यह हमारी दुनिया के लिए बनने या बिखरने का समय है। वायरस एवं उसके स्वरूपों और टीकाकरण के बीच एक दौड़ चल रही है। जिस रफ्तार से कोरोनावायरस अपने स्वरूप बदल रहा है, उसका मतलब है कि जब तक हर कोई सुरक्षित नहीं है, तब तक कोई भी सुरक्षित नहीं है। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के मुताबिक दुनिया को टीकों की करीब 11 अरब खुराकों की जरूरत है और इनका जल्द से जल्द अत्यंत गरीब लोगों और सुदूरवर्ती इलाकों में पहुंचना जरूरी है। अन्यथा इस बात का डर है कि वायरस फैलेगा और अपना स्वरूप बदलकर लौटेगा। नए स्वरूप से सुरक्षित लोगों के लिए भी जोखिम बढ़ जाएगा।
मुद्दा टीकों या इन्हें बनाने में दुनिया के सक्षम होने का नहीं है। जून 2021 में 200 से अधिक टीके आने की कतार में थे। इनमें से 102 चिकित्सकीय परीक्षण के चरण में पहुंच चुके हैं। डब्ल्यूएचओ का अनुमान है कि विश्व 2021 के आखिर तक करीब 14 अरब खुराक बनाने में सक्षम होगा। चीन की दो टीका विनिर्माताओं- सिनोफार्म और सिनोवैक ने करीब तीन अरब खुराकों के उत्पादन की योजना बनाई है। अमेरिका की फाइजर-बायोनटेक ने क्षमता बढ़ाकर तीन अरब खुराक कर ली है। ऑक्सफर्ड-एस्ट्राजेनेका ने भी क्षमता इतनी ही कर ली है। और भी कंपनियां हैं, इसलिए टीकों की कोई किल्लत नहीं है।
समस्या टीकों की कीमत को लेकर है। यह दुनिया की ज्यादातर आबादी के बूते में होनी चाहिए। इस समय टीकों की कीमतों में पारदर्शिता नहीं है क्योंकि कंपनियां जहां लाभ ले सकती हैं, वहां लेने की कोशिश कर रही हैं। डब्ल्यूएचओ टीकों की कीमतों पर नजर नहीं रखता है और इनका एकमात्र स्रोत मीडिया रिपोर्ट हैं। आम तौर पर टीकों की कीमत 2.50 से 20 डॉलर प्रति खुराक है। ऑक्सफर्ड एस्ट्राजेनेका का टीका सबसे सस्ता है। रोचक बात यह है कि यूरोपीय संघ ने कीमत 2.50 डॉलर प्रति खुराक चुकाई है, जबकि दक्षिण अफ्रीका से एक खुराक की कीमत 5.25 डॉलर वसूली गई। सिनोफार्म के टीके के दाम श्रीलंका में 15 डॉलर प्रति खुराक और बांग्लादेश में 10 डॉलर प्रति खुराक हैं। दोनों ही देशों में सरकारों ने ऑर्डर दिए हैं। लेकिन ऐसी भी खबरें आ रही हैं कि सिनोफार्म अपना टीका अर्जेन्टीना में 40 डॉलर प्रति खुराक की दर से बेच रही है और अमेरिका में मॉडर्ना के टीके की कीमत 37 डॉलर है।
टीका कंपनियां अपनी मोटी कमाई बनाए रखना चाहती हैं। क्षमता बढ़ाने की रणनीति में या तो खुद उत्पादन बढ़ाना है या अन्य के साथ अनुबंध करना है। लेकिन कीमतें एवं लाभ यथावत रहें। सभी मामलों में कंपनियां कीमतों को नियंत्रित करेंगी। उन्होंने जहां छूट की पेशकश की है, वहां उनका कहना है कि उन्होंने ऐसा इसलिए किया क्योंकि सरकारों ने टीके के शोध एवं विकास में निवेश किया है। इसका एक उदाहरण एस्ट्राजेनेका की यूरोपीय संघ को बिक्री है। लेकिन कंपनी के अधिकारियों का कहना है कि ये महामारी की कीमतें हैं और उनका अनुमान है कि कीमत अगले साल या उसके बाद कई गुना बढ़ेगी।
ऐसे में टीकों में असमानता निश्चित है। गरीब देश टीके की लागत का बोझ वहन नहीं कर सकते हैं। भारत सरकार ने अपनी एक अरब आबादी के टीकाकरण पर सहमति जताई है। इसने अपनी दो अरब खुराकों की जरूरत में से करीब 44 करोड़ खुराकों के ऑर्डर 150 रुपये (2 डॉलर) प्रति खुराक की दर पर सीरम इंस्टीट्यूट और भारत बायोटेक को दिए हैं। इससे अर्थव्यवस्था पर दबाव बढ़ेगा, जो पहले ही महामारी के नुकसान से लडख़ड़ा रही है। इसके बावजूद देश में सार्वभौमिक टीकाकरण कार्यक्रम सरकार की पहुंच में है क्योंकि प्रत्येक खुराक की लागत कम है। बांग्लादेश और कैमरून जैसे देश अपनी जनता का मुफ्त टीकाकरण करने के लिए 10 से 15 डॉलर प्रति खुराक की लागत वहन करने में किसी भी तरह सक्षम नहीं हैं।
आगे दो विकल्प हैं। पहला विकल्प अपनी कंपनियों से टीके खरीदना और इन्हें डब्ल्यूूएचओ के कोवैक्स सुविधा केंद्र को आपूर्ति करना है, जिसका गठन दुनिया भर में कोविड-19 टीके के वितरण के लिए हुआ है। इस विकल्प के पक्ष में जर्मनी और ब्रिटेन हैं। हाल में आयोजित जी7 सम्मेलन के मेजबान बोरिस जॉनसन ने कहा कि उनका देश 10 करोड़ सरप्लस टीके दान में देगा। उन्होंने अपनी जरूरत से अधिक खरीद की है, जिसमें से सितंबर, 2021 तक 50 लाख टीके भेजे जाएंगे। अमेरिका समेत सभी देश 50 करोड़ टीकों का योगदान दे रहे हैं। जी7 ने कहा है कि वह 2022 के मध्य तक एक अरब खुराक मुहैया कराएगा। यह सहायता बहुत कम और बहुत देरी से होगी क्योंकि अफ्रीका में मामले पहले ही बढ़ रहे हैं।
इस बारे में कोई योजना नहीं है कि खरीदने और दान देने की इस रणनीति में दुनिया कैसे सार्वभौमिक टीकाकरण की लागत वहन कर पाएगी। कोवैक्स को पहले ही किल्लत का सामना करना पड़ रहा है और इसने आपूर्ति के वादे तोड़े हैं। ऐसे में बौद्धिक संपदा अधिकार में अस्थायी छूट मुहैया कराने का दूसरा विकल्प खुलता है। इससे अन्य कंपनियां टीकों का बड़े पैमाने पर उत्पादन कर पाएंगी। एचआईवी/एड्स की दवाओं की तरह यह छूट दिए जाने पर कीमतें कम होंगी। कम कीमत से उपलब्धता एवं पहुंच को बढ़ाने में मदद मिलेगी। इससे महामारी से निपटने की मुहिम सही मायनों में वैश्विक बन जाएगी।
लेकिन इसका यह मतलब है कि ‘स्वतंत्र विश्व’ को लोकतंत्र के साथ अपना जुड़ाव मजबूत करना चाहिए। अमेरिकी राष्ट्रपति के शब्दों में दुनिया की ‘निरंकुशता’ से लडऩे के लिए स्वतंत्र विश्व को दिखाना होगा कि यह कैसे सार्वजनिक क्षेत्र में ‘जनता’ को फिर से स्थापित करता है। इस समय हमने देश को विखंडित कर दिया है और बाजार को बढऩे की इजाजत दे दी है। देश-बाजार-उपभोक्ता समाज के मेल से ऐसी समस्याएं पैदा हुई हैं। इसमें बदलाव की जरूरत है। कोविड और उसके बाद के लिए।