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पंजाब चुनावों से तय होगी अकाली दल की किस्मत

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बीएस संवाददाता
Last Updated- December 11, 2022 | 9:10 PM IST

इसमें शायद ही कोई संदेह है कि पंजाब में 20 फरवरी को होने जा रहे विधानसभा चुनाव शिरोमणि अकाली दल और साथ ही बादल परिवार के लिए अत्यधिक महत्त्वपूर्ण होने वाले हैं। ये चुनाव पूर्व उपमुख्यमंत्री सुखबीर बादल के लिए भी उल्लेखनीय महत्त्व के हैं। किसान आंदोलन ने अकाली दल को मुश्किल हालात में डाल दिया: पार्टी को राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) छोडऩा पड़ा और अपने सबसे पुराने साझेदार भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) को विदा करना पड़ा। आज भाजपा यानी एक ऐसी पार्टी के सदस्य जो कभी राज्य विधानसभा में दो अंकों में सीट नहीं पा सकी (2014 के लोकसभा चुनाव में देशव्यापी मोदी लहर के बावजूद भाजपा को पंजाब में केवल दो सीट मिलीं जबकि आम आदमी पार्टी ने उससे अधिक सीटें हासिल कीं), वे प्रदेश की सबसे पुरानी पार्टी को खारिज करते नजर आ रहे हैं।
सन 1920 में जब भारत और पाकिस्तान के पंजाब का बंटवारा नहीं हुआ था तब सिखों के अधिकारों और हितों की रक्षा के लिए मास्टर तारा सिंह ने शिरोमणि अकाली दल की स्थापना की थी जो सिख पंथ (समुदाय) और धार्मिक नियमों पर आधारित था। हालांकि धर्म और राजनीति एक दूसरे से वैधता पाते हैं लेकिन इतिहास में ऐसे भी कई मौके आए हैं जब इनमें प्रभुत्व के लिए जंग हुई है। प्रकाश सिंह बादल उस समय अकाली दल में शामिल हुए जब वह ब्रिटिशों को निकाल बाहर करने की इच्छा से एकजुट था। परंतु जब ब्रिटिशों ने भारत छोड़ा और विभाजन की आंच पंजाब के विभाजन के रूप में सामने आई तब अकाली दल में भी विभाजन हुआ और वह अलग-अलग घटक में बंट गया जो आपस में ही उलझ रहे थे। सवाल यह था कि आखिर किसकी चलनी चाहिए: सिख धर्मगुरुओं की या पार्टी के राजनीतिक मोर्चे की? पंजाब की राजनीति में यह बहुत बड़ा मुद्दा बन गया।
कम्युनिस्ट पार्टी और कांग्रेस दोनों की पंजाब में गहरी जड़ें थी, ऐसे में शिरोमणि अकाली दल स्वाभाविक रूप से दोनों के एकदम खिलाफ था। बादल और तोहड़ा समूह तथा बाद में अन्य समूहों के बीच की प्रतिद्वंद्विता से स्वर्ण मंदिर, इंदिरा गांधी की हत्या जैसी घटनाएं घटीं और पंजाब तथा शेष भारत के बीच दशकों तक हालात खराब रहे। वर्ष बीतने के साथ प्रकाश सिंह बादल अकाली दल का प्रभुत्व बरकरार रखने में कामयाब रहे और शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी (एसजीपीसी) की पकड़ कमजोर हो गई।
इस इतिहास तथा शिरोमणि अकाली दल और कांग्रेस के बीच की कटुता के साथ भाजपा स्वाभाविक सहयोगी बन गई, हालांकि बीच-बीच में तनाव के क्षण भी आए। शिरोमणि अकाली दल-भाजपा गठबंधन के लिए 2008 में विश्वास मत के समय परीक्षा की घड़ी आई। तब मनमोहन सिंह सरकार ने भारत-अमेरिका परमाणु सौदे को लेकर विश्वास मत हासिल करना चाहा था। पार्टी के अनेक नेता दुविधा में थे कि देश के पहले सिख प्रधानमंत्री के खिलाफ मतदान किया जाए या नहीं लेकिन प्रकाश सिंह बादल भाजपा के साथ अविचल खड़े रहे। सुखबीर बादल ने कहा कि अकाली परमाणु सौदे के खिलाफ नहीं थे (वे होते भी कैसे? अमेरिका में रहने वाले तमाम अनिवासी सिखों को याद कीजिए)। गुजरात चुनाव के समय मोदी ने अपना रथ तैयार होने के पहले प्रकाश सिंह बादल के सजे धजे रथ का इस्तेमाल किया। जब उत्तराधिकार का सवाल उठा तो उनके बेटे सुखबीर ने पारिवारिक काम संभाला। यह सन 2009 की बात है। अकाली दल की सरकारों में सुखबीर ने राज्य में कई आर्थिक और प्रशासनिक सुधारों को अंजाम दिया। उन्होंने एक नई उद्योग संवद्र्धन तथा कृषि विविधता नीति प्रस्तुत की जिसने पंजाब को केवल कृषि पर निर्भरता से अलग किया। पंजाब की औद्योगिक नीति संबंधी दस्तावेज में यह वादा शामिल किया गया कि पंजाब को बिजली के अधिशेष वाला राज्य बनाया जाएगा। प्रदेश में नौ नए बिजली संयंत्र स्थापित किए गए। परंतु बिजली खरीद समझौते महंगे और कोयला आधारित थे। ऐसे में राज्य को महंगी बिजली खरीदनी पड़ रही थी। तमाम सुधारों के बावजूद वितरण कंपनी सात रुपये प्रति यूनिट की दर से खरीदी बिजली को तीन रुपये प्रति यूनिट की दर पर उपलब्ध करा पा रही थीं।
भाजपा के साथ पार्टी के रिश्ते बिगड़ गए लेकिन बादल की सरकार ने जिन सुधारों को अंजाम देने का प्रयास किया था उन्हें ही उनके खिलाफ इस्तेमाल किया जा रहा है। जुलाई 2021 में अमरिंदर सिंह ने राज्य के बिजली नियामक से कहा कि वह पिछली अकाली दल-भाजपा सरकार द्वारा विभिन्न निजी बिजली संयंत्रों के साथ हस्ताक्षरित बिजली खरीद समझौतों की जांच करे और अनुबंध को संशोधित करे अथवा (राज्य के लिए उपयुक्त न होने पर) रद्द करे। कुछ महीनों के बाद वित्त मंत्री मनप्रीत बादल ने भ्रष्टाचार का आरोप लगाते हुए कहा कि पिछली सरकारों ने बिजली संयंत्रों की शर्तों को बनाने, संचालित करने और हस्तांतरित करने से बदलकर बनाने, संचालित करने और स्वामित्व रखने का कर दिया जिससे निजी कारोबारियों को लाभ हुआ।
राजनीतिक प्रभाव कम होने के साथ ही पारिवारिक कारोबार पर भी असर पड़ रहा है। शिरोमणि अकाली दल अपनी वित्तीय और राजनीतिक पूंजी को कैसे बचाएगी? पंजाब में 2022 के विधानसभा चुनाव के बाद एक दल सत्ता में आएगा और दूसरा विपक्ष में बैठेगा। परंतु यह चुनाव यह निर्धारण भी करेगा कि अकाली दल किस आकार और स्वरूप में बचेगा।

First Published : February 19, 2022 | 12:15 AM IST