मनुष्य ही नहीं अर्थव्यवस्थाओं को भी विकास के लिए ऊर्जा की आवश्यकता होती है। उत्पादकता में वृद्धि का सीधा संबंध ऊर्जा के स्वरूपों के इस्तेमाल में वृद्धि से है। मसलन सूखी घास या पुआल जलाकर चलने वाला वाहन पैदल चलने वाले व्यक्ति से तेज होगा लेकिन पेट्रोल से चलने वाले वाहन की तुलना में उसकी गति बहुत धीमी रहेगी। मिट्टी से बनी ईंट पककर मजबूत हो जाती है और यह ऊर्जा से होता है। सीमेंट और स्टील जैसे ऊर्जा का इस्तेमाल करके बने उत्पादों से निर्माण की गुणवत्ता और मजबूत होती है। ऊर्जा किफायत में सुधार के कारण बीते कुछ दशक में भारत के जीडीपी में वृद्धि की तुलना में ऊर्जा की मांग 2.5 फीसदी कम हुई है। भारत ऊर्जा के घने स्वरूपों यानी तेल, गैस और यूरेनियम आदि का आयात करता है और ऊर्जा आयात में इनकी हिस्सेदारी 40 प्रतिशत है। इनका आयात जीडीपी की तुलना में तेजी से बढ़ रहा है। उर्वरक और पाम ऑयल समेत 2019-20 में देश के व्यापार घाटे में शुद्ध ऊर्जा आयात की हिस्सेदारी करीब 80 फीसदी थी जो पिछले तीन महीनों में और बढ़ गई। सेवाओं के निर्यात ने इस आयात के लिए भुगतान मेंं काफी मदद की जबकि शेष के लिए हमें पूंजीगत आवक की जरूरत होती है जिसके लिए परिसंपत्ति की बिक्री की जाती है या ऋण लिया जाता है। 2007 में जब कच्चा तेल 150 रुपये प्रति बैरल के पार था तब आईटी सेवा निर्यात तथा विदेशी पोर्टफोलियो निवेशकों की पूंजीगत आवक की बदौलत अर्थव्यवस्था कष्ट से बची रही।
गत दो माह की तरह जब आपूर्ति बाधा के चलते वैश्विक ऊर्जा कीमतें तेजी से बढ़ीं तो सेवा आयात और पूंजीगत आवक तेजी से कदमताल नहीं कर सके। वार्षिक ऊर्जा आयात गत तीन माह में बढ़कर 40 अरब डॉलर से ऊपर निकल चुका है। जीडीपी के हिस्से के रूप में बढ़ोतरी देखें तो वित्त वर्ष 20 में यह 1.1 फीसदी और वित्त वर्ष 21 के लिए 2.5 फीसदी है। यह वृद्धि के लिए विपरीत हालात वाला है क्योंकि विदेशी आयातकों को यह अतिरिक्त भुगतान करना घरेलू उत्पादों की मांग सीमित करेगा। कच्चे तेल का करीब 40 प्रतिशत आम परिवार सीधे इस्तेमाल करते हैं जबकि शेष 60 फीसदी उद्योग जगत प्रयोग में लाता है।
दूसरी बात जब सघन ऊर्जा की कीमत बढ़ती है तो उसके इस्तेमाल में कमी आती है जो उत्पादकता में वृद्धि को प्रभावित करती है। गत सप्ताह पेट्रोल और डीजल पर उत्पाद शुल्क कम किया गया और कुछ राज्यों ने उस पर कर कम किया जिसके चलते उपभोक्ता लागत पर करीब 20 अरब डॉलर की बचत होगी।
इस निर्णय को सरकार की ओर से अधिशेष प्राप्तियों को नए सिरे से व्यवस्थित करने के रूप में भी देखा जा सकता है जो अर्थव्यवस्था पर लागत की तरह है, भले ही उसे सुधार का द्योतक माना जा रहा हो। पहली छमाही में केंद्र सरकार को बजट अनुमान की 56 फीसदी प्राप्तियां हुईं जबकि 40 फीसदी सामान्य स्तर है। यह 16 फीसदी की अतिरिक्त राशि करीब 43 अरब डॉलर है और सालाना आंकड़ा और अधिक रहने वाला है। केंद्र और राज्य सरकारें व्यय बढ़ाने में संघर्ष करती रही हैं और रिजर्व बैंक के साथ उनका नकदी संतुलन बढ़कर जीडीपी के 2 फीसदी से अधिक हो गया है। अर्थव्यवस्था को बढ़ती ऊर्जा कीमतों से बचाव मुहैया कराना उचित कदम है। इस वर्ष उर्वरक सब्सिडी में इजाफे को भी इसमें शामिल किया जाना चाहिए।
यह शंका भी हो सकती है कि ईंधन कीमतों का मुद्रास्फीतिक पहलू दरों में कटौती के लिए मजबूत उत्प्रेरक रहा है। हालांकि पेट्रोल और डीजल उपभोक्ता मूल्य सूचकांक में 2.5 फीसदी से कम का हिस्सेदार है। कीमतों में तेज इजाफे के कारण शीर्ष मुद्रास्फीति में 60-70 फीसदी का इजाफा हुआ। इसके अलावा दूसरी श्रेणी का मुद्रास्फीतिक दबाब परिवहन सेवाओं से इतर भी बढ़ रहा था। ईंधन करों में कटौती से शीर्ष खुदरा मुद्रास्फीति में 30 आधार अंक की कमी आनी चाहिए। इससे मुद्रास्फीतिक अनुमानों को सीमित करने में मदद मिलेगी। निकट भविष्य में इस कटौती पर सब्जियों की कीमत में तेजी की छाया पड़ सकती है क्योंकि लगातार तीसरे वर्ष मॉनसून देर से विदा हुआ और बेमौसम की बारिश ने कई प्रांतों में फसलों को नुकसान पहुंचाया। हालांकि कई फसलें जल्दी तैयार होने वाली हैं और दो महीनों में आपूर्ति दोबारा शुरू होने पर कीमतें दोबारा कम होने लगेंगी।
इसी तरह संकेत यह भी है कि ऊर्जा कीमतों में तेजी का चक्र भी कुछ माह में कम हो जाएगा। चीन में कोयला उत्पादन बढऩे के साथ ही कीमतों में कमी आने लगी है और भारतीय बिजली संयंत्रों का कोयला भंडार भी मजबूत हुआ है। ढांचागत कमी होने पर ऊंची कीमतें लंबे समय तक बरकरार रहतीं।
हालांकि इस विषय में अभी आशा ही की जा सकती है। महंगी ऊर्जा के विपरीत प्रभाव और मुद्रास्फीति में इजाफा आने वाले महीनों में अर्थव्यवस्था के सामने बड़ी बाधा बने रहेंगे जहां कई क्षेत्रों में कुछ समस्याओं के बावजूद अर्थव्यवस्था सुधार की राह पर है। बहरहाल, सकारात्मक आश्चर्यों के दौर में ठहराव से यह अनुमान लगता है कि आने वाले समय में नीतिगत प्राथमिकता में बदलाव की आवश्यकता है। खासतौर पर यह देखते हुए कि महामारी की तीसरी लहर का खतरा कमजोर पड़ रहा है।
देखा जाए तो अगर देश की अर्थव्यवस्था को निंरतर सात फीसदी या उससे तेज गति से विकास करना है तो इस दौरान ऊर्जा की मांग भी सालाना 4 से 5 फीसदी की गति से बढ़ेगी। ऐसे में अर्थव्यवस्था को वैश्विक ऊर्जा बाजार के उतार-चढ़ाव से बचाने का हरसंभव प्रयास किया जाना चाहिए। इससे भी महत्त्वपूर्ण बात यह है कि भारत की भूमिका में भी बदलाव देखने को मिल सकता है। फिलहाल वह वैश्विक मांग-आपूर्ति असंतुलन से ही जूझ रहा है यहां उसकी भूमिका सीमित है। फिलहाल यह काफी हद तक किसी और की जवाबदेही है। यानी अन्य देश जो बुरी तरह प्रभावित हैं, उन्हें भी ऊर्जा की लागत कम करने को प्राथमिकता देनी होगी। बहरहाल, भारत के आकार में लगातार बढ़ोतरी हो रही है तो ऐसे में हमें इस बात को लेकर भी सावधान रहना होगा कि हमारी मांग में होने वाली चरणबद्ध वृद्धि किस तरह वैश्विक ऊर्जा बाजार पर भी दबाव बना सकती है। खासतौर पर तब जबकि उत्सर्जन को लेकर जताई जाने वाली प्रतिबद्धता अत्यंत महत्त्वपूर्ण होती जा रही है। ऐसे में ऊर्जा से जुड़े मसलों का केंद्र में रहना लाजिमी है। यदि इसका समाधान नहीं किया गया तो यह आर्थिक सुधार की दिशा में विपरीत शक्ति बना रहेगा।
