बात साल 1994 की है जब सरकार ने नई दिल्ली में मोबाइल फोन के बाजार में 30,000 ग्राहकों का लक्ष्य रखा था। जब एस्सार ने एक लाख ग्राहकों का नेटवर्क बनाया तो सभी हैरान हुए। वहीं कोलकाता में पहला मोबाइल नेटवर्क शुरू करने वाली कंपनी मोदी टेल्स्ट्रा एक दिन में 30 ग्राहक पाने के लिए संघर्ष कर रही थी। उन दिनों वॉयस कॉल काफी महंगी हुआ करती थी। एक मिनट की बातचीत के लिए 18 रुपये खर्च करने पड़ते थे और एक मोबाइल की कीमत भी तब 40,000 रुपये हुआ करती थी। बेशक मोबाइल रखना बूते की बात नहीं थी जो पैसे वाले थे उनके लिए ही यह लक्जरी थी।
उस दौर के बाद से अब काफी कुछ बदल चुका है। अब बात करते हैं साल 2020 की जब सरकार ने नई दिल्ली में ग्राहकों की संख्या 5.3 करोड़ बताई है। अब वॉयस कॉल बिल्कुल मुफ्त है और भारत दुनिया में डेटा का सबसे बड़ा उपयोगकर्ता है। एक 4जी फोन आपको आजकल कम से कम 500 रुपये में मिल सकता है जो शायद दुनिया में सबसे सस्ता है। मोबाइल घनत्व साल 2001 के 4 प्रतिशत से बढ़कर आज 88 प्रतिशत से अधिक हो गया है। दूरसंचार क्रांति के पैमाने और प्रभाव को बढ़ा-चढ़ा कर कहना असंभव है।
हालांकि यह एक ऐसा उद्योग है जिसकी नियामकीय या नीतिगत हस्तक्षेपों पर ज्यादा निर्भरता वाली स्थिति अब तक नहीं बदली है और न ही किसी विवाद की स्थिति बनने पर अदालत के आदेशों का असर होता है। 1996 में यह स्पष्ट था कि 23 सर्किल में काम करने वाली दो लाइसेंस प्राप्त कंपनियों का कोई व्यावहारिक वित्तीय व्यापार मॉडल नहीं था जिससे कि उनका कारोबार अच्छी तरह चलता रहे। दूरसंचार परिचालकों ने सामूहिक रूप से बतौर लाइसेंस शुल्क 27,000 करोड़ रुपये खर्च किए। लेकिन उनमें से कम से कम आठ को भारी नुकसान उठाना पड़ रहा था और उनकी कमाई का उनके सालाना लाइसेंस शुल्क खर्च से कोई मिलान नहीं था।
मोबाइल का सपना धराशायी होने ही वाला था। लेकिन सरकार ने ऑपरेटरों को सालाना लाइसेंस शुल्क से राजस्व हिस्सेदारी मॉडल में स्थानांतरित करके थोड़ी राहत दी। प्रत्येक सर्किल में दो खिलाडिय़ों के दबदबे के बावजूद जब सरकारी कंपनियों को इस क्षेत्र में आने की इजाजत मिली तब इसमें बदलाव आया। मोबाइल क्रांति शुरू होने के ठीक दो साल बाद इस बदलाव वाले पैकेज की शुरुआत हुई थी। हालांकि इन गुजरते सालों के बाद उच्चतम न्यायालय के एक फैसले से दूरसंचार की कार्यप्रणाली में एक बार फि र से बदलाव आ सकता है। दरअसल अदालत ने पिछले साल एजीआर बकाया भुगतान करने के लिए दूरसंचार कंपनियों से जुड़ा एक फैसला सुनाया था। मुमकिन है कि पहले की तरह ही अब भारत में रिलायंस जियो और भारती एयरटेल (एक समय में हरेक सर्किल में 12 परिचालक भी थे) जैसी दो निजी कंपनियों का दबदबा कायम हो जाए और इनका ही बोलबाला बरकरार रहे। तीसरी कंपनी वोडाफोन आइडिया अब इतिहास के पन्नों में सिमट सकती है।
भुगतान करने के आदेश के दबाव से तिलमिलाई आर्थिक रूप से संकटग्रस्त कंपनी वोडाफोन आइडिया ने इस सप्ताह अदालत को बताया कि उसके राजस्व में 6 लाख करोड़ रुपये का घाटा हुआ है और करीब एक लाख करोड़ रुपये की इक्विटी खत्म हो गई है। ऐसे में अगर अदालत 50,000 करोड़ रुपये का भुगतान करने के लिए 15 साल का समय भी देती तब भी इसे अपने अस्तित्व को बनाए रखने के लिए अपने एआरपीयू (प्रति यूजर औसत राजस्व) को दोगुना करना होगा जो कि बेहद मुश्किल है।
पीछे मुड़कर देखा जाए तो राजस्व साझेदारी के मॉडल ने बड़ा बदलाव लाने में अहम भूमिका निभाई और ग्राहकों की संख्या नाटकीय रूप से बढ़ गई। साल 1995 और 1999 के दौरान 10 लाख से भी कम ग्राहक जुड़े और इनकी तुलना में 1999 से 2002 के बीच इन ग्राहकों की तादाद बढ़कर 1.2 करोड़ हो गई है। इस कदम को सरकार और भारतीय दूरसंचार नियामक प्राधिकरण (ट्राई) ने अन्य अहम फैसलों के जरिये मजबूती मिली। उदाहरण के तौर पर निजी और सरकारी स्वामित्व वाली दूरसंचार कंपनियों के बीच समान अवसर सुनिश्चित करने के लिए एक इंटरकनेक्ट व्यवस्था लागू की गई थी। साथ ही घाटा शुल्क को कम किया गया और बाद में इसे समाप्त कर दिया गया साथ ही टैरिफ कम करने की शुरुआत भी हुई।
लेकिन सबसे प्रभावशाली फैसला 2004 में आया जिसके मुताबिक सिर्फ कॉल करने वाले पक्ष को ही भुगतान करने की व्यवस्था की शुरुआत हुई जिससे इनकमिंग कॉल मुफ्त हो गया। साल 2004 से 2007 के बीच ग्राहकों की तादाद 23.3 करोड़ से अधिक हो गई। इसी अवधि के दौरान सरकार ने साल 2002 में फिक्स्ड लाइन ऑपरेटरों को अपने सर्किल के भीतर सीमित सेवाएं देने की अनुमति देकर एक और संकट पैदा कर दिया। जीएसएम परिचालकों को लगा कि यह कदम रिलायंस और टाटा को पिछले दरवाजे से प्रवेश देने से जुड़ा था। तत्कालीन संचार मंत्री अरुण शौरी ने दोनों पक्षों से अदालत से बाहर समझौता कराने की कोशिश की। हालांकि सभी खुश नहीं थे।
इस बीच रिलायंस द्वारा मोबाइल में डेटा क्रांति लाने की कोशिश की जो अपने समय से आगे की कोशिश थी। मॉनसून हंगामा ऑफर के जरिये 501 रुपये में डेटा और टॉक टाइम के साथ मोबाइल फोन की पेशकश की गई थी जिसे ग्राहकों ने हाथों-हाथ लिया। हालांकि ये दरें टिकाऊ नहीं थीं और रिलायंस को 4,500 करोड़ रुपये का घाटा बट्टा-खाते में डालने के लिए मजबूर होना पड़ा।
केवल रिलायंस ही नहीं यहां तक कि सरकार ने भी मोबाइल को आम जनता के लिए किफायती बनाने पर जोर दिया। तत्कालीन संचार मंत्री दयानिधि मारन ने दूरसंचार परिचालकों को रोमिंग शुल्क में 56 प्रतिशत तक की कटौती करने और एक साल के वैधता कार्ड की पेशकश करने के लिए प्रोत्साहित किया। हर सर्किल में दो और परिचालकों को काम करने की अनुमति दी गई और प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) की सीमा 49 फीसदी से बढ़ाकर 74 फीसदी कर दी गई। साल 2004-05 और 2005-06 के बीच एफडीआई 541 करोड़ रुपये से बढ़कर 2,751 करोड़ रुपये हो गई।
मोबाइल कंपनियां पैसे कमा रही थीं और इस क्षेत्र में काफी संभावनाएं दिख रही थीं। लेकिन 2008 में तत्कालीन दूरसंचार मंत्री ए राजा के विवादास्पद फैसलों ने उद्योग को जमीन पर ला खड़ा कर दिया। सबसे पहले, उन्होंने सफलतापूर्वक 3जी स्पेक्ट्रम की नीलामी कराई लेकिन एक परिचालक को पांच मेगाहट्र्ज बैंड स्पेक्ट्रम (वैश्विक स्तर पर एक परिचालक को 20 मेगाहट्र्ज दिया जाता है) तक सीमित कर दिया जिससे प्रतिस्पर्धा जबर्दस्त तरीके से बढ़ी।
ऑपरेटरों ने इसी सीमित 3जी स्पेक्ट्रम के लिए 67,000 करोड़ रुपये का भुगतान किया। यहां तक कि भारती एयरटेल और वोडाफोन जैसी दिग्गज कंपनियां जो आक्रामक तरीके से बोली लगा रही थी उनके पास भी देश भर के लिए 3जी स्पेक्ट्रम हासिल करने के लिए नकदी नहीं थी। दूरसंचार कंपनियों के पास पैसे की काफी कमी हो गई। सेवाओं की शुरुआत करने की गति धीमी हो गई, 3जी का शुल्क ज्यादा रखा गया और उम्मीद के मुताबिक जो डेटा क्रांति होनी थी वह सीमित हो गई।
राजा का दूसरा फैसला और ज्यादा भयावह था। राजा ने कथित तौर पर अपने दोस्तों की मदद के लिए लाइसेंस से जुड़े नियमों में बदलाव करते हुए इसे ‘पहले आओ पहले पाओ’ के आधार पर लाइसेंस देने का फैसला कर लिया। उन्होंने चार-पांच नई कंपनियों को लाइसेंस देने की पेशकश की और अचानक प्रत्येक सर्किल में करीब एक दर्जन कंपनियां आ गईं जिससे गलाकाट प्रतियोगिता बढ़ी। शुल्क घटकर 2005 के स्तर पर आ पहुंचा। कारोबार अव्यावहारिक हो गया लेकिन ग्राहकों के पास कई विकल्प थे।
ताबूत में अंतिम कील तब लगी जब नियंत्रक और महालेखा परीक्षक (सीएजी) ने आरोप लगाया कि सरकार ने मामूली कीमतों पर स्पेक्ट्रम देकर 1.76 लाख करोड़ रुपये का अनुमानित नुकसान उठाया है। इसके बाद राजा को जेल जाना पड़ा और इस मामले की सीबीआई जांच भी की गई जिसमें अंतत: राजा को दोषी ठहराने के लिए कुछ नहीं मिला। सीएजी का संज्ञान लेते हुए उच्चतम न्यायालय ने 122 लाइसेंस रद्द कर दिए जिनमें शीर्ष वैश्विक दूरसंचार कंपनियों के लाइसेंस भी शामिल थे। इन कंपनियों को भारी नुकसान हुआ और वैश्विक निवेशकों ने भारत में निवेश के माहौल पर सवाल भी उठाए।
हालांकि इस उथल-पुथल की वजह से दूरसंचार क्षेत्र में पहली बार ठोस एकीकरण दिखा और करीब पांच से छह परिचालकों को अपना कारोबार बंद करना पड़ा। गलाकाट प्रतियोगिता का दौर खत्म हो गया था। परिचालक प्रति मिनट के आधार पर अपनी वसूली बढ़ा सकते थे और ग्राहक इसका भुगतान करने के लिए तैयार थे। प्रत्येक एआरपीयू वित्त वर्ष 2013 की चौथी तिमाही के 100 रुपये से बढ़कर वित्त वर्ष 2016 की पहली तिमाही में 128 रुपये हो गया। उद्योग एबिटा 2.53 लाख करोड़ रुपये के सकल राजस्व के साथ 2012-13 के 29,500 करोड़ रुपये से लगभग दोगुना होकर 2015-16 में 54,000 करोड़ रुपये हो गया।
लेकिन कुछ चिंताजनक बदलाव के आसार भी नजर आ रहे थे। यह स्पष्ट था कि सभी स्पेक्ट्रम की नीलामी सरकार द्वारा की जाएगी और यूएएसएल लाइसेंस की शुरुआत के साथ स्पेक्ट्रम को सेवाओं से डी-लिंक किया जाएगा ताकि दूरसंचार कंपनियां किसी भी सेवा के लिए किसी भी स्पेक्ट्रम का उपयोग कर सकें।
2015 की नीलामी में विशेष रूप से 900 मेगाहट्र्ज बैंड में (इस बैंड के लाइसेंसधारियों के लाइसेंस की अवधि खत्म हो रही थी लेकिन यह 4जी के लिए मशहूर बैंड था) कीमतें तीन से पांच गुना तक बढ़ गईं। दूरसंचार कंपनियों ने अपनी सेवाएं (1.5 लाख करोड़ रुपये) शुरू करने के बाद से जितना खर्च नहीं किया था उसके मुकाबले स्पेक्ट्रम पर ज्यादा खर्च कर दिया और महज दो सालों यानी 2015 और 2016 में स्पेक्ट्रम के लिए 1.75 लाख करोड़ रुपये खर्च किए गए।
यह एकमात्र चुनौती नहीं थी। मुकेश अंबानी ने देश भर में 4जी नेटवर्क की पेशकश करते हुए बाजार पर छा जाने वाली रणनीति शुरू की जबकि उनके प्रतिस्पर्धी काफ ी पीछे थे। अंबानी ने वॉयस कॉल मुफ्त कर दिया और बेहद मामूली कीमत पर डेटा की पेशकश की। प्रतिस्पद्र्धी कंपनियों की शिकायतों के बावजूद छह महीने के लिए सेवाएं मुफ्त कर दी गईं। वोडाफोन आइडिया जैसी कंपनियां जिन्हें 4जी के भविष्य को लेकर संदेह था उन्हें भी अपना रास्ता बदलना पड़ा।
वित्तीय हलचल वाली स्थिति बन गई। मौजूदा परिचालकों को न केवल स्पेक्ट्रम से जुड़े कर्जों का भुगतान करना था बल्कि उन्हें जियो के साथ प्रतियोगिता करने के लिए भी ज्यादा निवेश करना था। इसके अलावा ग्राहकों को अपने साथ बनाए रखने के लिए मार्जिन पर समझौता करते हुए शुल्क दरें भी कम करनी थीं।
उद्योग पर कर्ज का बोझ आसमान छूने लगा और यह 2015 के 2.8 लाख करोड़ रुपये से बढ़कर 2018 में 7.7 लाख करोड़ रुपये हो गया। वित्त वर्ष 2017 की पहली तिमाही में प्रति यूजर औसत राजस्व 141 रुपये के आकर्षक स्तर पर पहुंच गया था जो बाद में घटकर आधा हो गया। उद्योग एबिटा भी वित्त वर्ष 2016 के 54,000 करोड़ रुपये से करीब आधा कम होकर वित्त वर्ष 2019 में महज 24,400 करोड़ रुपये रह गया।
जियो के बाजार में आक्रामक रूप से छाने से एक दूसरे स्तर का एकीकरण हुआ। आरकॉम और एयरसेल जैसे कई परिचालक एनसीएलटी में गए। टाटा और टेलीनॉर ने अपनी संपत्ति को मामूली कीमतों में बेच दिया। बाजार में कंपनियों का हैसियत के हिसाब से क्रम भी बदल गया। जियो राजस्व हिस्सेदारी में पहले पायदान वाली कंपनी बन गई और इसने भारती एयरटेल और वोडाफोन को पीछे छोड़ दिया। लेकिन जियो ने 50 करोड़ मोबाइल ग्राहकों को अपने पाले में लाने की जो आक्रामक मुहिम शुरू की थी वह अब कम हुई है और कंपनी ने पिछले दिसंबर से ही कीमत से जुड़ी प्रतिस्पद्र्धा से दूरी बना ली। ऐसे में शुल्क के साथ-साथ एआरपीयू धीरे-धीरे बढ़ा है। लॉकडाउन की वजह से मोबाइल और डेटा का इस्तेमाल बढ़ा है जिससे परिचालकों का राजस्व बढ़ाने में भी मदद मिली है।
साल 2020 के परे देखें तो दूरसंचार का भविष्य दो बातों पर निर्भर करेगा मसलन उच्चतम न्यायालय उन्हें एजीआर बकाया राशि का भुगतान करने के लिए कितना समय देता है और क्या वोडाफोन आइडिया कुछ और कोशिश करने में दिलचस्पी दिखाएगी।