जिस आनन-फानन में और फुर्ती के साथ सांसदों की तनख्वाहें बढ़ाई गई हैं, उससे यह बात साबित हो गई है कि अपने हितों के मुद्दों पर सभी दलों के सांसदों में एकमत है।
पिछले हफ्ते भी कुछ इसी तरह की बात देखने को मिली जब जल, थल और वायु सेना के प्रमुखों ने सामूहिक रूप से रक्षा मंत्री प्रणव मुखर्जी के पास एक याचिका दाखिल की। इस याचिका में गुजारिश की गई है कि छठे वेतन आयोग की सिफारिशों में फौज के हित में जो भी कदम उठाए गए हैं, उनसे कहीं ज्यादा सहूलियतें फौज को दी जाएं।
दिलचस्प यह है कि रक्षा से जुड़े व्यापक मसलों (जिनमें चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ (सीडीएस) का मसला भी शामिल है) पर तीनों ही सेनाएं अब तक किसी प्रकार की आपसी आम सहमति बनाने में नाकाम रही हैं और इस तरह के मुद्दे ठंडे बस्ते में डाल दिए गए हैं। ज्यादा वेतन पाने के लिए चलाई जा रही संयुक्त मुहिम शायद जनरल, एडमिरल और एयर मार्शल रैंक के अधिकारियों को आपस में करीब लाने में मददगार साबित हो।
हालांकि छठे वेतन आयोग की सिफारिशों पर सेनाओं का असंतोष जायज है। उनके तर्क में दम है। मिसाल के तौर पर, उनकी मांग है कि फौज को उनकी कठिन सेवाओं के बदले हर्जाना दिया जाना चाहिए और इस हर्जाने को उनकी सैलरी के हिस्से के रूप में शामिल किया जाना चाहिए। साथ ही इसका भुगतान 1 जनवरी 2006 से किया जाना चाहिए। इस मांग में दम है, क्योंकि अब तक मिलिट्री के अधिकारियों के वेतनमान वही हैं, जो सिविल सेवाओं में उनके समकक्षों के हैं।
पर फौज में इस बात पर कोई भ्रम नहीं है कि कम सैलरी और कठिन व खतरनाक सेवा शर्तों के अलावा कई और ज्यादा संजीदा मुद्दे हैं, जिन पर ध्यान दिए जाने की जरूरत है। सैकड़ों सैनिकों, सेलर्स और एयरमैन ने मुझे बताया कि वे 2 मुख्य समस्याओं को लेकर ज्यादा परेशान रहते हैं।
पहली समस्या उनके बच्चों के लिए अच्छी स्कूलिंग की है और दूसरी उनके परिवार के लिए आवास की, क्योंकि ज्यादातर कैंटोंनमेंट में उनके परिवारों के रहने के लिए आवास की सुविधा मयस्सर नहीं है। एक और मुद्दा है जिस पर फौज की हर श्रेणी में समान रूप से क्षुब्धता है। यह मुद्दा अनुशासन का है।
फौजियों का कहना है कि फौज में भी पेशेवर वातावरण बनाए जाने की सख्त जरूरत है, क्योंकि मौजूदा व्यवस्था में कोई भी सनकी कमांडर अपनी महज एक कलम चलाकर फौजी का पूरा करियर चौपट कर सकता है।
बाद वाली समस्या का हल थोड़ा जटिल जान पड़ता है, क्योंकि इसके लिए कर्मचारियों के प्रदर्शन मुल्यांकन (परफॉर्मेंस अप्रेजल) की बुनियादी रूपरेखा में बदलाव की जरूरत होगी और उस पुराने ढर्रे को तिलांजलि देनी होगी, जिसके तहत यह माना जाता है कि बॉस के विचारों से सहमत नहीं होना अनुशासनहीनता है। पर इस तरह की व्यवस्था बहाल करने के लिए बेहद सौम्य और आत्मविश्वास से लबरेज कमांडरों की जरूरत होगी।
ऐसे कमांडर का अब तक एक ही उदाहरण देखने को मिला है, जो हैं जनरल के. सुंदरजी। जब जनरल सुंदरजी 1986 में आर्मी चीफ के पद पर तैनात हुए तो उन्होंने हर आर्मी ऑफिसर को चिट्ठी लिखकर इस बारे में इत्तला किया। चिट्ठी लिखे जाने पर आए विरोधाभासी विचारों पर उन्होंने तनिक भी ध्यान नहीं दिया।
फौज में पेशेवर वातावरण बनाए जाने से इस सेवा से जुड़े लोगों का आत्मबल मजबूत होगा और इसका असर पिछले हफ्ते रक्षा मंत्री को दी गई चिट्ठी से कहीं ज्यादा होगा। पर इन सबके लिए काफी कड़े फैसले और कठिन तब्दीलियां किए जाने की जरूरत होगी। ज्यादा सैलरी की मांग करना तो बेहद ही सरल और सुलझा हुआ मसला है।
फौजियों का आत्मविश्वास इस बात से काफी बढ़ेगा, जब कैंटोनमेंट एरिया में उनके बच्चों को अच्छी शिक्षा दिलाए जाने और उनके परिवार के बेहतर आवास का इंतजाम किया जाए। ग्रामीण समाज (फौज के ज्यादातर जवान जहां से आते हैं) में हो रहे बदलावों के मद्देनजर इस तरह के कदम उठाए जाने की बेहद सख्त दरकार है।
अब तक की परंपरा पर नजर डालें तो ज्यादातर सैनिकों के परिवार गांवों में रहा करते थे और उन्हें लगता था कि किसी अनजाने कैंटोनमेंट एरिया में रहने से बेहतर गांवों में अपने संयुक्त परिवार के साथ रहना ज्यादा अच्छा है। पर तेजी से बदल रहे समाज में संयुक्त परिवार की अवधारणा ध्वस्त हो रही है और ऐसे में अधिकांश सैनिक यह सोचने लगे हैं कि वे अपना परिवार वहीं रखें, जहां वे नौकरी करते हैं।
आर्थिक रूप से पिछड़े इलाकों से आने वाले सैनिकों की ख्वाहिश भी कुछ ऐसी ही होती है कि वे अपने परिवार को अच्छी हाउसिंग सुविधा और बच्चों को क्वॉलिटी एजुकेशन दिलाएं, क्योंकि वे चाहकर भी अपने गांवों पर ऐसा नहीं कर सकते। पर आंकड़े बताते हैं कि देश के महज 15 फीसदी जवानों के लिए अधिकृत फैमिली क्वॉर्टर का इंतजाम किए जाने की बात है और इनमें से ज्यादातर का तो अभी निर्माण भी नहीं हुआ है।
रक्षा मंत्रालय ने विवाहित सिपाहियों के लिए 2 लाख क्वॉर्टरों के निर्माण के लिए 17,358 करोड़ रुपये आवंटित किए थे। इन क्वॉर्टरों के निर्माण के लिए 4 साल की समयसीमा तय की गई थी। पर समय बीत जाने के बावजूद इनका निर्माण नहीं हो पाया है। खैर, यदि ये क्वॉर्टर निर्मित हो भी जाते हैं, तो इनमें से ज्यादातर तब तक खाली रहेंगे, जब तक सेनाओं के अधिकारी दूसरी अंदरुनी समस्या का समाधान नहीं कर देते। यह समस्या स्कूलिंग से जुड़ी है।
बड़े कैंटोनमेंट में आज एक या उससे ज्यादा केंद्रीय विद्यालय हैं। पर समस्या दूसरी तरह की है। केंद्रीय विद्यालय बोर्ड के नियम के मुताबिक, किसी विद्यार्थी का दाखिला शैक्षणिक सत्र के बीच में विरले ही किया जाता है। ऐसे में यदि किसी फौजी का तबादला ऐसे वक्त में हुआ, जिस वक्त केंद्रीय विद्यालय का सत्र शुरू हो चुका है, तो उसके बच्चों का एडमिशन केंद्रीय विद्यालय में नहीं होगा। ऐसे में फौजी के पास एक ही विकल्प रहता है – वह है बच्चों का दाखिला आर्मी स्कूल में कराने का।
आर्मी स्कूल की स्थापना आर्मी वेलफेयर एजुकेशन सोसायटी द्वारा की जाती है और इनका संचालन लोकल आर्मी यूनिट द्वारा होता है। पर क्वॉलिटी एजुकेशन के मामलो में इन स्कूलों की दशा बेहद खराब है। दूसरी ओर, पाकिस्तानी कैंटोनमेंट में चलने वाले आर्मी स्कूलों (जिनका संचालन पाकिस्तानी आर्मी वेलफेयर ट्रस्ट करता है) की स्थिति काफी अच्छी है।
वहां इन स्कूलों के लिए बाकायदा अलग से एक एजुकेशन बोर्ड गठित किया गया है, जिसे अस्करी एजुकेशन बोर्ड (एईबी) नाम दिया गया है। वहां एईबी की अहमियत वहां के राष्ट्रीय बोर्ड से ज्यादा है। प्राइवेट कंपनियां अपने कर्मचारियों और उनके परिजनों के लिए हाउसिंग और स्कूलिंग समेत दूसरी कई सुविधाओं का इंतजाम कर रही हैं।
मिसाल के तौर पर टाटा को ही ले सकते हैं, जिसने जमशेदपुर में ऐसा किया है। आज ज्यादातर जवान इसलिए नौकरी छोड़ना चाहते हैं, क्योंकि उन्हें लंबे वक्त तक अपने परिवार से दूर रहना पड़ता है। लिहाजा इन समस्याओं को गंभीरता से लिए जाने की जरूरत है।