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पशुपालन की सफलता और बाधाओं का दायरा

कृषि और उससे जुड़े क्षेत्रों के सकल मूल्य वर्धन (जीवीए) में फसलों की हिस्सेदारी लगातार घट रही है।

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सुरिंदर सूद   
Last Updated- August 24, 2023 | 11:47 PM IST

विभिन्न फसलों की खेती के बजाय किसानों की आजीविका और उनकी आमदनी के विश्वसनीय स्रोत के रूप में पशुपालन उभर रहा है। इसका एक कारण जलवायु परिवर्तन की वजह से मौसम में दिख रही अनिश्चितता और अन्य कारणों से फसलों के उत्पादन पर मंडरा रहा खतरा है। हालांकि पशुपालन इन जोखिमों को काफी हद तक कम कर सकता है। इसके अलावा बढ़ती आमदनी और खाने-पीने की आदतों में बदलाव के कारण पौधे पर आधारित खाद्य पदार्थों की तुलना में दूध, मांस और अंडे जैसे पशु उत्पादों की मांग तेजी से बढ़ रही है। इन वजहों ने फसल की खेती की तुलना में पशुपालन को अधिक आकर्षक बना दिया है।

फसलों और पशुधन क्षेत्रों की दीर्घकालिक वृद्धि के रुझान भी यही दर्शाते हैं। फसल उत्पादन की औसत सालाना चक्रवृद्धि दर (सीएजीआर) 1950 के दशक के 3.0 प्रतिशत से घटकर पिछले दशक में 1.5 प्रतिशत हो गई है, वहीं मवेशियों की वृद्धि 3.0 प्रतिशत से बढ़कर लगभग 7.5 प्रतिशत हो गई है।

कृषि और उससे जुड़े क्षेत्रों के सकल मूल्य वर्धन (जीवीए) में फसलों की हिस्सेदारी लगातार घट रही है। पिछले एक दशक में यह 65.4 प्रतिशत से घटकर 55.1 प्रतिशत रह गई। दूसरी ओर पशुधन उत्पादों की हिस्सेदारी वर्ष 2011-12 में लगभग 20 प्रतिशत से बढ़कर वर्ष 2020-21 में 30.1 प्रतिशत हो गई है।

यदि यह रुझान जारी रहा जो लगभग निश्चित लगता है तब पशुपालन केवल पूरक आमदनी का स्रोत होने के बजाय कृषि कारोबार के मुख्य आधार के रूप में फसलों की खेती की जगह ले सकता है। छोटे, सीमांत किसान और भूमिहीन लोगों की ग्रामीण आबादी में करीब 85 प्रतिशत से अधिक हिस्सेदारी है और वे अपने जीवन निर्वाह के लिए काफी हद तक पशुधन पर निर्भर हैं।

वहीं दूध उद्योग से लगभग 8 करोड़ डेरी किसान जुड़े हैं। इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि भारत अब दूध उत्पादन में दुनिया में सबसे आगे है। उसने 1998 में दुनिया के सबसे बड़े दूध उत्पादक के रूप में अमेरिका की जगह ले ली है। वर्ष 2021-22 में इसका दूध उत्पादन 22.1 करोड़ टन था जो वैश्विक दूध आपूर्ति का लगभग 23 प्रतिशत था। भारत में प्रति व्यक्ति दूध की उपलब्धता रोजाना लगभग 444 ग्राम है जो हर दिन 394 ग्राम के वैश्विक औसत से कहीं अधिक है।

दूध अब देश के सबसे बड़े कृषि जिंसों में शामिल है जो उत्पादन की मात्रा और मूल्य दोनों के लिहाज से चावल और गेहूं से आगे निकल गया है। दूध पर आधारित श्वेत क्रांति पशुपालन क्षेत्र की एकमात्र सफलता की कहानी नहीं है। पोल्ट्री उद्योग ने भी 6 प्रतिशत से अधिक की सालाना चक्रवृद्धि दर से वृद्धि दर्ज की है। वर्ष 2020-21 में अनुमानित तौर पर अंडे का उत्पादन 130 अरब था जो प्रति व्यक्ति के हिसाब से लगभग 95 अंडे होता है। इसी तरह की अच्छी वृद्धि के बलबूते मांस उत्पादन वर्ष 2021-22 में रिकॉर्ड 92 लाख टन के स्तर तक पहुंच गया।

ध्यान देने वाली बात यह है कि पशु उत्पादों के निर्यात में भी तेजी देखी जा रही है। कृषि एवं प्रसंस्कृत खाद्य उत्पाद निर्यात विकास प्राधिकरण (एपीडा) के अनुसार भारत ने वर्ष 2022-23 में 32,597 करोड़ रुपये से अधिक के पशुधन उत्पादों का निर्यात किया है। भैंस, भेड़ और बकरियों के मांस के अलावा पोल्ट्री और डेरी उत्पाद प्रमुख निर्यात वस्तुएं हैं। पशु उत्पादों के निर्यात में अकेले भैंस के मांस का हिस्सा लगभग दो-तिहाई था।

दिलचस्प बात यह है कि निजी निवेश के जरिये पशुपालन क्षेत्र ने ये ऊंचाई हासिल की है। केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा दिए जाने वाले कृषि सब्सिडी का बड़ा हिस्सा फसलों के लिए होता है। वर्ष 2023-24 के केंद्रीय बजट में भी खाद्य, उर्वरक और अन्य कृषि सब्सिडी के मद में 4 लाख करोड़ रुपये से अधिक रकम रखी गई, वहीं पशुपालन और डेरी विभाग के लिए आवंटन केवल 4,328 करोड़ रुपये है। पशु उत्पादों को ऐसी कीमत और मार्केटिंग के लिहाज से भी मदद नहीं मिलती है जो मदद फसलों को न्यूनतम समर्थन मूल्य और आधिकारिक खरीद के माध्यम से मिलती है।

आमतौर पर इस बात को लेकर आश्वस्ति नहीं बन पाती है कि पशुपालन के जरिये घरेलू स्तर पर खाद्य और आय सुरक्षा सुनिश्चित की जा सकती है। जब प्रतिकूल मौसम या अन्य कारणों से फसलें खराब हो जाती हैं तब जानवर ही दूध, अंडे, ऊन या मांस के माध्यम से भोजन और आमदनी देना जारी रखते हैं। अगर बेहद खराब परिस्थिति हो गई है तब भी नकद रकम के लिए जानवर भी बेचे जाते हैं।

इसके अलावा बैलों का उपयोग पारंपरिक रूप से खेती से जुड़े कामों और परिवहन के स्रोत के रूप में किया जाता है। इसी वजह से इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि ग्रामीण परिवारों की सामाजिक-आर्थिक स्थिति के प्रमुख निर्धारकों में खेत वाले जानवर भी शामिल हैं। बात यहीं तक नहीं रहती बल्कि ग्रामीण क्षेत्रों की शादियों में ऐसे मवेशी भी उपहार के तौर पर दिए जाते हैं। हालांकि, इस क्षेत्र को कुछ बाधाओं का भी सामना करना पड़ता है।

इनमें सबसे अहम पशुओं के चारे और पशु आहार की कमी है जिसके कारण इनकी कीमत अधिक हो जाती है। प्राकृतिक चारागाह और जानवरों को चराने के सामान्य मैदानों में अतिक्रमण जैसी स्थिति बन जाती है या वे अपने वनस्पति आवरण के क्षरण के कारण लगभग गायब ही हो रहे हैं या उनका आकार कम हो रहा है। ऐसे में चारे की खेती वास्तव में इसकी कीमतें बढ़ा रही है।

झांसी में मौजूद भारतीय चारागाह एवं चारा अनुसंधान संस्थान का अनुमान है कि हरे चारे, सूखे चारे और अनाज वाले पशु आहार की कमी क्रमशः 12 प्रतिशत, 23 प्रतिशत और 30 प्रतिशत तक है। यदि इस मुद्दे पर ध्यान नहीं दिया जाता है तब पशुपालन क्षेत्र की वृद्धि प्रभावित होगी जिससे पशुधन-पालकों और पशु उत्पादों के उपभोक्ताओं सहित विभिन्न हितधारकों को नुकसान हो सकता है।

First Published : August 24, 2023 | 11:37 PM IST