केंद्र सरकार ने गत सप्ताह यह निर्णय लिया कि प्रधानमंत्री गरीब कल्याण अन्न योजना बंद की जाएगी। यह योजना 28 महीने पहले इसलिए शुरू की गई थी ताकि महामारी के दौरान आबादी के वंचित वर्ग को सहायता पहुंचाई जा सके। इसके तहत उन्हें पांच किलोग्राम चावल या गेहूं नि:शुल्क दिया जा रहा था। अर्थव्यवस्था में गतिविधियां सामान्य होने के साथ ही सरकार के लोगों समेत कुछ ने सुझाव दिया कि इस योजना को बंद कर दिया जाना चाहिए। हालांकि कई बार इसकी अवधि बढ़ाने के बाद यह निर्णय लिया गया कि इसे वर्ष के अंत तक जारी रखा जाएगा। इस योजना की वजह से हर महीने 15,000 करोड़ रुपये का आर्थिक बोझ पड़ रहा था। योजना को बंद करना अनिवार्य तौर पर एक अस्थायी उपाय था लेकिन इसकी बदौलत अहम बचत होगी। सरकार ने राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम (एनएफएसए) के तहत नि:शुल्क खाद्यान्न वितरण एक वर्ष तक जारी रखने का निर्णय लिया है जिसकी शुरुआत 1 जनवरी, 2023 से होगी। इस मोड़ पर ऐसे निर्णय से बचना चाहिए था।
खाद्य सुरक्षा अधिनियम के तहत सरकार वैसे भी खाद्यान्न भारी सब्सिडी पर वितरित कर रही है। इस अधिनियम के तहत सरकार चावल, गेहूं और मोटे अनाज को क्रमश: तीन रुपये, दो रुपये और एक रुपये प्रति किलो की दर पर वितरित करती रही है। हालांकि कीमतें कम थीं और बजट पर इनका बहुत अधिक असर नहीं पड़ना था लेकिन यह निर्णय सैद्धांतिक तौर पर पहेलीनुमा है। इस अधिनियम के तहत खाद्यान्न वितरण की बात करें तो यह करीब 81 करोड़ लाभार्थियों का ध्यान रखता है और अनुमान है कि इसकी लागत करीब दो लाख करोड़ रुपये आएगी। यह स्पष्ट नहीं है कि किन आर्थिक वजहों ने सरकार को यह निर्णय लेने पर विवश किया।
महामारी के कारण जब आर्थिक गतिविधियां प्रभावित हो रही थीं तब नि:शुल्क अनाज वितरित करने की पर्याप्त वजह थीं लेकिन अब इसका कोई तुक समझ में नहीं आता। राजनीतिक दृष्टि से भी यह कल्पना करना मुश्किल है कि सरकार 2023 के अंत तक नि:शुल्क अनाज वितरण की योजना बंद कर पाएगी क्योंकि उसके कुछ ही महीने बाद चुनाव हैं। चुनावों के करीब होने पर ऐसी पात्रता योजनाओं को बंद करना हमेशा मुश्किल होता है। ऐेसे में जोखिम यह है कि इसे 2023 के बाद भी कुछ समय तक जारी रखा जाएगा।
यानी यह निर्णय उससे ठीक उलट है जैसी कि सरकार से अपेक्षा की जाती है। चूंकि वितरण कीमतें 2013 में इस कानून के लागू होने के बाद से ही नहीं बदली हैं इसलिए सरकार को इनमें सुधार करना चाहिए था ताकि सब्सिडी कम की जा सके। यह बात ध्यान देने लायक है कि सरकार का राजकोषीय घाटा काफी अधिक रहा है और सार्वजनिक ऋण के स्तर को देखते हुए उसे राजकोषीय सुदृढ़ीकरण को अधिक तेजी से अपनाने का प्रयास करना चाहिए। हालांकि सरकार ने चालू वर्ष में राजकोषीय घाटे को सकल घरेलू उत्पाद के 6.4 फीसदी के स्तर पर सीमित रखने की अपनी प्रतिबद्धता दर्शाई है लेकिन धीमी वृद्धि के साथ आने वाले वर्षों में सुदृढ़ीकरण और मुश्किल हो सकता है।
अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष की ताजा कंट्री रिपोर्ट में अनुमान जताया गया है कि चालू वित्त वर्ष की भारत की 6.8 फीसदी की वृद्धि दर अगले वित्त वर्ष में घटकर 6.1 फीसदी रह जाएगी। ध्यान देने वाली बात यह है कि अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष ने अधिक महत्त्वाकांक्षी और बेहतर संचार वाले राजकोषीय सुदृढ़ीकरण की बात कही है जो मध्यम अवधि में राजकोषीय टिकाऊपन सुनिश्चित करेगा। माना जा रहा है कि भारत का कर्ज-जीडीपी अनुपात 2021 में 89 फीसदी के साथ अपना उच्चतम स्तर हासिल कर चुका है लेकिन मध्यम अवधि में उसके ऊंचा बना रहने की उम्मीद है। खाद्यान्न से जुड़ा निर्णय बाजार को यह संकेत देता है कि सरकार चुनावों तक राजकोषीय सुदृढ़ीकरण को लेकर धीमा रुख अपनाएगी जिससे उधारी की लागत बढ़ सकती है। ऐसे में सरकार के लिए यह काफी महत्त्वपूर्ण हो गया है कि वह आगामी बजट में सुदृढ़ीकरण का स्पष्ट खाका खींचे।