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कंपनी से जुड़ी नियामकीय एजेंसियों में हो सुधार

वित्तीय क्षेत्र के नियामकों की ताकत एवं उनकी स्वायत्तता की बराबरी करने के लिए कॉरपोरेट कार्य मंत्रालय के अधीन नियामकों में सुधार की आवश्यकता है। बता रहे हैं

Published by
के पी कृष्णन   
Last Updated- April 21, 2025 | 10:52 PM IST

वित्त वर्ष 2025-26 के बजट में नियामकीय सुधारों की भी घोषणा हुई थी किंतु इसमें वित्तीय क्षेत्र को शामिल नहीं किया गया था। यद्यपि, वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने वित्तीय क्षेत्र से जुड़े नियमन को इसमें शामिल नहीं करने के पीछे कारण का उल्लेख तो नहीं किया किंतु इससे सीधे तौर पर यह संदेश मिला कि हमारे नीति निर्धारकों को लगता है कि वित्तीय क्षेत्र से अधिक दूसरे क्षेत्रों से जुड़े नियम-कायदों में सुधार की आवश्यकता है।

हालांकि, सच्चाई यह है कि वित्तीय क्षेत्र के नियम-कायदे एवं वित्तीय नियामकों की कार्य पद्धति में सुधार की व्यापक आवश्यकता है और इसमें संदेह की कोई गुंजाइश नहीं है। हालांकि, भारत में दूसरे क्षेत्रों में नियमन की तुलना में वित्तीय क्षेत्र में वैधानिक नियामकीय प्राधिकरण (एसआरए) कहीं अधिक स्पष्ट हैं।

ये सभी नियामक तीन-चरणों वाली प्रक्रिया से अस्तित्व में आए हैं। पहला चरण बाजार की विफलता एवं सरकार के हस्तक्षेप के बारे में बुनियादी सोच से जुड़ा हुआ था। दूसरा चरण उन स्पष्ट कार्यों को चिह्नित करने से जुड़ा था जो सरकारी विभागों से लेकर स्वतंत्र एवं निष्पक्ष संस्थाओं (उदाहरण के लिए मुद्रास्फीति नियंत्रित करने की जिम्मेदारी भारतीय रिजर्व बैंक को दी गई) के हवाले कर दिए गए और जवाबदेही से जुड़ी व्यवस्था सुनिश्चित की गई। तीसरा चरण निगरानी एवं संतुलन की व्यवस्था तैयार करनी थी ताकि ये नियामक नियामकीय अधिकारों के इस्तेमाल के साथ गुणवत्ता भी सुनिश्चित कर पाएं।

वित्तीय क्षेत्र में इस यात्रा की शुरुआत भारतीय प्रतिभूति एवं विनिमय बोर्ड (सेबी), भारतीय बीमा विनियामक एवं विकास प्राधिकरण (आईआरडीएआई) और पेंशन फंड नियामकीय एवं विकास प्राधिकरण (पीएफआरडीए) की स्थापना के साथ शुरू हुई। वैधानिक अधिकारों एवं स्वायत्तता के मोर्चों पर इन संस्थाओं के पैर मजबूती टिके हैं। जिन कानूनों के अंतर्गत इन संस्थाओं की स्थापना हुई उनके माध्यम से इन्हें नियम बनाने और विभिन्न अधिकारों के साथ बिना सरकारी हस्तक्षेप के आवश्यक अधिकारी नियुक्त करने के लिए वित्तीय संसाधन भी उपलब्ध कराए गए हैं। इन संस्थाओं में केवल निदेशकमंडल (बोर्ड) के सदस्यों की नियुक्त सरकार करती है।

इन प्राधिकरणों (एसआरए) के कार्यों से हमें काफी अनुभव हासिल हुए जिन्हें बुनियाद बनाकर वित्तीय क्षेत्र विधायी सुधार आयोग (एफएसएलआरसी) ने मसौदा भारतीय वित्तीय संहिता तैयार किया। यह दस्तावेज उत्कृष्ट भारतीय नियामकीय सिद्धांत है जो भारतीय नियामकों की निर्देशात्मक कार्य पद्धति पर रोशनी डालता है। इस मानक निर्देशात्मक आदर्श में निहित बातें पिछले कई वर्षों से कई सुधारों के लिए जमीन तैयार करती रही हैं जिनसे भारत में सभी नियामकों के कामकाज में व्यापक बदलाव हुए हैं।

वित्तीय क्षेत्र के वैधानिक नियामकीय प्राधिकरणों से दूसरे क्षेत्रों के नियामकों की तुलना करने पर पता चलता है कि वे काफी प्रारंभिक स्तर के हैं। खाद्य एवं दवा, शिक्षा और अन्य पेशों से जुड़े देश में एक दर्जन से अधिक नियामक हैं। नवीनतम नियामकों के पास नियामकीय विधायी स्वायत्तता नहीं है और उन्हें नियम-कायदे बनाने के लिए सरकार से अनुमति लेनी पड़ती है।

इस व्यवस्था में यह जानना रुचिकर है कि जिस मंत्रालय के पास सबसे अधिक एसआरए हैं वह वित्त नहीं बल्कि कॉरपोरेट कार्य यानी कंपनी मामलों का मंत्रालय (एमसीए) है। कंपनी मामलों के मंत्रालय के अधीन कंपनी निबंधक (आरओसी जिसके प्रमुख कंपनी मामलों के महानिदेशक होते हैं), भारतीय प्रतिस्पर्द्धा आयोग (सीसीआई), भारतीय ऋण शोधन अक्षमता एवं दिवालिया बोर्ड (आईबीबीआई), राष्ट्रीय वित्तीय रिपोर्टिंग प्राधिकरण (एनएफआरए) और इनके अलावा चार्टर्ड अकाउंटेंट, कंपनी सचिव और लागत एवं कार्य लेखाकार के भी तीन नियामक शामिल हैं। इनके अलावा ऋण शोधन अक्षमता एवं मूल्यांकन पेशों के एक दर्जन से अधिक नियामक हैं।

जिस तरह कंपनियों के लिए पूरा नियाकीय ढांचा काम करता है उसे लेकर पेशेवरों (प्रैक्टिशनर) के स्तर पर काफी अंसतुष्टि है। इसका कारण यह है कि इस नियामकीय संरचना में काफी व्यय मदों का जिक्र है जिनका वहन (कानून में निर्धारित वकीलों एवं अकांउटेंट पेशेवरों की टीम रखने की क्षमता) केवल बड़ी कंपनियां ही कर सकती हैं । उद्यमशीलता एवं रोजगार देने वाले प्रमुख स्रोत को सरकारी तंत्र में उचित सम्मान नहीं मिलता है।

वित्त अर्थव्यवस्था का मस्तिष्क है तो वास्तविक क्षेत्र (वस्तु एवं सेवाओं के उत्पादन से जुड़ा हिस्सा) उसका शरीर है जहां सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का निर्माण होता है। जीडीपी वृद्धि दर बढ़ाने के भारत के लक्ष्य के लिए वित्त एवं गैर-वित्तीय कंपनियों की महत्त्वपूर्ण भूमिका है। अगर एक ही मंत्री एकीकृत रूप में दोनों का कार्यभार संभालता है तो यह अच्छी स्थिति कही जा सकती है । हालांकि, ऊपर चर्चा किए गए तीन चरणों की प्रक्रिया एमसीए के क्षेत्र में मोटे तौर पर नहीं अपनाई गई है। एक और महत्त्वपूर्ण बात यह है कि एमसीए में महत्त्वपूर्ण नियामकीय कार्य (आरओसी और डीजीसीए के कार्यों सहित) हमें 1990 के दशक में वित्त मंत्रालय में हो चुकी चीजों की याद दिलाते हैं। इस दिशा में बढ़ने के लिए बेहतर रास्ते मौजूद हैं जिन पर विचार किया जा सकता है। उदाहरण के लिए ऑस्ट्रेलिया में अपनाई गई शैली के अनुसार सेबी, आरओसी और डीजीसीए एक जगह किए जा सकते हैं।

सीसीआई, एनएफआरए और आईबीबीआई किसी एक क्षेत्र से नहीं जुड़े हैं और पूरी अर्थव्यवस्था में प्रतिस्पर्द्धा से जुड़े विषयों को देखते हैं, महत्त्वपूर्ण कंपनियों का लेखा परीक्षण (ऑडिट) करते हैं और विफल उद्यमों का व्यवस्थागत तौर पर नियमन करते हैं। ये सभी आधुनिक आर्थिक नियमन के महत्त्वपूर्ण हिस्से हैं। ये तीनों ही प्राधिकरण अपने भारी भरकम खर्च के लिए सरकार से मिलने वाले वित्तीय समर्थन पर निर्भर रहते हैं और उनके पास स्वयं वित्तीय संसाधन जुटाने के अधिकार नहीं हैं। उदाहरण के लिए सीसीआई के मानव संसाधन से जुड़े कार्य सरकार द्वारा निर्धारित नियमों से संचालित होते हैं। यह लगभग एक तरह से सरकार के अधीनस्थ विभाग की तरह ही काम करता है। आईबीबीआई और एनएफआरए के मामले में पदों के लिए अर्हताएं, इन इकाइयों में पद सृजन और जिस प्रकार से वे भरे जाते हैं उनका निर्धारण सरकार अपनी सामान्य वित्तीय नियमों के माध्यम से करती है।

एमसीए से जुड़े कुछ प्राधिकरणों में कुछ महत्त्वपूर्ण व्यवहार एवं ढांचागत बाते हैं। सीसीआई अधिनियम भारत में एकमात्र एसआरए कानून है जिसके अंतर्गत बोर्ड स्तर के किसी पदाधिकारी को हटाने के लिए उच्चतम न्यायालय के एक न्यायाधीश से जांच करानी पड़ती है। आईबीबीआई भारत का पहला एसआरए है जिनसे यह तय किया है कि वह कैसे नियम तैयार करेगा। इसी तरह, आईबीबीआई के नियमों में प्रावधान है कि अनुशासन समिति में किसी मामले में तथ्यों की जांच कर रहा पूर्णकालिक सदस्य शामिल नहीं किया जाएगा। इस तरह, इसमें शक्तियों के विभाजन के सिद्धांत का भी बखूबी पालन किया जाता है। यह भारत का पहला और एक मात्र एसआरए है जिसने अपने काम-काज के मूल्यांकन के लिए एक बाहरी एजेंसी की सेवा ली है। ये सभी बातें एक ही आकांक्षा दर्शाती हैं और वह है संवैधानिक मूल्यों को बरकरार रखना और भारत की परिस्थितियों के अनुरूप अच्छे संगठन तैयार करना।

इस संदर्भ में एमसीए के लिए एफएसएलआरसी-शैली की परियोजना तैयार करना एक अच्छा विकल्प होगा जो तीन चरणों वाली प्रक्रिया अमल में लाती है। इससे आधुनिक लोक अर्थशास्त्र का ज्ञान (बाजार की विफलता और सरकार के हस्तक्षेप की जरूरत से जुड़ी) और भारतीय संविधान के सिद्धांतों के अनुरूप कानून सम्मत बेहतर प्रदर्शन करने वाली एजेंसियों के गठन पर आधुनिक लोक प्रशासन की सोच साथ मिलकर काम करनी चाहिए।

(लेखक सेंटर फॉर पब्लिक पॉलिसी के मानद वरिष्ठ फेलो और सिविल सेवा के पूर्व अधिकारी हैं)

First Published : April 21, 2025 | 9:48 PM IST