देश का बैंकिंग क्षेत्र लगातार चौंका रहा है। जून 2024 की वित्तीय स्थिरता रिपोर्ट (एफएसआर) के अनुसार 2023-24 में उसका प्रदर्शन उतना ही सुखद है जितना कि बीते वर्षों में उसमें आया बदलाव। कोविड-19 महामारी के पहले वर्ष में यानी 2020-21 में प्रवेश करते समय इस क्षेत्र का फंसा हुआ कर्ज यानी गैर निष्पादित संपत्तियां (एनपीए) कुल अग्रिम का 8.5 फीसदी था। विश्लेषकों ने चेतावनी दी थी कि पिछले दो वर्षों में नजर आ रहा सुधार खतरे में है। आशंका यह थी कि एनपीए में कमी आने के बजाय इजाफा होगा और एक बार फिर सरकारी बैंकों को नए सिरे से पूंजी देनी होगी।
बाद में रिजर्व बैंक ने विभिन्न बैंकों के लिए पुनर्गठन की योजना पेश की और तब विश्लेषकों द्वारा कहा गया कि अगर अभी एनपीए को चिह्नित नहीं किया गया तो बाद में बढ़े हुए एनपीए के लिए तैयार रहना होगा। उन्होंने कहा कि अभी कदम उठाना बेहतर होगा। वे गलत साबित हुए। रिजर्व बैंक ने अप्रत्याशित विचारों के साथ बैंकिंग क्षेत्र को महामारी के बाद वापस पटरी पर ला दिया। यह सब तब हुआ जबकि यूक्रेन युद्ध के कारण झटका लगा और अमेरिका तथा यूरोप के बैंकिंग क्षेत्र में अस्थिरता रही। वर्ष 2022-23 तक एनपीए घटकर 3.9 फीसदी रह गया।
विश्लेषकों ने कहा कि वित्तीय संकेतकों में पिछले वर्षों में जो सुधार हुआ है उसे 2023-24 में बरकरार रख पाना मुश्किल है। बैंकों को नकदी संकट का सामना करना होगा और जमा, ऋण वृद्धि के साथ तालमेल नहीं बनाए रख सकेंगे। विशुद्ध ब्याज मार्जिन में कमी आएगी और परिसंपत्ति की गुणवत्ता भी तेजी से कर्ज बढ़ने के कारण प्रभावित होगी। रिटर्न में गिरावट आना लाजिमी है।
वे एक बार फिर गलत साबित हुए। बैंकों के मार्जिन पर नकदीकरण वास्तव में अधिक था। जैसा कि एफएसआर में भी उल्लेख किया गया, सभी अधिसूचित बैंकों का वृद्धिशील ऋण-जमा अनुपात 100 प्रतिशत से अधिक था। निजी बैंकों के लिए यह अनुपात करीब 120 फीसदी था लेकिन लगता नहीं कि बैंकों को जमा की उच्च लागत को कर्जदारों पर डालने में कोई दिक्कत हुई। विशुद्ध ब्याज मार्जिन में पिछले साल की तुलना में करीब एक आधार अंक की गिरावट आई और यह 3.7 फीसदी से घटकर 3.6 फीसदी रह गया।
बैंक बढ़ती जमा दर के बीच विशुद्ध ब्याज मार्जिन को कैसे बरकरार रख सके? उन्होंने उच्च प्राप्ति वाले खुदरा उत्पादों की उच्च वृद्धि दर बरकरार रखके ऐसा किया। उदाहरण के लिए क्रेडिट कार्ड, पर्सनल लोन, संपत्ति के विरुद्ध कर और वाहन ऋण आदि। बीते दो सालों में इन उत्पादों की वृद्धि दर 2022-23 और 2023-23 में क्रमश: 15.4 फीसदी और 16.3 फीसदी की कुल ऋण वृद्धि की दर से सात से 14 प्रतिशत अंक अधिक है।
जिस वर्ष को बैंकों के लिए चुनौती वाला वर्ष बताया गया था, उस वर्ष बैंकों की परिसंपत्तियों पर रिटर्न 1.1 फीसदी से बढ़कर 1.3 फीसदी हो गया। विशुद्ध ब्याज मार्जिन के अधिक होने के अलावा कई अन्य कारक हैं जिन्होंने सुधार में योगदान किया है: ऋण वृद्धि की उच्च दर, कम प्रॉविजन, उच्च ट्रेडिंग आय उच्च शुल्क आय आदि। सरकारी बैंकों के लिए परिसंपत्ति पर रिटर्न 0.9 फीसदी है जो एक फीसदी के अंतरराष्ट्रीय मानक के आसपास है। हमारी बैंकिंग 2000 के दशक के दौर के आसपास जाती दिख रही है।
अतीत में एक के बाद एक बजट में सरकारी बैंकों के निजीकरण की बात की गई है। आईडीबीआई बैंक के निजीकरण की शुरुआत 2018 में शुरू की गई थी लेकिन वह अभी तक पूरा नहीं हुआ। परिसंपत्ति पर एक फीसदी रिटर्न के साथ सरकारी बैंक आंतरिक अधिशेष के साथ पर्याप्त पूंजी जुटा सकते हैं और बाजार में टिके रह सकते हैं। इससे राजकोष पर बोझ नहीं पड़ेगा। ऐसे में निजीकरण को लेकर जोर कम हो सकता है।
बीते दो दशकों में कुल ऋण में बैंकों के खुदरा और सेवा क्षेत्र की हिस्सेदारी बढ़ी है। इन क्षेत्रों में सतत वृद्धि ने अब तक परिसंपत्ति गुणवत्ता पर असर नहीं डाला है। खुदरा ऋण में सकल एनपीए जून 2022 के 2.1 फीसदी से कम होकर मार्च 2024 में 1.2 फीसदी रह गया। असुरक्षित खुदरा ऋण को लंबे समय से खुदरा ऋण का संवेदनशील हिस्सा माना जाता रहा है। बहरहाल इसकी गुणवत्ता में भी सुधार हो रहा है। यहां सकल एनपीए एक वर्ष पहले के 1.6 फीसदी की तुलना में 1.5 फीसदी रह गया है।
वर्ष 2000 के दशक के आरंभ में बुनियादी ढांचे की समस्याओं के बाद अब बैंक गलती करते नहीं नजर आ रहे। सख्त नियमन और पर्यवेक्षण, बैंक स्तर पर जोखिम प्रबंधन में सुधार और वित्तीय सेवा संस्थान ब्यूरो के माध्यम से सरकारी बैंकों में अधिकारियों के बेहतर चयन ने इस सुधार में योगदान किया है। क्या भारतीय बैंकिंग पिछले कुछ वर्षों की इसी दिशा में बढ़ती रह सकती है? प्राथमिक तौर पर तो ऐसा नहीं होने की कोई वजह नजर नहीं आती। भारतीय अर्थव्यवस्था 6.5 फीसदी की दर से बढ़ती नजर आ रही है। एफएसआर का मानना है कि बिना परिसंपत्ति गुणवत्ता को प्रभावित किए भी 16 से 18 फीसदी की दर से ऋण वृद्धि हो सकती है।
इसके साथ ही जमा को लेकर प्रतिस्पर्धा बढ़ेगी। एफएसआर के मुताबिक विशुद्ध वित्तीय बचत 2022-23 के दौरान घटकर जीडीपी के 5.3 फीसदी के स्तर पर रह गई है जबकि 2013-2022 के दरमियान यह 8.0 फीसदी रही थी। रिजर्व बैंक की वार्षिक रिपोर्ट दिखाती है कि सकल वित्तीय बचत में जमा की हिस्सेदारी 2016-17 के 6.3 फीसदी के उच्चतम स्तर से कम होकर 2022-23 में चार फीसदी रह गई।
ऐसे में अहम सवाल यह है कि खुदरा ऋण बैंक राजस्व और मुनाफे को गति देते रह सकते हैं या नहीं? एफएसआर इसे लेकर चेतावनी देती है। इसके मुताबिक भारत का आम पारिवारिक कर्ज जीडीपी के 40 फीसदी के बराबर है जो कि उभरते बाजारों की तुलना में कम है। बहरहाल, प्रति व्यक्ति जीडीपी की तुलना में यह काफी अधिक है। बहरहाल, पांच सालों का रिकॉर्ड दिखाता है कि हम अभी भी उस स्थिति से दूर हैं जहां बैंकों का खुदरा ऋण पर ध्यान अनुत्पादक साबित हो सकता है।
कई लोगों ने कोविड के बाद के वर्षों में देश की अर्थव्यवस्था की मजबूती पर टिप्पणी की है और कहा कि यह ऐसे समय में आई जबकि वैश्विक वृद्धि में धीमापन था। बैंकिंग क्षेत्र की स्थिरता एक अहम कारक है जो मजबूती को रेखांकित करता है। हमारा बैंकिंग क्षेत्र का मॉडल सुधार के बाद के दौर में कई तरह की आलोचना का पात्र रहा है। हाल के वर्षों में उसकी कामयाबी आलोचकों की जुबान बंद करने वाली होनी चाहिए।