांकि नियामकीय आवश्यकता 12 फीसदी की है। अगर उच्च पूंजी निवेशकों को दूर करती है तो हम इस बात को कैसे समझें कि औसत से अधिक पूंजी वाले बैंकों का मूल्यांकन भी सबसे अधिक होता है।

बैंकरों को इस बात से अवगत होना चाहिए तो फिर हर बार नियामकीय जरूरत बढ़े पर वे ऐसा क्यों करते हैं? इसका एक स्पष्टीकरण तो यही है कि बैंकरों को भी शेयर प्रतिफल के आधार पर बोनस मिलता है। हल यह है कि बैंक बोर्ड प्रदर्शन के आधार पर दिए जाने वाले लाभ को बदलें और शेयर पर प्रतिफल के बजाय उसे जोखिम समायोजन पूंजी वाला किया जाए। कर्ज का ऊंचा स्तर दिखाने दिया जाए ताकि यह सामने आए कि शेयर पर उच्च प्रतिफल समस्या का हल नहीं है।

नियामकीय रुझान बैंकों के लिए पूंजी की आवश्यकता बढ़ाने का है। यह बैंकों और अर्थव्यवस्था दोनों के लिए बेहतर है। सवाल यह है: क्या बैंकर इस हकीकत को गरिमा के साथ स्वीकार कर पाएंगे?

First Published : October 16, 2023 | 10:51 PM IST