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  लेख  आईपीओ प्रक्रिया क्यों है इतनी जटिल?
लेख

आईपीओ प्रक्रिया क्यों है इतनी जटिल?

बीएस संवाददाता बीएस संवाददाता —September 1, 2021 1:23 AM IST
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बड़ी कंपनियों की सूची में शुमार इकाइयों के लिए आरंभिक सार्वजनिक निर्गम (आईपीओ) लाना एक अनिवार्य शर्त समझी जाती है। हालांकि, भारत के आईपीओ बाजार की कई बातें निरर्थक लगती हैं। ये बातें निवेशकों, संस्थापकों, फंडों और कारोबारी समूहों सभी पर असर डालती हैं। द्वितीयक बाजार (सूचीबद्धता के बाद कंपनियों के शेयरों के कारोबार की जगह) सरल एवं तार्किक लगता है। एक एकीकृत व्यवस्था में सभी का स्वागत होता है और ऑर्डर बुक में कीमतें झलकने लगती हैं। सभी शेयर खरीदार एक मंच पर आ जाते हैं और इससे अंतर नहीं पड़ता है कि आपने कितने शेयर खरीदे हैं। सटीक खुलासे और बाजार में किसी तरह की ज्यादती से सुरक्षा प्रदान करने के लिए हमें एक नियामक की जरूरत होती है। बाजार तंत्र ठीक ढंग से काम करता है और नई सूचनाएं सामने आने के कुछ समय बाद ही एक उचित मूल्य का निर्धारण हो जाता है। द्वितीयक बाजार में यह चिंता भी अधिक नहीं रहती है कि छोटे निवेशक अनुचित मूल्य पर शेयर खरीद कर नुकसान उठा सकते हैं। एक सक्षम बाजार छोटे निवेशकों के हितों की रक्षा के लिए सतत रूप से काम करता रहता है। मगर बाजार में सूचीबद्धता से एक दिन पहले, जब किसी कंपनी के शेयर का कारोबार शुरू नहीं होता है, तब हम अपना नजरिया बदल लेते हैं और लेनदेन को पूरी तरह अलग ढंग से देखते हैं। तो क्या केवल एक दिन में इतना कुछ बदल जाता है। 
आईपीओ प्रक्रिया पर सरकार के नियंत्रण के पक्ष में प्रमुख तर्क दिया जाता है कि संदर्भ मूल्य पर्दे पर नहीं दिखता है इसलिए भ्रामक विज्ञापन छोटे एवं तकनीकी रूप से कमजोर निवेशकों को नुकसान पहुंचा सकते हैं। इस आशंका को दूर करने का एक आसान रास्ता है और वह है आईपीओ नीलामी में किसी ऑर्डर के न्यूनतम मूल्य की सीमा बढ़ाना। इससे कमजोर निवेशक स्वत: ही बाहर हो जाएंगे। उदाहरण के लिए वायदा एवं विकल्प कारोबार में अनुबंध का न्यूनतम आकार 1 लाख या 2 लाख रुपये रखना अर्थपूर्ण माना जाता है। 

एक बार यह काम पूरा होने के बाद सूचीबद्ध कंपनियों को खुलासा एवं संचालन नियमों के अनुपालन के लिए तैयार करना होगा। उदाहरण के लिए आईपीओ आने से छह महीने पहले यह कार्य पूरा कर लेना होगा और तब उसके बाद वे प्री-ओपनिंग ऑक्शन (पूर्वाह्नï 9:00 से 9:15 बजे तक) में किसी अन्य प्रतिभूति की तरह भागीदारी के लिए तैयार होंगी, बस एक असामान्य शर्त यह होगी कि मार्केट लॉट का आकार बड़ा रखना होगा। पिछले कारोबारी सत्र (मान लें कल) में कारोबार करने वाली प्रतिभूति के लिए प्री-ओपनिंग ऑक्शन एक गैर-सूचीबद्ध शेयर के लिए भी पूरी तरह कारगर ढंग से काम करेगा। ऐसी आईपीओ प्रक्रिया में मूल्य भी उचित स्तर पर तय होगा और पूरी प्रक्रिया में आने वाला खर्च भी कम हो जाएगा। इतना ही नहीं, आईपीओ से पूर्व कई महीनों तक संस्थापकों एवं धन मुहैया कराने वाले लोगों पर दबाव भी कम हो जाएगा। 
आखिर, ये सरल बातें एक साथ क्यों नहीं क्रियान्वित हो पाती हैं? आईपीओ बाजार में एक विचित्र राजनीतिक अर्थव्यवस्था जनित समस्या है। कई बिचौलिये आईपीओ में फीस अर्जित करते हैं। वे नियामकों से वे प्रक्रियाएं लाने के लिए संपर्क करते रहते हैं जो उन्हें अधिक फीस दिला सकती हैं। संस्थापक अपने जीवन काल में एक या अधिक से अधिक दो आईपीओ देखते हैं। आईपीओ बाजार की त्रुटियों के बारे में सोचने में उनकी दिलचस्पी नहीं है। प्रत्येक संस्थापक नीति निर्धारकों द्वारा तय नियमों को स्वीकार कर लेता है और आगे बढ़ जाता है। संस्थापक धन सृजन करने वाले होते हैं। उन्हें अपनी कंपनी सूचीबद्ध कराने के लिए एक ऐसी व्यवस्था से गुजरना पड़ता है जिसमें बिचौलियों का झुंड फीस कमाने के चक्कर में रहता है। बिचौलिये नियामक के पास हर समय मंडराते रहते हैं जबकि संस्थापक नियमन के पीछे राजनीतिक एवं आर्थिक पहलुओं को समझने की अधिक चेष्टïा नहीं करते हैं।  लगभग सभी देशों में यह समस्या है। भारतीय समाजवाद के बारे में एक विचित्र बात यह है कि नियामक आईपीओ प्रक्रिया पर पूर्ण नियंत्रण रखते हैं। उदाहरण के लिए जब गूगल 2004 में अपना आईपीओ लेकर आई तो उसके संस्थापकों ने नया तरीका अपनाया और एक ऐसी आईपीओ प्रक्रिया लेकर आए जो उनके लिए अधिक कारगर रही। भारत के परिप्रेक्ष्य में संस्थापकों को ऐसी स्वतंत्रता नहीं दी गई है। भारत में बिचौलिये स्थापित व्यवस्था की जटिलता का अपने फायदे के लिए अधिक से अधिक इस्तेमाल करते हैं। ऐसी परिस्थिति में क्या किया जा सकता है? निवेशकों के लिहाज से देखें तो आईपीओ के समय शेयर खरीदकर तत्काल इन्हें बेचने से उन्हें अत्यधिक प्रतिफल मिलता है। इस लाभ को हम सावधान रहने और इन प्रक्रियाओं से गुजरने से जुड़े व्यावहारिक गतिरोध के एवज में मिली पुरस्कार राशि के रूप में देखते हैं। 

पोर्टफोलियो प्रदर्शन के लिहाज से देखें तो आईपीओ के समय शेयर खरीदने और कंपनी के सूचीबद्ध होने के बाद शेयर खरीदने के बीच कोई अंतर नहीं है। दीर्घ अवधि के लिए प्रतिभूति खरीदने वाले किसी निवेशक के लिए द्वितीयक बाजार में कमोबश उसी मूल्य पर शेयर उपलब्ध होता है और व्यावहारिक दिक्कतें भी कम होती हैं। जिन लोगों को आईपीओ के समय शेयर नहीं मिलता है वे निराश हो जाते हैं लेकिन सूचीबद्धता के तत्काल बाद शेयर खरीदने की जहमत उठाने में नाकाम रहते हैं। अगर आप आईपीओ के दौरान 100 रुपये चुकाने के लिए तैयार हैं तो आईपीओ के बाद लगभग इतनी ही कीमत अदा करने के लिए तैयार रहना चाहिए। 
अगर निवेशक जोखिम एवं प्रतिफल का सही आकलन नहीं करते हैं तो आईपीओ में वे अपने निवेश के साथ निरंतरता का समावेश नहीं कर पाते हैं। आईपीओ लाने वाली कंपनियों के लिए दो तरीकों पर विचार करने की जरूरत है। मौजूदा सूचीबद्ध कंपनी में विलय या बिक्री सूचीबद्धता का दर्जा पाने का एक तरीका हो सकता है और इससे बिचौलियों से भी बचा जा सकता है। भारत की तुलना में विदेश में आईपीओ लाना आसान है। यह एक संदर्भ मूल्य निर्धारित करेगा जो भारत में आईपीओ प्रक्रिया से संबंधित जटिलताएं कम कर देगा।

आईपीओ बाजार की राजनीतिक अर्थव्यवस्था में नियामक बिचौलियों के साथ सहानुभूति दिखाते हैं और एक ऐसी व्यवस्था तैयार की जाती है जिससे एक तय रणनीति के तहत संस्थापकों, वीसी और पीई फंडों एवं कारोबारी प्रतिष्ठनों से रकम ऐंठ ली जाती है। यह राजनीतिक अर्थव्यवस्था भेदिया कारोबार का नियमन करने जैसी है जिसमें वित्तीय नियामक गैर-वित्तीय कंपनियों की अनदेखी कर वित्तीय कंपनियों के कर्मचारियों की मदद करते हैं। फंड एवं कारोबारी संस्थान आईपीओ बाजार के नियमित ग्राहक हैं और इस राजनीतिक अर्थव्यवस्था में संतुलन स्थापित करने के लिए समान दबाव डालना उनके हक में है। 
(लेखक पुणे इंटरनैशनल सेंटर में शोधकर्ता हैं।)

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