पिछले कुछ वर्षों में भारत की अर्थव्यवस्था की चाल सुस्त पड़ गई है। वर्ष 2016-17 से लेकर 2019-20 तक लगातार तीन वर्षों के दौरान सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) की वृद्धि दर कम होकर 4 प्रतिशत रह गई। यह तब हुआ जब कोविड-19 महामारी का प्रकोप शुरू भी नहीं हुआ था। आखिर आर्थिक वृद्धि दर कम होने का कोई तो कारण रहा होगा? आलोचकों का दावा है कि नरेंद्र मोदी सरकार की गलत नीतियां-नोटबंदी, वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) क्रियान्वयन और इस सरकार के पहले कार्यकाल में बड़े आर्थिक सुधारों की दिशा में प्रयास की कमी-आर्थिक वृद्धि दर में गिरावट के लिए उत्तरदायी रही हैं। आलोचकों के ये तर्क वास्तविकता की कसौटी पर खरा नहीं उतरते हैं।
अधिकांश विशेषज्ञों का मत था कि नोटबंदी से अर्थव्यवस्था को तगड़ा झटका लगेगा क्योंकि इससे देश में मुद्रा आपूर्ति में खलल आएगी। हालांकि कई अध्ययनों से यह साफ हो गया है कि नोटबंदी से आर्थिक वृद्धि पर कोई खासा असर नहीं हुआ। अर्थशास्त्री गीता गोपीनाथ और अन्य विशेषज्ञों ने एक रिपोर्ट में कहा है कि नोटबंदी से एक तिमाही में जीडीपी 2 प्रतिशत अंक गिरी थी मगर अगले कुछ महीनों में इस कमी की भरपाई हो गई। कुल मिलाकर नोटबंदी से जीडीपी में सालाना आधार पर महज 0.5 प्रतिशत की कमी आई। भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) की एक रिपोर्ट के अनुसार नोटबंदी से सकल मूल्य वद्र्धन (जीवीए) पर 33 आधार अंक का अनुमानित असर हुआ था। वर्ष 2016-17 की आर्थिक समीक्षा के अनुसार इस वजह से जीडीपी में 0.25 से 0.50 प्रतिशत के बीच गिरावट आई होगी।
यह भी कहा जाता रहा है कि जीएसटी क्रियान्वयन से लघु उद्योगों पर भयानक असर हुआ है। देश के मुख्य आर्थिक सलाहकार ने एक समाचार पत्र में 6 सितंबर को प्रकाशित आलेख में कहा था कि जीएसटी क्रियान्वयन और नोटबंदी लगभग साथ-साथ शुरू हुए, लिहाजा अर्थव्यवस्था पर जीएसटी के नकारात्मक असर नोटबंदी के प्रभाव के अध्ययन में जरूर परिलक्षित हुए होंगे। बड़े आर्थिक सुधार क्रियान्वित करने में सरकार की हिचकिचाहट वृद्धि दर में आई कमी की तीसरी वजह बताई जा रही है। इन सुधारों में श्रम सुधार, निजीकरण, प्रशासकीय एवं न्यायिक सुधार आदि शामिल हैं। यह कहा जा सकता है कि इन सुधारों के अभाव से वृद्धि दर 6.5 से 7.0 प्रतिशत से आगे नहीं बढ़ पाई लेकिन यह स्पष्टï नहीं हो रहा है कि वृद्धि दर इससे नीचे कैसे आ गई।
इसकी वजह कहीं और खोजनी होगी। मुख्य आर्थिक सलाहकार का यह तर्क बिल्कुल सही है कि भारतीय अर्थव्यवस्था का संकट मूल रूप से बैंकिंग क्षेत्र के संकट से जुड़ा है। गैर-निष्पादित परिसंपत्तियों (एनपीए) का अंबार लगने के बाद बैंक ऋण आवंटन में तेजी नहीं ला पाए। कर्ज का बोझ बढऩे से कंपनियां निवेश करने के लिए आगे नहीं आ पाईं। बैंकिंग संकट एक दिन में तो खड़ा नहीं हुआ होगा बल्कि एक लंबी अवधि तक बरती गई लापरवाही का नतीजा है। अर्थशास्त्रियों कार्मेन रीनहार्ट और केनेथरॉगॉफ के अनुमान के अनुसार बैंकिंग संकट से निकलने में किसी देश की अर्थव्यवस्था को औसत आठ वर्ष लग जाते हैं। इस संदर्भ में हम वर्ष 2011-12 पर विचार करें जब देश में बैंकों में एनपीए बढऩा शुरू हुआ था। इस वर्ष देश में बैंकिंग संकट की शुरुआत हुई थी और अब हम इस संकट के 10वें वर्ष में प्रवेश कर गए हैं।
वर्ष 2000 से 2010 के बीच ऋण आवंटन में खासी तेजी दर्ज की गई थी और एनपीए संकट इसी का नतीजा था। ऋण आवंटन में लापरवाही एक मात्र वजह नहीं थी और कई दूसरे कारणों से भी आवंटित कर्ज फंसते चले गए। इन कारणों में वैश्विक वित्तीय संकट, न्यायालयों से आए प्रतिकूल निर्णय, चीन की तरफ से डंपिंग आदि गिनाए जा सकते हैं। कुल मिलाकर एनपीए संकट गलत निर्णयों और प्रतिकूल परिस्थितियों का मिला-जुला नतीजा था। फंसे कर्ज की समस्या बढ़ती गई जिसका सीधा असर देश की आर्थिक वृद्धि पर हुआ। आरबीआई की तरफ से नीतिगत त्रुटियों से भी संकट गहराता गया। वर्ष 2011-12 में एनपीए कुल ऋण परिसंपत्तियों का 2.95 प्रतिशत था जो 2014-15 में बढ़कर 4.27 प्रतिशत हो गया। सिलसिला यहीं नहीं थमा और 2015-16 में 7.8 प्रतिशत तक पहुंचने के बाद यह 2017-18 में बढ़कर 11.18 प्रतिशत हो गया।
एनपीए 4.27 प्रतिशत स्तर पर सीमित रहता तो इससे निपटा जा सकता था मगर इसका 11.8 प्रतिशत पर पहुंचना बैंकों के लिए मुश्किल का सबब बन गया। पहले आवंटित ऋण का एनपीए में तब्दील होना ही 2015-16 और 2016-17 में इसमें (एनपीए) इजाफा होने की एकमात्र वजह नहीं रही। आरबीआई द्वारा की जाने वाली परिसंपत्ति गुणवत्ता समीक्षा (एक्यूआर) भी एनपीए में वृद्धि का एक कारण रही। आरबीआई का मानना था कि बैंक अपने खाते में फंसा ऋण छुपा रहे हैं इसलिए इनके बहीखाते खंगालने की जरूरत है। ढांचागत और लघु एवं मझोले उद्यम (एसएमई) जैसे खंडों में ऋण भुगतान अस्थायी कारणों से समय पर नहीं होता है और बैंकों की थोड़ी मदद से इसे दुरुस्त किया जा सकता है। कई मामलों में बैंकों को यह तय करने का अधिकार ही नहीं दिया गया कि अमुक ऋण एनपीए में वर्गीकृत किया जा सकता है या नहीं। एनपीए के लिए किए गए प्रावधानों से बैंकों की पूंजी में ह्रïास होता रहा। दूसरी तरफ सरकार भी बैकों को अतिरिक्त पूंजी नहीं दे पाई जिससे सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों की ऋण आवंटन क्षमता प्रभावित होने लगी। इस तरह पूंजी की कमी पैदा हो गई जिसका सर्वाधिक असर एसएमई खंड पर हुआ।
इसके बाद 2016 में महंगाई पर नियंत्रण करने की व्यवस्था लाई गई। तब से आरबीआई महंगाई का सही अनुमान नहीं लगा पाया। इसका नतीजा यह हुआ कि वास्तविक ब्याज दरें दो वर्षों तक ऊंचे स्तर पर रहीं। इससे ऋण की मांग और प्रभावित हुई। ऋण आवंटन के आंकड़ों में यह बात पूरी तरह परिलक्षित हो जाती है। 2008-09 और 2013-14 के बीच गैर-खाद्य उधारी में सालाना 14-18 प्रतिशत तेजी आई। 2014-15 से 2017-18 तक ऋण आवंटन दर कम होकर एक अंक में रह गई और मांग एवं आपूर्ति दोनों मोर्चों पर समस्याएं इसकी मुख्य वजह रही। वर्ष 2016 से दिवालिया एवं ऋण शोधन अक्षमता संहिता (आईबीसी) से मामला और पेचीदा हो गया। एनपीए के संबंध में आरबीआई के दिशानिर्देशों में कहा गया कि बैंकों द्वारा 180 दिन के भीतर फंसी परिसंपत्तियों का समाधान किया जाना चाहिए और इसमें असफल रहने पर संबंधित मामले आईबीसी को भेज दिए जाएंगे। बैंकरों को महसूस हुआ कि कोई समाधान खोजने के लिए 180 दिन की अवधि काफी छोटी है।
बैंकरों के मन में जांच एजेंसियों का डर बैठ गया था इसलिए सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकर अपने स्तर पर फंसी परिसंपत्तियों के निपटान से डरते थे। अब फंसे ऋण के निपटान के लिए आरबीआई से सीमित समय अवधि मिलने के बाद बैंकरों के लिए आईबीसी एकमात्र रास्ता बचा था। इसका नतीजा यह हुआ कि आईबीसी व्यवस्था पर बोझ खासा बढ़ गया और समाधान योजना में अक्सर देरी होने लगी और वसूली भी संतोषजनक नहीं रही।
अच्छी बात यह है कि बैंकिंग क्षेत्र इस समय काफी बेहतर स्थिति में है। शायद किसी ने नहीं सोचा होगा कि कोविड-19 महामारी के झटके के बावजूद एनपीए मार्च 2020 के कुल आवंटित ऋण का 8.4 प्रतिशत से कम होकर मार्च 2021 में 7.5 प्रतिशत रह जाएगा। बैंकों ने फंसे ऋण के लिए बड़े स्तर पर प्रावधान किए हैं। औसत प्रॉविजनिंग कवरेज रेशियो अब 68 प्रतिशत है। आगे किसी झटके से निपटने के लिए बैंकों के पास पर्याप्त पंूजी है और औसत पूंजी पर्याप्तता अनुपात अनिवार्य 10.875 प्रतिशत की तुलना में 16 प्रतिशत है। सन 2000 से 2010 तक ऋण आवंटन में जरूरत से अधिक उत्साह का असर बैंकिंग क्षेत्र और अर्थव्यवस्था पर पडऩा तय था। इससे निपटने के लिए नियामक ने जो कदम उठाए उनसे संकट और बढ़ गया। अब हमारे पास यह मानने का आधार मौजूद है कि निकट भविष्य में देश की अर्थव्यवस्था बैंकिंग संकट से बाहर निकल आएगी। किसी भी अन्य कारक की तुलना में बैंकिंग क्षेत्र के संकट से बाहर निकलने की उम्मीद आर्थिक वृद्धि दर में तेजी आने की अधिक आस जगाए हुए है।