एक ऐसे विशाल देश की कल्पना कीजिए जहां राष्ट्रीय ऋण का बोझ वर्ष 2020 में सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का 100 प्रतिशत था, वहीं अब 2024 में यह बढ़कर 125 प्रतिशत पर पहुंच गया है। बजट घाटा प्रति वर्ष औसतन लगभग 6 प्रतिशत के स्तर पर है। अब नई सरकार 2025 में करों में कटौती करने की योजना बना रही है, ताकि ऋण से जीडीपी अनुपात की वृद्धि दर को बढ़ाया जा सके।
हालात संभालने के लिए सरकार कई वस्तुओं पर भारी सीमा शुल्क लगाने पर विचार कर रही है। व्यापारिक साझेदार देश इस कदम का कड़ा विरोध कर सकते हैं और हो सकता है कि वे भी बदले में अपने यहां आने वाली वस्तुओं पर शुल्क लगाने का फैसला कर लें। इससे व्यापार युद्ध छिड़ सकता है। नतीजतन ऐसे कदमों से महंगाई बढ़ेगी, क्योंकि जिस देश की यहां बात हो रही है, वह पहले से ही भारी व्यापार घाटे से जूझ रहा है। ऐसे में आयातक नए करों में जाने वाली रकम की भरपाई उपभोक्ताओं से करना चाहेंगे। जो भी विनिर्माता सामान आयात करेगा, वह मोटा मुनाफा कमाने के लिए वस्तुओं पर अतिरिक्त कर लगाएगा।
इसके अलावा सरकार कार्यबल में भी लगभग 5 प्रतिशत जबरन कटौती की संभावनाएं तलाश रही है। इस कटौती से वेतन-भत्तों में जाने वाली अच्छी-खासी रकम रुक जाएगी और करों के साथ जुड़कर एक मोटी धनराशि खजाने में पहुंचेगी, जो कृषि और खाद्य प्रसंस्करण उद्योग के लिए इनपुट के साथ जीडीपी में 6 से 7 प्रतिशत का योगदान देगी। रोजगार के मोर्चे पर हालात सामान्य हैं, इसलिए कार्यबल में कटौती के बाद खाली होने वाले पदों पर भर्ती की जल्दबाजी नहीं होगी।
सरकार वीजा नियमों को भी और सख्त बनाने की दिशा में काम कर रही है, जिसके जरिये विदेश से उच्च कौशल वाले कर्मचारी लाने में मदद मिलती है। इसका सीधा असर अर्थव्यवस्था और अनुसंधान एवं विकास से संबंधित हाईटेक क्षेत्र पर पड़ेगा। यही नहीं, सरकार बड़े स्तर पर अफसरशाहों को बर्खास्त करने अथवा उन्हें हटाकर उनकी जगह नए अधिकारी नियुक्त करने के बारे में सोच रही है।
इसके पीछे तर्क यह है कि नए अधिकारियों के जरिए ऐसे शासकीय संस्थानों पर सरकार का नियंत्रण बढ़ाया जाएगा, जो स्वतंत्र रूप से डेटा एकत्र करने और वित्तीय प्रणाली पर निगरानी रखते हैं। सरकार का कुछ निकायों को खत्म करने का भी इरादा है। नई सरकार चाहती है कि स्वास्थ्य देखभाल जैसे कई सामाजिक सुरक्षा आधारित कार्यक्रमों और योजनाओं में भी कटौती की जाए। साथ-साथ वह जलवायु परिवर्तन से निपटने के कार्यक्रमों-उपायों की जिम्मेदारी से मुक्त होना चाहती है। इसके अलावा सरकार क्रिप्टो करेंसी पर नियमों में ढील देना चाहती है।
मैं ये सब बातें अमेरिका के संबंध में कह रहा हूं, जहां डॉनल्ड ट्रंप ने राष्ट्रपति चुनाव में अपने प्रचार अभियान के दौरान नीतियों में बदलाव लाने के लिए मतदाताओं से वादे किए थे और अब वह राष्ट्रपति पद की जिम्मेदारी संभालने के बाद उन्हें लागू करने की दिशा में काम करेंगे। इनमें से बहुत सी नीतियां सकारात्मक प्रभाव डालने वाली प्रतीत नहीं हो रही हैं। अनेक असामान्य नीतियों के अप्रत्याशित रूप से गंभीर परिणाम देखने को मिल सकते हैं। कई ऐसी नीतियां हैं जो आज के युग में उपयुक्त नहीं हैं, ऐसे में इनसे अपेक्षित परिणाम हासिल करना बहुत ही मुश्किल होगा।
डॉनल्ड ट्रंप के नए शासन में सबसे प्रभावशाली शख्सियतों में से एक ईलॉन मस्क के अनुमान के मुताबिक अमेरिका कम से कम दो साल तक मंदी की चपेट में रहेगा। यदि ऐसा हुआ तो यह स्थिति बहुत खराब होगी, क्योंकि पिछले तीन वर्षों से अमेरिका वैश्विक वृद्धि का महत्त्वपूर्ण इंजन बना हुआ है। मौजूदा भू-राजनीतिक वातावरण में कोई अन्य राष्ट्र ऐसा नहीं है, जो हालात को संभालने की स्थिति में हो।
इस समय अमेरिका 28 लाख करोड़ डॉलर की अर्थव्यवस्था है और यह वैश्विक जीडीपी में 25 प्रतिशत का योगदान देता है। डॉलर विश्व की रिजर्व करेंसी है। अमेरिका की आर्थिक नीतियों में आमूल-चूल परिवर्तन होने से मंदी के अलावा भी कई अन्य प्रभाव पड़ेंगे। उदाहरण के तौर पर डॉलर से भरोसा उठने का वैश्विक बाजार पर बहुत ही बुरा असर पड़ सकता है। व्यापार युद्ध शुरू होने से आपूर्ति श्रृंखला भी अप्रत्याशित रूप से प्रभावित होगी। इनमें से कुछ भी हो सकता है, किसी चीज की गारंटी नहीं है। उदाहरण के लिए जापान में दशकों तक ऋण से जीडीपी अनुपात 250 प्रतिशत से अधिक रहा है। इस दौरान इस विकसित देश में कोई वृद्धि नहीं हुई।
अमेरिका बहुत ही असाधारण स्थिति से गुजर रहा है। वह घाटे से उबरने के लिए डॉलर छाप सकता है। लेकिन, यह उपाय तब तक ही कारगर साबित होगा जब तक अमेरिकी डॉलर से विश्वास नहीं डगमगाता। किसी नई संतुलित स्थिति तक पहुंचने से पहले हम अगले कुछ वर्षों के दौरान वैश्विक बाजारों में कीमतों में भारी उतार-चढ़ाव और आपूर्ति श्रृंखला में व्यवधान से दो-चार हो सकते हैं।
काफी कुछ भीड़ की बुद्धिमत्ता और बाजार से आने वाली असामान्य खबरों से व्यापारियों पर पड़ने वाले प्रभाव पर निर्भर करेगा। लेकिन, अभूतपूर्व हालात से निपटना आसान नहीं होगा।
समय को ध्यान में रखते हुए अंतरराष्ट्रीय बाजार के लिए अमेरिकी डॉलर पर अपनी निर्भरता कम करना ही व्यवहारिक होगा। उदाहरण के लिए भारतीय कंपनियां यदि दक्षिण अफ्रीकी इकाइयों के साथ समझौते करती हैं, तो संभव है लेनदेन अमेरिकी डॉलर में ही होगा। अब यदि अमेरिकी डॉलर में उतार-चढ़ाव आता है तो यह सौदा प्रभावित होना तय है।
धातु, रबर, कच्चा तेल, चिप्स जैसी अधिकांश वस्तुओं की खरीद-बिक्री अमेरिकी डॉलर में ही होती है। ऐसे में यदि अमेरिकी डॉलर में उतार-चढ़ाव आता है तो इन सभी वस्तुओं की कीमतों पर असर पड़ेगा। शुरुआत में बाजार पर ये प्रभाव देखने को शायद न मिलें। लेकिन, यदि ट्रंप अपने चुनावी वादों के अनुसार नीतियों में बदलाव के एजेंडे पर आगे बढ़ते हैं तो मजबूत वृद्धि दर का परिदृश्य उभरना मुश्किल होगा। वैश्विक बाजार के लिए पिछले कुछ वर्ष बहुत ही शानदार रहे हैं। वर्ष 2025 में बाजार में दोबारा मंदडि़यों की हलचल देखने को मिल सकती है।