लेख

राष्ट्र की बात: अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहा भारतीय विपक्ष

विपक्षी दलों को अच्छी तरह पता है कि उनका सामना किससे है? मोदी को सत्ता से हटाने की कोशिश से अधिक उनकी बातचीत के केंद्र में यह होता है कि भाजपा की सीटें कैसे कम की जाएं।

Published by
शेखर गुप्ता   
Last Updated- April 07, 2024 | 8:57 PM IST

Lok Sabha Elections: आम चुनावों के पहले चरण के मतदान को बमुश्किल एक सप्ताह से कुछ अधिक समय शेष है और प्रमुख दलों के घोषणा पत्र सामने आने लगे हैं। इस बीच चुनाव से जुड़े जनमत सर्वेक्षणों का पहला संस्करण भी आ चुका है। टेलीविजन चैनलों को लेकर भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के प्रतिद्वंद्वियों का भाव समझा जा सकता है। चैनलों के बारे में वे मानते हैं कि ‘इनसे भला और उम्मीद ही क्या की जा सकती है?’ परंतु डेटा रहित विश्लेषण से बेहतर है कि कुछ डेटा का विश्लेषण कर लिया जाए।

कुछ ढाबों और तीन टैक्सी चालकों से बात करके चुनाव नतीजों की घोषणा करने वाले हम पत्रकारों तथा पंडितों पर छोड़ दें तो हम अपने पसंदीदा नेताओं की जीत की घोषणा करके निश्चिंत हो सकते हैं। परंतु अगर नतीजे अलग हुए तो इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन (ईवीएम) को दोष दिया जा सकता है।

सच तो यह है कि इस चुनावी मुकाबले में भाजपा की बढ़त के बारे में बताने के लिए आपको किसी चुनाव विशेषज्ञ की जरूरत भी नहीं है। विपक्ष का महत्त्वाकांक्षी ‘इंडिया’ गठबंधन तालमेल बनाए रखने में संघर्ष करता दिख रहा है और भाजपा ने राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) को हुए नुकसान को दूर करने और उसका पुनर्निर्माण करने की दिशा में पहल कर दी है। विपक्षी दलों में ज्यादातर यही बात होती है कि नरेंद्र मोदी को कहां-कहां रोका जा सकता है, सत्ता से बाहर करने की बात तो दूर है।

फिलहाल तो हालात यही है, हालांकि विपक्ष का मानना है कि चुनावी बॉन्ड से जुड़े खुलासों ने उसके चुनाव अभियान को कुछ मजबूती प्रदान की है। भाजपा को ‘वॉशिंग मशीन’ बताने वाले नारे में दम है, मगर क्या यह इतना शक्तिशाली है कि विपक्ष की तकदीर बदल सके? अधिकांश विपक्षी नेता अभी भी तस्वीर को अधिक संतुलित नजरिये से देख रहे होंगे और वह यह कि मोदी को कैसे सीमित किया जाए?

जनवरी के आरंभ में इंडिगो की एक उड़ान में एक विपक्षी नेता से मुलाकात हुई तो विपक्ष के विचारों की एक झलक मिली। एक परिवार के तीसरी पीढ़ी के इस वारिस को ऐसी पार्टी मिली जिसके पास जाति आधारित वोट बैंक है लेकिन उसका प्रभाव सीमित भूभाग में है। मैंने उनसे चुनावी संभावनाओं के बारे में पूछा और यह भी कि क्या उन्हें लगता है कि जाति आधारित वोट बैंक मोदी के आकर्षण में टिकेगा?

उन्होंने कहा कि जाति आधारित वोट बैंक आमतौर पर सुरक्षित होता है लेकिन जब लोग लोक सभा चुनाव के लिए मतदान करने जाते हैं तो उनके सामने एक ही विकल्प होगा। ‘मतदाताओं को कैसे यकीन दिलाएंगे कि कोई विकल्प है?’ उन्होंने पूछा। उन्होंने कहा कि उनकी पार्टी और विपक्ष ऐसा मुद्दा नहीं तलाश पा रहे हैं जो बड़ी संख्या में लोगों को सड़क पर उतारे। उदाहरण के लिए अगर आप अग्निवीर योजना का नाम लें तो केवल वहीं सड़क पर उतरेंगे जो इसके खिलाफ हैं। बाकी मतदाताओं को कोई फर्क नहीं पड़ेगा। मैंने पूछा, ‘तो हल क्या है? क्या आपकी तीन पीढ़ियों की राजनीति अपने अंतिम दौर में है?’

उन्होंने कहा, ‘इसे ऐसे देख सकते हैं मानो हम परमाणु युद्ध के बाद के दौर में हों। यानी जब तक यह दौर बीत नहीं जाता अपना अस्तित्व बचाए रखें। राजनीति में इसका अर्थ होगा अपने जातीय वोट बैंक को बचाए रखना, कम से कम कुछसीटें जीतना और अपने संसाधन बरकरार रखना। इस प्रकार समय बदलने की प्रतीक्षा करना।’

उनकी यह बात मुझे बहुत समझदारी भरी लगी लेकिन कुछ ही दिन बाद वे ‘इंडिया’ गठबंधन से निकल कर राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन में चले गए। शायद उन्हें अपने अस्तित्व को बचाने का यही तरीका नजर आया। कम से कम जब हालात बदलेंगे तो वे मुकाबले में बने रहेंगे और नए विकल्प तलाशेंगे।

खुद को बचाए रखना या लड़ाई को आगे के लिए टालना इस समय विपक्षी दलों के दिलोदिमाग में चल रहा सबसे प्रमुख विचार है। उनमें से हर एक के सामने अलग-अलग चुनौतियां हैं। ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस जैसी पार्टी की बात करें तो अगर वहां भाजपा वर्ष 2019 से अधिक सीट जीतती है तो उसकी उसकी राज्य सरकार अस्थिर होगी।

आम आदमी पार्टी (आप) चाहेगी कि दिल्ली में वह 2019 से बेहतर प्रदर्शन करे। उद्धव ठाकरे की शिव सेना (यूबीटी) और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी का शरद पवार धड़ा, इन दोनों को अपने अस्तित्व के लिए जीत की जरूरत है। अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी और लालू-तेजस्वी यादव के राष्ट्रीय जनता दल को भी अगर 2019 जैसी हार का सामना करना पड़ा तो उनके भी अपने-अपने राज्य में सत्ता में लौटने का ख्वाब अधूरा रह जाएगा।

इन पार्टियों के पास भी सीमित फंड हैं। जहां वे सत्ता में नहीं हैं वहां वर्षों से फंड का सूखा पड़ा है और उनकी जमा पूंजी तेजी से खत्म हो रहा है। जो अभी भी किसी राज्य में सत्ता में हैं और पैसों वालों को प्रेरित करके धन जुटा सकते हैं वहां एजेंसियां धन देने वालों को भयभीत कर रही हैं।

ये तो हो गई एक राज्य वाले दलों की बात। आम आदमी पार्टी की बात करें तो इसे डेढ़ राज्य माना जा सकता है। कांग्रेस के लिए अलग तरह की चुनौती है। हाल के समय में पार्टी एकजुट रहने के लिए संघर्ष कर रही है। 2014 से 2019 के बीच उसकी इकलौती उपलब्धि रही 20 फीसदी मतदाताओं को अपने साथ जोड़े रखना। परंतु इसके बावजूद उसे इतनी सीट नहीं मिल सकीं कि पार्टी लोक सभा में नेता प्रतिपक्ष का दर्जा भी पा सके। पार्टी को अपने समर्थकों तथा विपक्षियों को यह यकीन दिलाने के लिए आखिर कितनी सीट जीतने की जरूरत है कि वह भविष्य में चुनौती बनेगी?

कह सकते हैं कि 100 सीट का आंकड़ा दिलचस्प होगा और भारत की राजनीति को बदलने वाला साबित हो सकता है। परंतु क्या यह हकीकत के करीब है? मैं समझता हूं कि अगर कांग्रेस आधिकारिक तौर पर यही कहेगी कि ‘इंडिया’ गठबंधन सरकार बनाने जा रहा है लेकिन उसके नेता अनुभवी हैं और जीत-हार दोनों का स्वाद चख चुके हैं। ऐसे में वे मानेंगे कि अगर 80 से अधिक सीट आती हैं तो यह उल्लेखनीय सुधार होगा। ऐसा इसलिए कि तुरंत बाद हरियाणा, महाराष्ट्र और झारखंड में विधानसभा चुनाव होने हैं।

चार जून को आने वाले चुनाव नतीजे इन अहम विधानसभा चुनावों की दिशा तय करेंगे। तीनों राज्यों में भाजपा के सामने मजबूत चुनौती है। अगर कांग्रेस 80 से अधिक लोक सभा सीट जीतती है तो झारखंड और महाराष्ट्र में उसके गठबंधन को मजबूती मिलेगी। अगर पार्टी वहां तक नहीं पहुंचती है तो वह विपक्षी गठबंधन में स्वाभाविक नेतृत्वकर्ता होने का दावा भी गंवा सकती है। लगातार तीसरी हार पार्टी को तो नुकसान पहुंचाएगी ही अन्य भाजपा विरोधी दल भी विकल्प तलाशेंगे। कुछ दल वह रास्ता भी अपना सकते हैं जो मेरे सहयात्री नेता ने चुन लिया।

तब भाजपा इतनी हड़बड़ी में क्यों नजर आ रही है? मोदी ऐसे प्रचार क्यों कर रहे हैं मानो वह पहली बार सत्ता में आने के लिए चुनाव मैदान में हैं? विपक्षी नेताओं पर छापे और गिरफ्तारियां क्यों हो रही हैं? यहां तक कि एक मुख्यमंत्री पद पर रहते हुए जेल में है? अगर पार्टी अच्छी स्थिति में है तो इतनी चिंतित क्यों दिख रही है? हम इनमें से कुछ सवालों के जवाब तलाशेंगे। एक उत्तर तो यही है कि मोदी और शाह की भाजपा का स्वभाव ही यही है। उनके लिए हर चुनाव जीवन-मरण का प्रश्न है।

दूसरा, जैसा कि हमने चार सप्ताह पहले लिखा था कि मोदी 2024 नहीं 2029 के चुनाव की तैयारी कर रहे हैं। इस प्रक्रिया में विपक्ष को अधिक से अधिक नुकसान पहुंचाने से अच्छा क्या होगा। ताकि बचे हुए अपने भविष्य के बारे में सोचें?

विपक्ष और खासकर कांग्रेस की यह चिंता उचित है कि देश पर एक व्यक्ति, एक दल, एक विचारधारा का ऐसा दबदबा कायम हो सकता है जैसा पहले कभी नहीं देखा गया। अगर वे इसे पसंद नहीं करते तो उन्हें मतदाताओं को यकीन दिलाना होगा लोकतंत्र के लिए यह अच्छा नहीं होगा। अब ज्यादा समय नहीं बचा है।

First Published : April 7, 2024 | 8:57 PM IST