यह 1960 के दशक की बात है जब दिल्ली विश्वविद्यालय में ‘संयुक्त’ ऑनर्स (प्रतिष्ठा) डिग्री का चलन था। उसकी संकल्पना ऑक्सफर्ड के पीपीई (दर्शनशास्त्र, राजनीतिशास्त्र और अर्थशास्त्र) या कैंब्रिज स्नातक-त्रयी के आधार पर की गई थी। मेरे ख्याल से 1966 में उन्होंने इसे बंद कर दिया। अगर उन्होंने उसे बीए पास कोर्स से एक पांत ऊपर रखने के बजाय वास्तव में और समृद्ध-सशक्त बनाया होता तो आज हमारे पास कहीं बेहतर जानकारी वाले ज्ञानी सामाजिक-विज्ञान स्नातक होते। इसका कारण यही है कि वास्तव में राजनीति, आर्थिकी और दर्शन को एक दूसरे से विलग कर अलग-अलग नहीं पढ़ाया जाना चाहिए। इससे वैसी एकांगी मानसिकता बनती है, जिससे व्यक्ति कभी बाहर ही नहीं निकल पाता।
संयुक्त ऑनर्स कोर्स को जल्दबाजी में समाप्त करने का एक खराब नतीजा यही निकला कि शिक्षित भारतीयों को एक सच्चाई समझने में करीब 30 वर्ष लग गए। यही सच्चाई कि राजनीतिक व्यवहार और आर्थिक नीतियां भले ही एक दूसरे से स्वतंत्र हों, लेकिन राजनीतिशास्त्र के विद्वानों एवं विश्लेषकों के लिए कम से कम आर्थिक सिद्धांतों की कुछ बुनियादी समझ के अभाव में राजनीतिक व्यवहार समझना आसान नहीं।
यहां मैं यही बात कहना चाहता हूं कि राजनीतिक व्यवहार को वास्तव में एक अल्पाधिकारी बाजार संरचना की भांति देखा जा सकता है, क्योंकि राजनीतिक प्रतिस्पर्धा भी तो वही है, जिसे अर्थशास्त्र में अल्पाधिकार प्रतिस्पर्धा की संज्ञा दी जाती है, जिसमें कुछ स्वतंत्र उत्पादक ही एक दूसरे से मुकाबला करते हैं। यदि आप इस पर किंचित भी विचार करें तो पाएंगे कि भारत में असल में कैसी राजनीतिक व्यवस्था है। ऐसे में इस पर गौर करना बहुत तार्किक है कि अर्थशास्त्र ऐसे अल्पाधिकारी उत्पादकों के व्यवहार का विश्लेषण कैसे करता है।
अर्थशास्त्र में अल्पाधिकारी प्रतिस्पर्धा के पांच प्रकारों की चर्चा की गई है। ये हैं-कार्टेल्स, कॉर्नो, स्टैकलबर्ग, बर्ट्रेंड और प्रतिस्पर्धी बाजार। वैसे तो सभी, लेकिन इसमें अंतिम पहलू को छोड़कर शेष राजनीति को प्रतिबिंबित करते हैं।
कार्टेलाइजेशन का आशय तो मिलीभगत से ही है। सभी जानते हैं कि कंपनियां मिलीभगत या साठगांठ करती हैं, लेकिन राजनीतिक दलों में इसे आप हर समय देख सकते हैं और यहां तक कि तब भी जब मुकाबले में केवल दो ही दल हों। केंद्रीय कक्ष तो शायद इसी सुविधा के लिए है। बहरहाल साठगांठ उतनी कारगर नहीं होती, क्योंकि दगाबाजी में एक अंतर्निहित इंसेंटिव (प्रोत्साहन) होता है। यही कारण है कि राजनीति में कार्टेल के पर्याय गठबंधन बहुत अस्थिर होते हैं।
फिर आती है कि स्टैकलबर्ग श्रेणी की प्रतिस्पर्धा, जहां एक कंपनी बाजार की सिरमौर होती है और अन्य कंपनियां उसकी अनुगामी यानी नक्शेकदम पर चलने वालीं। हेनरिक फ्रीहरर वॉन स्टैकलबर्ग एक जर्मन अर्थशास्त्री थे। वह नाजी पार्टी के सदस्य भी रहे। स्टैकलबर्ग मॉडल भारतीय राजनीति के खांचे में एकदम मुफीद बैठता है। देश में 1990 तक कांग्रेस ही अगुआ थी और अन्य पार्टियां मुख्य रूप से कोरे-फर्जी समाजवाद के जरिये उसका अनुगमन करती थीं। अब वे भाजपा और उसके हिंदुत्व की राह पकड़ रही हैं। इस मॉडल की एक आधारभूत अर्थशास्त्रीय आवश्यकता यही है कि कंपनियों को अपने समरूप उत्पाद ही बेचने चाहिए। इस मॉडल में कंपनियां उत्पादन के दम पर प्रतिस्पर्धा करती हैं और यदि राजनीतिक दलों के संदर्भ में देखें तो उसे लचर रूप से परिभाषित सुशासन के दावे के समान रखा जा सकता है। यानी कथित सुशासन के जरिये ही राजनीतिक दल इस मॉडल पर दांव लगा सकते हैं।
अब हमें कॉर्नो की चर्चा करनी है। यह अल्पाधिकार परिदृश्य का बहुत पुराना स्वरूप है। अंतोनी ऑगस्तिन कॉर्नो फ्रांसीसी दार्शनिक और गणितज्ञ थे। अपने खाली समय में वह अर्थशास्त्र के बारे में विचार किया करते। उनकी अल्पाधिकार की श्रेणी में सभी कंपनियां एक ही प्रकार की वस्तुएं उत्पादित करतीं और बाजार हिस्सेदारी के लिए प्रतिस्पर्धा करती हैं। राजनीति में इसका उदाहरण लोकलुभावनवाद और उसके जरिये वोट प्रतिशत हासिल करने की कवायद का दिया जा सकता है।
अल्पाधिकार के एक अन्य बर्ट्रेंड मॉडल का नामकरण भी एक और फ्रांसीसी अर्थशास्त्री जोसेफ लुई फ्रांस्वा बर्ट्रेंड के नाम पर हुआ। उनका कहना था कि ऐसे परिदृश्य में सब कुछ इसी पर निर्भर करता है कि क्या उत्पाद एकसमान हैं या उनमें विविधता है। राजनीति से इसमें कांग्रेस और आम आदमी पार्टी (आप) का उदाहरण लिया जा सकता है। वे पूरी तरह सजातीय हैं और यही कारण है कि आम आदमी पार्टी कांग्रेस के वोटों में सेंधमारी कर रही है। वहीं आप और भाजपा में अंतर है। अंतर यही कि जहां दोनों ही कल्याणकारी किस्म की राजनीति में सक्रिय हैं, लेकिन आप हिंदू एजेंडा पर आगे नहीं बढ़ती, क्योंकि वह उस मोर्चे पर प्रतिस्पर्धा नहीं कर सकती।ॉ
अंत में प्रतिस्पर्धी बाजारों के सिद्धांत की बारी आती है। मेरे ख्याल से यह राजनीति पर लागू नहीं होता, क्योंकि इसके लिए किसी बाजार में प्रवेश के बाद लागत वसूली का एक बहुत ही सख्त प्रावधान है। बुनियादी बात यही है कि किसी भी नाकामी के मामले में सभी लागत वसूलनी ही होती हैं। राजनीति में यह काम नहीं करता। यहां लागत डूब गई तो समझिए हमेशा के लिए डूबी।
अब देखते हैं कि ये सिद्धांत भारत में राजनीतिक प्रतिस्पर्धा के स्वरूप की व्याख्या किस प्रकार कर सकते हैं। आरंभिक बिंदु यही है कि बड़ी संख्या वाला लोगों का कोई भी समूह एक राजनीतिक दल बना सकता है या कम से कम दबाव समूह ही गठित कर सकता है, जो विधायी सदन में या तो पैसों की मांग करे या सीटों की। आप देख सकते हैं कि अल्पाधिकार प्रतिस्पर्धा के सभी तत्त्व यहां उपस्थित हैं। मसलन-चुनिंदा उत्पादक, उनकी परस्पर निर्भरता, बड़ी संख्या में खरीदार और अपने मुनाफे (सीटों) और बाजार हिस्सेदारी (वोट प्रतिशत) को अधिकतम करने के लिए निरंतर किए जाने वाले प्रयास।
आपके मन में सवाल आ सकता है कि ऐसा है ‘तब’ क्या? असल में इसके पीछे अपने राजनीतिक पंडितों को यही दर्शाने की ही मंशा थी कि हमारे पास एक ऐसा ढांचा उपलब्ध है, जिसके जरिये भारतीय राजनीति की कहीं बेहतर व्याख्या की जा सकती है। यह ढांचा यकीनन उन कमजोर कड़ियों वाले असंतोषजनक तौर-तरीकों से बेहतर है, जिनके दम पर कोई भी ऐरा-गैरा स्वयंभू विशेषज्ञ बन सकता है। और अंत में एक दुस्साहसिक विचार कि विश्वविद्यालयों को ऑनर्स पाठ्यक्रमों को अवनत और पास कोर्स को उन्नत करना चाहिए। यहीं वास्तविक मूल्य निहित है।