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भारत में क्या बड़ा ही ‘सुंदर’ है?

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बीएस संवाददाता
Last Updated- December 12, 2022 | 7:17 AM IST

ई एफ शूमाकर की किताब ‘स्मॉल इज ब्यूटीफुल: ए स्टडी ऑफ इकनॉमिक्स ऐज इफ पीपुल मैटर्ड’ पहली बार 1973 में प्रकाशित हुई थी। चंद हफ्ते पहले ही भारत सरकार का सालाना बजट पेश किया गया है। पिछले 12 महीनों में सरकार और भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) ने मुश्किलों से घिरी फर्मों को पूंजी मुहैया कराने एवं तरलता समर्थन देने के लिए कई कदम उठाए हैं। इस दौरान ऋणशोधन अक्षमता एवं दिवालिया संहिता (आईबीसी) का अमल टालने और कर्जों पर ब्याज भुगतान को स्थगित रखने जैसे कदम उठाए गए।
हाल के वर्षों में अक्सर हमारा ध्यान बड़ी कंपनियों को मदद पहुंचाने पर केंद्रित रहा है। कॉर्पोरेट टैक्स की दरों में कटौती करना इसी का हिस्सा है। इस दौरान यह भी नहीं सोचा गया कि इससे नए रोजगार के सृजन पर क्या असर पड़ेगा?
पश्चिमी जगत में 1970 के दशक में यह धारणा जोर पकड़ रही थी कि रेलमार्गों एवं बंदरगाहों के करीब बने औद्योगिक संकुलों में बड़ी कंपनियों के मौजूद होने से उनकी उत्पादन एवं परिवहन लागत कम हो जाती है। अपेक्षा यह थी कि बड़ी कंपनियों की आय बढ़ते ही वे शोध एवं विकास में अधिक निवेश करेंगी जिससे नवाचारी उत्पादों एवं अतिरिक्त रोजगार अवसरों का एक चक्र पैदा होने का परिवेश बनेगा। लेकिन शूमाकर इस प्रचलित धारणा से उलट राय रखते थे। उन्होंने कहा कि अगर आर्थिक नीति-निर्माण के केंद्र में अधिकांशत: बड़ी कंपनियां ही रहती हैं तो यह शायद दुकानों में तैनात कर्मचारियों या राष्ट्रीय अर्थव्यवस्थाओं के दीर्घकालिक हित में नहीं होगा।
भारत में छोटे उद्यमों को प्रोत्साहन देने की जरूरत को ध्यान में रखते हुए वर्ष 2006 में सूक्ष्म, लघु एवं मध्यम उद्यम (एमएसएमई) अधिनियम लागू किया गया था। वर्ष 2019-20 के लिए जारी एमएसएमई मंत्रालय की वार्षिक रिपोर्ट के मुताबिक विनिर्माण, व्यापार एवं सेवा क्षेत्रों में सक्रिय ऐसी इकाइयों में करीब 11.1 करोड़ लोग काम करते हैं। एमएसएमई इकाइयों द्वारा मुहैया कराए जाने वाले कुल रोजगार में 97 फीसदी हिस्सा सूक्ष्म इकाइयों का ही है। विनिर्माण, व्यापार एवं अन्य सेवा क्षेत्रों की इकाइयों में क्रमश: 3.6, 3.9 एवं 3.6 करोड़ लोगों को रोजगार मिला था। एमएसएमई में कर्मचारियों की संख्या संबंधी ये अनुमान वर्ष 2015-16 में किए गए राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण पर आधारित हैं। आरबीआई के मुताबिक सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में एमएसएमई आउटपुट की हिस्सेदारी वर्ष 2016-17 में करीब 30 फीसदी थी जबकि उत्पादों के निर्यात में इनका हिस्सा 2018-19 में 48 फीसदी था। साफ है कि अकुशल एवं अद्र्ध-कुशल लोगों को रोजगार मुहैया कराने में एमएसएमई काफी अहम हैं। सृजित रोजगार एवं जीडीपी में उसके अंशदान के बारे में बेहतर समझ पैदा करने के लिए जरूरी है कि एमएसएमई के बारे में नमूना सर्वे जल्दी-जल्दी किए जाएं।
हाल में एमएसएमई पर केंद्रित कोई सर्वे नहीं होने से उपाख्यानात्मक साक्ष्य बताते हैं कि एमएसएमई अब भी नोटबंदी के आघात से उबर नहीं पाए हैं। सूक्ष्म एवं लघु इकाइयां अधिकतर नकदी पर काम करते हैं। ऐसे में सरकार के लिए इन इकाइयों को डिजिटल भुगतान के लिए प्रेरित करना और फिर करों के भुगतान के लिए मनाना वाजिब ही था।
लेकिन नोटबंदी के साथ 2,000 रुपये का नोट लाना अतार्किक भी था। इसने वित्तीय लेनदेन में अधिक पारदर्शिता लाने की किसी भी मंशा को नुकसान ही पहुंचाया।
एमएसएमई को एक और झटका जुलाई 2017 में वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) के लागू होने से लगा। शुरुआत में सॉफ्टवेयर एवं अन्य बिंदुओं को लेकर क्रियान्वयन संबंधी दिक्कतें पेश आई थीं जबकि सरकार को इनका अंदाजा पहले ही लगा लेना चाहिए था। वैसे अप्रत्यक्ष कर व्यवस्था में यह सुधार कई दशकों से लंबित था। यह मुमकिन है कि अधिकांश एमएसएमई के मुख्यत: नकद में मामूली लाभ मार्जिन पर काम करने से वे जीएसटी करों के अग्रिम भुगतान के बाद मुश्किल में घिरने लगे। अभी तक यह साफ नहीं है कि जीएसटी आने के बाद ठीक कितने एमएसएमई दूर तक जा सके हैं? इसके साथ पिछले कुछ वर्षों में जीडीपी वृद्धि दरों में आई अनवरत गिरावट और उत्पाद निर्यात में आया ठहराव (2013-14 में 314 अरब डॉलर और 2019-20 में 313 अरब डॉलर) किस हद तक सक्रिय एमएसएमई की संख्या में आई कमी की वजह से था।
मानो नोटबंदी एवं जीएसटी का मिला-जुला असर ही काफी नहीं था, कोविड-19 महामारी से उपजा आर्थिक संकट कई एमएसएमई के वजूद के लिए खतरा बनकर आया। साक्ष्यों से पता चलता है कि शहरों में सेवा क्षेत्र की कई इकाइयां बंद हो चुकी हैं। शहरी इलाकों में स्थित एमएसएमई इकाइयों पर मजदूरों के गांव लौटने से प्रतिकूल असर पड़ा था। कोविड-19 महामारी के दुष्परिणामों के बारे में एमएसएमई मंत्रालय की वेबसाइट पर बहुत कम जानकारी ही उपलब्ध है।
मुनाफे के बारे में दिसंबर 2020 के आंकड़े बताते हैं कि बड़ी कंपनियों के प्रदर्शन में खासा सुधार आया है। मुख्य रूप से बड़ी पूंजी वाली कंपनियों का हाल दर्शाने वाले शेयर सूचकांक मार्च 2020 के स्तर से करीब 25 फीसदी तक उछल चुके हैं। सेंसेक्स एवं निफ्टी सूचकांक में शामिल कंपनियों की भावी आय के बारे में इस आशावाद के लिए बाजार हिस्सेदारी चर्चित सूचीबद्ध कंपनियों के पाले में झुकने को एक हद तक जिम्मेदार माना जा सकता है। बीते छह महीनों में बड़ी सूचीबद्ध कंपनियों ने उम्मीद से कहीं पहले ही फिर से मुनाफा कमाना शुरू कर दिया है। एक हद तक इसका कारण कर्मचारियों की छंटनी कर लागत में कटौती करने पर ध्यान देना है। अतीत में सूचीबद्ध कंपनियां एमएसएमई के ‘सिर्फ-नकद’ परिवेश में अमूमन कीमत के हिसाब से प्रतिस्पद्र्धी  नहीं रहती थीं। लेकिन ऐसा लगता है कि कोविड-19 महामारी ने एमएसएमई का असर कम होने से खाली हुई जगह भरने में बड़ी कंपनियों की भूमिका बढ़ा दी है। लगता है कि बड़ी कंपनियां नोटबंदी, जीएसटी एवं कोविड महामारी जैसे व्यवधानों के समय मांग में गिरावट, क्रियान्वयन संबंधी जटिलताओं और इंस्पेक्टरों को भुगतान से निपटने में कहीं अधिक सक्षम रहीं।
सरकार एवं नियामकों को एमएसएमई के बारे में मौजूदा जमीनी हकीकत की बेहतर समझ बनाने के लिए अपनी कोशिशों में समन्वय बिठाने की जरूरत है। ऐसा होने पर ही कम-कुशल या अकुशल लोगों को जरूरी मदद एवं रोजगार मुहैया कराने के लिए निर्दिष्ट कदम उठाए जा सकते हैं। सार रूप में कहें तो वैश्विक स्तर पर कीमत एवं गुणवत्ता के लिहाज से प्रतिस्पद्र्धी होने के लिए जहां बड़ी कंपनियां जरूरी हैं, वहीं छोटी कंपनियां भी ‘सुंदर’ हैं और समाज के सबसे कमजोर तबकों को रोजगार मुहैया कराने के लिए उनका समर्थन करना जरूरी है।
(लेखक पूर्व राजदूत और वित्त मंत्रालय के अधिकारी एवं विश्व बैंक ट्रेजरी के पेशेवर रहे हैं)

First Published : March 9, 2021 | 12:03 AM IST